Category Archives: film

लड़की, लड़का और गिरगिट की नज़र-हास्य व्यंग्य


शाम का समय था और उन शराब के नशे में धुत उन दोनों लड़कों में एक ने राह पर अकेले जा रही उस लड़की का हाथ पकड़ लिया। सामान्य भाषा में कहें तो उसे छेड़ना भी कहते हैं। वह चिल्लाई तो वहां से गुजर रहे दो शहर पहरेदारों की नजर उस पर पड़ गयी। वह सीटी बजाते हुए लड़कों पकड़ने दौड़े। एक लड.का वहां से भाग निकला। दूसरे को मौका नहीं मिला इसलिये लड़के अकड़ कर खड़ा हो गया। दोनों पहरेदारों ने लड़के का हाथ पकड़ लिया और बोले-‘चलो बड़े घर! देखों तुम्हारी क्या हालत करते है?’

लड़का अकड़ कर बोला-‘पहले हाथ छोड़ो! तुम जानते नहीं मैं कौन हूं?’

पहले पहरेदार ने कहा-‘अबे चुप रह! यहां तुम जैसा हर लड़का यहां के मशहूर आदमी शहर साहब का बेटा होने का नाटक करता हैं। ं हर इलाके में शहर साहब का आदमी अगर यही करने लगा तो चल लिया हमारा कानून। चलो बड़े घर! सब पता लग जायेगा। कैसे लड़की छेड़ी जाती है।’

उस लड़के ने कहा-‘कौनसी लड़की? कोई सबूत है तुम्हारे पास?’

पहरेदारों ने इधर उधर देखा। वह लड्र+की वहां से जा चुकी थी। तब एक पहरेदार ने कहा-‘लड़की का यहां होना अब जरूरी नहीं है। बड़े घर चल तेरे को सब बता देंगे। एक नहीं तो दूसरी लड़की बुला लेंगे।’

पहले लड़के ने कहा-‘अरे, तुम अपने लिये मुसीबत मोल ले रहे हो। तुम्हारी वर्दी उतर जायेगीं! मैं वास्तव में शहर साहब का बेटा हूं। बड़े शहर साहब का पोता हूं।’

दोनों पहरेदारों की घिग्घी बंध गयी थी। क्या न क्या करें। पहले पहरेदार ने दूसरे से कहा-‘बड़े घर पर बड़े पहरेदार साहब को फेान लगाकर पता करे कि क्या किया जाये। इसे इतनी मेहनत से पकड़ कर वहां ले चलें और फिर छोड़ना पड़े। खालीपीली अपनो धंधा भी चैपट हो और डांट फटकार भी सुनने को मिले।’

उसी समय मोटर सायकिल पर बड़े पहरेदार साहब भी वहीं से निकल रहे थे। अपने मातहतों पर नजर पड़ी और वह गाड़ी रोककर उनके पास अपने आप ही आ गये। उस लड़के का हाथ पकड़े पहरेदार ने कहा-‘साहब, हमने इस लड़को को एक लड़की को छेड़ते हुए रंगे हाथों पकड़ा है। इसका एक साथी भाग गया। यह कहता है कि यह यहां के मशहूर आदमी शहर साहब का बेटा है।’

बड़े पहरेदार ने कहा-‘बड़े शहर साहब को मोबाइन लगाकर पता कर लो।’

पहरेदार ने कहा-‘ठीक है। ओए लड़के बता बड़े शहर साहब का नंबर।’

लड़के ने बता दिया तो एक पहरेदार उसे लगाने लगा। मगर वह लगा ही नहीं। एक ही जवाब आ रहा था कि यह नंबर मौजूद नहीं है। पहरेदार ने यह बात बड़े पहरेदार को बता दी।
अब बड़े पहरेदार का ताव आ गया और वह बोले-यह झूठ बोल रहा है। पकड़ कर ले चलो बड़े घर।’
एक पहरेदार बोला-‘ साहब। वैसे इनकी शक्ल तो शहर साहब से मिलती है। हो सकता है यह सच बोल रहा हो।’

बड़े पहरेदार ने कहा-‘हां, लगती है। छोड़ दो। भले घर के लगते हैं।’’

लड़का खुश हो गया और बोला-‘और क्या साहब? वह लड़की चालू थी। हमारी जेब काट कर भाग रही थी तो मैंनेे उसका हाथ पकड़ा। इसी बीच यह आ गये। हमें पकड़ लिया। आप देखिये वह भी भाग गयी।’’

बड़े पहरेदार ने कहा-‘नालायक हैं दोनों। आप इनकी गलती क्षमा कर दें।’’

अब दूसरा पहरेदार बोला-‘पर साहब मुझे इनकी शक्ल बड़े साहब से मिलती नहीं दिख रही । उनका मूंह चैड़ा है और इसका लंबा। फिर इसने जो मोबाइल नंबर दिया भी वह फोन लग नही रहा। साहब यकीन मानिए यह झूठ बोल रहा है।’’

बड़े पहरेदार ने उसे गौर से देखा-‘‘ फिर कहा! हां तुम शायद ठीक कहते हो। पकड़ लो इन दोनों को। यह सरासर झूठ बोल रहा है।’’

पहला पहरेदार बोला-‘साहब। पर इसकी आवाज भी बड़े शहर साहब से मिलती है। मुझे लगता है कि यह उनके सुपुत्र ही हैं।’
बड़े पहरेदार ने फिर उसकी तरफ देखा और कहा-‘हां, बिल्कुल ठीक। यह लग ही रहे हैं। अरे, इतने बड़े आदमी का बेटा भला कभी झूठ बोलेगा। छोड़ दो इनको।’
दूसरे ने कहा-‘साहब! बड़े शहर साहब की आवाज मैंने भी सुनी है। उनकी आवाज पतली है और इसकी मोटी। फिर इसने जो मोबाइल नंबर दिया वहां इतनी देर से फोन लग ही नहीं रहा है। कुछ दाल में काला है।’’
बडे पहरेदार ने फिर लड़के को गौर से देखा और कहा-‘दाल में काला! यहां तो दाल ही पूरी काली लग रही है। यह वाकई झूठ बोल रहा है। इसने जरूर ही लड़की को छेड़ होगा। देखो चेहरे से ही खूंखार लग रहा है।’
पहला पहरेदार बोला-पर साहब! मुझे बड़े शहर साहब और इसके बाल एक जैसे घुंघराले लगते हैं। यह सही कह रहा हो।’
बड़े पहरेदार ने लड़के के बाल देखे और कहा-‘हां, मुझे भी लगता है। छोड़ दो इनको। आजकल चालू लड़कियां भी बहुत हैं। भले लोगों को तंग करती हैं। देखो न कैसे भाग गयी। मूर्खों तुम्हें उसे पकड़ना चाहिये था।’

दूसरा पहरेदार बोला-‘साहब! बड़े शहर साहब के बाल तो बरसों से आधे सिर पर हैं। मैं तो उनके बारे में तबसे जानता हूं जब वह इसकी उमर के थे। इसके बाल तो घने हैं।’’

बड़े पहरेदार ने कहा-‘हां, तुम ठीक कहते हो। पकड़ लो इन दोनों को। बड़े घर ले चलो। सब पता लग जायेगा। इनकी वह हालत करेंगे कि फिर अपनी जिंदगी में किसी लड़की को छेड़ेंगे नहीं।’’
इतने में बड़े पहरेदार की घंटी बजी। उसने बात की और बोला-‘इसको छोडो। यहां से थोड़ी दूर गैस रिसने की खबर मिली है। वह तेजी से फैल रही हैै। यहां से भागो इससे पहले कि वह गैस हमें पकड़ ले। कहीं यह भी मर गया तो अपने सिर पर बात आयेगी।’
तीनों इनको भाग गये। लड़का अपनी जान बचाकर भागा। कुछ दूर उसका साथी मिल गया। उसने कहा-‘यार, इस तरह तुम रास्ते चलते हुए लड़की को छेड़ा मत करो। इस बार तो मैंने बचा लिया। अगली बार नहीं बचाऊंगा।’’

पहले वाले लड़के ने उससे पूछा-‘यार निकल लो यहां से। गैस आ रही है।’
दूसरे वाले ने कहा-‘कोई गैस नहीं आ रही। मैंने अपने एक जुआरी दोस्त ने बड़े पहरेदार का फोन लिया और ऐसे ही उसे झूठी खबर सुना दी। वैसे तुमने उसे क्या बताया था? मैं दूर से देख रहा था तो बहुत बहस हो रही थी।’’
पहले ने कहा-‘छोड़ यार! यह जानने की कोशिश भी मत करो। मैं भी भूलना चाहता हूं।’

उधर भागते हुए पहले पहरेदार ने दूसरे से पूछ-‘तुमने रूस के प्रसिद्ध लेखक चेखोव को पढ़ा है। उसने ऐसा ही व्यंग्य लिखा था ‘गिरगिट’। वैसे होने को क्या है? एक घटना दूसरी जगह भी घट सकती है।’

दूसरे ने कहा-‘कौन चेखोव।’
पहला वाला चुप हो गया
…………………………………………………….

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की सिंधु केसरी-पत्रिका ’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

आस्तिक, नास्तिक और स्वास्तिक- (हास्य व्यंग्य)


सच बात तो यह है कि दुनियां विश्वास के आधार पर तीन भागों में बंटी हुई हैं-आस्तिक,नास्तिक और स्वास्तिक। आस्तिक और नास्तिकों में बीच बरसों से संघर्ष चलता रहा है। एक कहता है कि इस दुनियां का संचालन करने वाला कोई सर्वशक्तिमान है-उसका नाम हर धर्म,भाषा,जाति और क्षेत्र में अलग है। दूसरा कहता है कि ऐसा कोई सर्वशक्तिमान नहीं है बल्कि यह दुनियां तो अपने आप चल रही है। इनसे परे होते हैं ‘स्वास्तिक’। हम भारत के अधिकतर लोग इसी श्रेणी में हैं और सर्वशक्तिमान के होने या न होने की बहस में समय जाया करना बेकार समझते हैं। इस मान्यता में वह लोग हैं जो मानते हैं कि वह तो अपने अंदर ही है और हम उस सर्वशक्तिमान को धारण करना हैं-बाहर उसका अस्तित्व ढूंढना समय जाया करना है। इसी श्रेणी में दो वर्ग हैं एक तो वह जो ज्ञानी हैं जो हमेशा इस बात को याद करते हैं और दूसरे सामान्य लोग हैं जो यह बात मानते तो हैं पर फिर भूले रहते हैं। ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक हैं और आस्तिक और नास्तिक अपनी बहसों से उन्हेें बरगलाते रहते है।

अधिक संख्या होने के कारण एक स्वास्तिक दूसरे स्वास्तिक की इज्जत नहीं करता-यहां यह भी कह सकते हैं कि जिस वस्तु की मात्रा बाजार में अधिक होती है उसकी कीमत कम होती है। फिर अब तो विश्व में बाजार का बोलबाला है इसलिये समाज में चमकते हैं तो बस आस्तिक और नास्तिक। स्वास्तिक का किसी से कोई द्वंद्व नहीं होता इसलिये बाजार में नहीं बिकता। बाजार में केवल केवल विवाद बिकता है और आस्तिक और नास्तिक ही उसका निर्माण करते हैं।

आस्तिक चिल्ला चिल्ला कर कहते हैं कि ‘सर्वशक्तिमान है’ तो नास्तिक भी खड़ा होता है कि ‘सर्वशक्तिमान नहीं है’। भीड़ उनकी तरफ देखने लगती है। आस्तिक अपने हाथ में धार्मिक प्रतीक चिन्ह रख लेेते हैं। कपड़ों के रंग अपने धर्म के अनुसार
तय कर पहनते हैं। नास्तिक भी कम नहीं है और वह सर्वशक्तिमान का अस्तित्व नकार कर समाज-जिसका अस्तित्व केवल संज्ञा के रूप में ही है-को अपना कल्याण करने के लिये नारे लगाते हैं।

कहते हैं कि मनुष्य अपने मन, बुद्धि और अहंकार के वशीभूत होकर चलता है। चलने की यही मजबूरी नास्तिकों को किसी न किसी नास्तिक विचाराधारा से जुड़ने को विवश करती है।
आस्तिक धार्मिक कर्मकंाड करते हुए पूरे विश्व में कल्याण करने के लिये निकल पड़ते है। कोई पुस्तक और उसमें लिखे शब्दों को सीधे सर्वशक्तिमान के मुखारबिंद से निकला हुआ बताते हुए उसके अनुसार धार्मिक क्रियाओं के लिये सामान्य जन-स्वास्तिक श्रेणी के लोग- को प्रेरित करते हैं। जो ज्ञानी स्वास्तिक हैं वह तो बचे रहते हैं पर भुल्लकड़ उनके जाल में फंस जाते हैं। नास्तिक लोग उन्हीं पुस्तकों का मखौल उड़ाते हुए महिलाओं,बालकों,श्रमिकों,शोषितों और बूढ़े लोगों के वर्ग करते हुए उनके कल्याण के नारे लगाते हैं। कहीं कोई घटना हो उसका ठीकरा किसी विचाराधारा की पुस्तक पर फोड़ते है-खासतौर से जिनका उद्गम स्थल भारत ही है। वह क्ल्याण के लिये चिल्लाते हैं पर जब इसके लिये कोई काम करने की बात आती है तो कहते हैं कि यह हमारा काम नहीं बल्कि समाज और सरकार को करना चाहिए।
आस्तिक अपने धार्मिक कर्मकांड करते हुए नास्तिकों को कोसना नहीं भूलते। बरसों से चल रहा यह द्वंद्व कभी खत्म नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि स्वास्तिक लोग अगर सामान्य हैं तो उनको इस बहस में पड़ने में डर लगता है कि कहींे दोनों ही उससे नाराज न हो जायें। जहां तक ज्ञानियों का सवाल है तो उनकी यह दोनों ही क्या सुनेंगे अपने ही वर्ग के सामान्य लोग ही सुनते। हां, आस्तिकों और नास्तिकों के द्वंद्व से मनोरंजन मिलने के कारण वह उनकी तरफ देखते हैं और यहीं से शुरु होता हो बाजार का खेल।

नास्तिकों का पंसदीदा नारा है-नारी कल्याण। दरअसल हमारे देश में लोकतंत्र हैं और प्रचार माध्यमों-टीवी चैनल और अखबार-में स्थान पाने के लिये यह जरूरी है कि नारी कल्याण की बात जोर से की जाये। जब से प्रचार माध्मों का आधुनिकीकरण हुआ यह नारा और बढ़ गया है। वजह अधिकतर पुरुष काम के सिलसिले में घर से बाहर रहते हैं और स्त्रियों घर में अखबार पढ़ती हैं या टीवी देखती हैं। कभी कभी बाल कल्याण की बात भी जोड़ दी जाती है कि इससे नारियों पर दोहरा प्रभाव तो पड़ेगा ही बच्चे भी प्रभावित होकर भाषण, वार्ता और प्रवचन करने वाले का गुणगान करेंगे।

आस्तिकों और नास्तिकों की सोच का कोई ओरछोर नहीं होता। आस्तिक कहते हैं कि सर्वशक्तिमान इस दुनियां में हैं और एक ही है। मगर हैं कहां? यह वह नहीं बताते? सर्वशक्तिमान आकाश में रहता है या पाताल में? कह देंगे सभी जगह है। कोई मूर्तिै बना लेगा तो कोई मूर्ति विरोधी आस्तिक भी होगा। मगर वह भी कोई ठीया ऐसा जरूर बनायेगा जो भले ही पत्थर का बना होग पर उसमें मूर्ति नहीं होगी। मजे की बात यह है कि दोनों ही एक दूसरे पर नास्तिक होने का आरोप लगाते हैं।

नास्तिक कहते हैं कि इस संसार में कोई सर्वशक्तिमान नहीं है। फिर आखिर यह दुनियां चल कैसे रही है? वह बतायेंगे इंसानों की वजह से! मतलब पशु,पक्षी तथा अन्य जीव जंतुओं की सक्रियता का कोई मतलब नहीं है इसलिये उनकी रक्षा की बात भी वह नहीं करते। बस इंसानों का भला होना चाहिये। उनके अनुसार नारी को आजादी, बालकों के बालपन की रक्षा, बूढ़ापे में संतान का सहारा, और शोषित के अधिकार और सम्मान की रक्षा होना चाहिये और वह डंडे के जोर से। सभी जानते हैं कि अभी तक विश्व में कर्मशील पुरुषों का वर्चस्व इसलिये है क्योंकि वह इन इन सभी कर्तव्यों की पूर्ति के लिये श्रम करते हैं और उनके लिये यह नारे सुनने का समय नहीं होता। वह टीवी और अखबारों के साथ उतना समय नहीं बिता पाते इसलिये उनको प्रभावित करने का लाभ नहीं होता। नास्तिक लोग इसलिये केवल उन्हीं वर्गों को लक्ष्य कर अपनी बात रखते हैं जिनको प्रभावित कर अपनी वैचारिक दुकान चलायी जा सकती है।।

आजकल नारी स्वातंत्रय को लेकर अपने देश में बहुत जोरदार बहस चल रही है। इस बहस में आस्तिक अपने संस्कारों और आस्थाओं का झंडा बुलंद कर यह बताते हैं कि हमारे देश में नारियां तो देवी की तरह पूजी जाती हैं। नास्तिक को तो हर कर्मशील पुरुष राक्षस नजर आता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि नास्तिक भले ही सर्वशक्तिमान का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते पर अपने प्रचार के लिये उनको कोई काल्पनिक बुत तो चाहिये इसलिये उन्होंने अन्याय,अत्याचार,शोषण,गरीबी, और बेरोजगारी को खड़ा कर लिया। यह कहना गलत है कि वह किसी में यकीन नहीं करते बस अंतर यह है कि वह उन बुत बने राक्षसों को दिखाकर उनसे मुक्ति के लिये स्वयं सर्वशक्तिमान बनना चाहते हैं।

नास्तिक सर्वशक्तिमान का अस्तित्व को तो खारिज करते हैं पर अपनी देह को तो वह नकार नहीं सकते। पंच तत्वों से बनी इस देह में अहंकार,बुद्धि और मन तीन ऐसी प्रकृतियां हैं जिनसे हर जीव संचालित होता है। फिर यहां अमीर गरीब, शोषक शोषित, और उच्च निम्न वर्ग कैसे बन गये? नास्तिक कहेंगे कि वही मिटाने के लिये तो हम जूझ रहे हैं। मगर अमीर ने गरीब को गरीब, शोषक ने शोषित का शोषण और उच्च वर्ग के व्यक्ति ने निम्म वर्ग के लोगों का अपमान कब और कैसे शुरु किया? इस पर नास्तिक तमाम तरह की इतिहास की पुस्तकें उठा लायेंगे-जिनके बारे में स्वास्तिक ज्ञानी कहते हैं कि उनके सिवाय झूठ के कुछ और नहीं होता। अलबत्ता आस्तिक प्रचार पाने के लिये उन्हीं पुस्तकों में अपने लिये तर्क ढूंढने लगते हैं।

वैसे यह आस्तिक और नास्तिक का संघर्ष भारत के बाहर खूब हुआ है। भारत में लोग स्वास्तिक वर्ग के हैं और यह मानते हैं कि सर्वशक्तिमान का अस्तित्व आदमी के अंदर ही है बशर्ते उसे समझा जाये। मगर विदेशी शिक्षा, रहन सहन और विचारों के साथ यह संघर्ष भी इस देश में आ गया है। यह कारण है कि आस्तिक महिला पुरुष बुद्धिजीवी देश का कल्याण कर्मकांडों में तो नास्तिक केवल नास्तिकता में ढूंढते हैं। हम ठहरे स्वास्तिक तो यही कहते हैं कि स्वास्तिक हो जाओ कल्याण स्वतः‘ होगा। कैसै हो जायें? बहुत संक्षिप्त उत्तर है। जब भी अवसर मिले भृकुटि पर दृष्टि रखकर ध्यान लगाओ। इससे देह के विकार तो निकलते ही हैं उसमें ऐसे तत्व भी निर्मित होते हैं जिसके प्रभाव से शत्रु मित्र बन जाते हैं और विकास के पथ पर अपने कदम स्वतः चल पडते हैं उसके लिये किसी कर्मकांड में पड़ने या कल्याण के नारे में बहने की आवश्कता नहीं है।
……………………….

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

क्योंकि इंसान फूलों की तरह खुशबू नहीं बिखेर पाते-हिंदी शायरी



जिंदा और चलते फिरते इंसान की
खिदमत में
उसके गले पर चढ़ती है फूलों की माला
अगर बन जाये कोई इंसान लाश
तो भी श्रद्धांजलि में भी
शव पर बिछ जाती है फूलों की माला
जिन पर है दौलत की दुआ
उन इंसानों के पैदा होने पर खुश
और मरने पर रोने वाले बहुत हैं
पर बिखेरते हैं हर पल जिंदा खुशबू
उनके उन फूलों के खिलने पर कौन हंसता है
और कौन है मुरझाने पर रोने वाला
…………………………….

क्योंकि इंसान कभी फूलों की तरह
खुशबू नहीं बिखेर पाते
इसलिये ही अपने जिंदा रहते हुए
अपनी खिदमत में खुद
और मरने पर मातम में
उनके अपने उन पर फूलों की बरसात करवाते
………………………

यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्द- पत्रिका’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका

पहले बनाओ पंगेबाज फिर बताओ चंगेबाज-हास्य व्यंग्य कविता


घर से निकले ही थे पैदल
देखा फंदेबाज को भागते हुए आते
इससे पहले कुछ कह पाते
वह हांफते हुए गिर पड़ा आगे
और बोला
’‘दीपक बापू अभी मुझे बचा लो
चाहे फिर भले ही अपनी हास्य कविता सुनाकर
हलाल कर मुझे पचा लो
रास्ते में उस पंगेबाज को जैसे ही मैंने
कहा बापू से मिलने जा रहा हूं
पत्थर लेकर मारने के लिये मेरे पीछे पड़ा है
सिर फोड़ने के लिये अड़ा है
कह रहा है ‘टीवी पर तमाम समाचार आ रहे है
बापू के नाम से बुरे विचार मन में छा रहे हैं
तू उनका नाम हमारे सामने लेता है
उनको तू इतना सम्मान देता है
अभी तेरा काम तमाम करता हूं
वीरों में अपना नाम करता हूं’
देखो वह आ रहा है
अच्छा होगा आप मुझे बचाते’’

पंगेबाज भी सीना तानकर खड़ा हो गया
हांफते हांफते बोला फंदेबाज
‘अच्छा होता आप इसे भी
अपनी हास्य कविता सुनाते’

कविता का नाम सुनकर भागा पंगेबाज
उसके पीछे दौडने को हुए
फंदेबाज का हाथ छोड़ने को हुए
पर अपनी धोती का एक हिस्सा
उसके हाथ में पाया
उनकी टोपी पा रही थी
अपने ही पांव की छाया
अपनी धोती को बांधते
टोपी सिर पर रखते बोले महाकवि दीपक बापू
‘कम्बख्त जब भी हमारे पास आना
कोई संकट साथ लाना
क्या जरूरत बताने थी उसे बताने की कि
हम हास्य कविता रचाते
कविता सुनने से अच्छे खासे तीसमारखां
अपने आपको बचाते
हम उसे पकड़कर अपनी कविता सुनाते
तुम अपने मोबाइल से कुछ दृश्य फिल्माते
वह नहीं भागता तो हम मीडिया में छा जाते
कैसे बचाया एक फंदेबाज को पंगेबाज से
इसका प्रसारण और प्रकाशन सब जगह करवाते
आजकल सभी जगह हिट हो रहे पंगे
रो रहे है फ्लाप काम करके भले चंगे
ऐसे ही दृश्य बनते हैं खबर
खींचो चाहे दृश्य और शब्द
जैसे कोई हो रबड़
पहले बनाते हैं ऐसी योजना जिससे
मशहूर हो जायें पंगे
फिर जिनको पहले बताओ बुरा
बाद में बताओ उनको चंगे
पहले बनाओ पंगेबाज फिर बताओ चंगेबाज
कितना अच्छा होता हम सीधे प्रसारण करते हुए
अपनी हास्य कविता से पंगेबाज को भगाते
हो सकता है उससे हम भी नायक बन जाते
हमारे ब्लाग पर भी छपती वह कविता
शायद इसी बहाने हिट हो जाते
इतने पाठ लिखकर भी कभी हिट नहीं पाते
पंगेबाज कुछ देर खड़ा रहा जाता तो
शायद हम भी कुछ हास्य कविता पका लेते
अपने पाठको का पढ़ाकर सकपका देते
पर तुमने सब मामला ठंडा कर दिया
अब हम तो चले घर वापस
इस गम में
कोई छोटी मोटी शायरी लिख कर काम चलाते
………………………………………………………

यह हास्य कविता काल्पनिक है तथा किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसक लिये जिम्मेदार होगा
दीपक भारतदीप

यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्द- पत्रिका’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका

चालान की आशंका में सीटी नहीं बजाई-हास्य कविता


मोटर साइकिल पर चलते हुए
जब उसने किसी भी लड़की को देखकर
सीटी नहीं बजाई
तो अचरज में पड़कर दोस्त ने पूछा
‘क्या तुम्हारी आज तबियत ठीक नहीं है
जो गाडि़यों पर चल रही किसी भी
लड़की को देखकर सीटी नहीं बजाई’

उसने कहा
‘न गाड़ी मेरे नाम से
न लाइसैंस मेरे पास
न सिर पर हैल्मेट
न ही बीमा हैं कोई इस गाड़ी का
जब पकड़े जाते है तो
यही हर कोई मांगता है भाई
लड़कियों को देख कर सीटी बजाने के
चक्कर में कहीं कुछ दिखता नहीं है
आजकल हो रहे हैं चालान खूब
मैं तीन दिन में दो बार करा चुका हूं
अब कहीं होने की आशंका लगती है
तो दूर से रास्ता बदल लेता हूं
पहले तो लगता था कि
गाड़ी चलाते देख ले कोई
पर अब कोई न देखें इसी में लगती है अच्छाई
……………………………………………

यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्द- पत्रिका’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप का शब्दज्ञान-पत्रिका