हास्य कवि ढूंढ रहा था
कोई जोरदार कविता
मिल गयी पुरानी प्रेमिका
जिसका नाम भी था कविता।
उसे देखते ही चहकते हुए वह बोली
‘’अरे, कवि
तुम भी अब बुढ़ाने लगे हो
फिर भी बाज नहीं आते
हास्य कविता गुड़गुड़ाने लगे हो
शर्म नहीं आती
पर मुझे बहुत आती
जब पति के सामने
तुम्हारे पुराने प्रेम का किस्सा सुनाती
तब वह बिफर कर कहते हैं
‘क्या बेतुके हास्य कवि से इश्क लड़ाया
मेरा जीवन ही एक मजाक बनाया
कोई श्रृंगार रस वाला कवि नहीं मिला
जो ऐसे हास्य कवि से प्रेम रचाया
जिसका सभी जगह होता गिला
कहीं सड़े टमाटर फिकते हैं
तो कहीं अंड़े पड़ते दिखते हैं’
उनकी बात सुनकर दुःख होता है
सच यह है तुम्हारी वजह से
मैंने अपना पूरा जीवन ही नरक बनाया
फिर भी इस बात की खुशी है
कि मेरे प्यार ने एक आदमी को कवि बनाया’
उसकी बात सुनकर कवि ने कहा
‘मेरे बेतुके हास्य कवि होने पर
मेरी पत्नी को भी शर्म आती है
पर वह थी मेरी पांचवी प्रेमिका
जिसके मिलन ने ही मुझे हास्य कवि बनाया
प्रेम में गंभीर लगता है
पर मिलन मजाक है
यह बाद में समझ आया।
गलतफहमी में मत रहना कि
तुमने कवि बनाया।
तुम्हारे साथ अकेले नहीं
बल्कि पांच के साथ मैंने प्रेम रचाया।
तुम्हारी कद काठी देखकर लगता है कि
अच्छा हुआ तुमसे विरह पाया
कहीं हो जाता मिलन तो
शायद गमों में शायरी लिखता
जिंदगी का बोझ शेरों में ढोता दिखता।
भले ही घर में अपनी गोटी गलत फिट है
पर हास्य कविता कुछ हिट है
दहेज में मिला ढेर सारा सामान
साथ में मिला बहुत बड़ा मकान
जिसके किराये से घर चलता है
उसी पर अपना काव्य पलता है
तुमसे भागकर शादी की होती
तो मेरी जेब ही सारा बोझ ढोती
तब भला कौन सुनता गम की कविता
पांचवीं प्रेमिका और वर्तमान पत्नी भी
कम नहीं है
पर उसके गुस्से ने
मुझे हास्य कवि बनाया
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समाज को सुधारने की प्रयास हो या संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का सवाल हमेशा ही विवादास्पद रहा है। इस संबंध में अनेक संगठन सक्रिय हैं और उनके आंदोलन आये दिन चर्चा में आते हैं। इन संगठनों के आंदोलन और अभियान उसके पदाधिकारियेां की नीयत के अनुसार ही होते हैं। कुछ का उद्देश्य केवल यह होता है कि समाज सुधारने के प्रयास के साथ संस्कृति और संस्कारों की रक्षा का प्रयास इसलिये ही किया जाये ताकि उसके प्रचार से संगठन का प्रचार बना रहे और बदले में धन और सम्मान दोनों ही मिलता रहे। कुछ संगठनों के पदाधिकारी वाकई ईमानदार होते हैं उनके अभियान और आंदोलन को सीमित शक्ति के कारण भले ही प्रचार अधिक न मिले पर वह बुद्धिमान और जागरुक लोगों को प्रभावित करते हैं।
ईमानदारी से चल रहे संगठनों के अभियानों और आंदोलनों के प्रति लोगों की सहानुभूति हृदय में होने के बावजूद मुखरित नहीं होती जबकि सतही नारों के साथ चलने वाले आंदोलनों और अभियानों को प्रचार खूब मिलता है क्योंकि प्रचार माध्यम उनको अपने लिये भावनात्मक रूप से ग्राहकों को जोड़े रखने का एक बहुत सस्ता साधन मानते हैं। ऐसे कथित अभियान और आंदोलन उन बृहद उद्देश्यों को पूर्ति के लिये चलते हैं जिनका दीर्घावधि में भी पूरा होने की संभावना भी नहीं रहती पर उसके प्रचार संगठन और पदाधिकारियों के प्रचारात्मक लाभ मिलता है जिससे उनको कालांतर में आर्थिक और सामाजिक उपलब्धि प्राप्त हो जाती है।
मुख्य बात यह है कि ऐसे संगठन दीवारों पर लिखने और सड़क पर नारे लगाने के अलावा कोई काम नहीं करते। उनके प्रायोजक भी इसकी आवश्यकता नहीं समझते क्योंकि उनके लिये यह संगठन केवल अपनी सुरक्षा और सहायता के लिये होते हैं और उनको समझाईश देना उनके लिये संभव नहीं है। अगर इस देश में समाज सुधार के साथ संस्कार और संस्कृति के लिये किसी के मन में ईमानदारी होती तो वह उन स्त्रोतों पर जरूर अपनी पकड़ कायम करते जहां से आदमी का मन प्रभावित होता है।
भाररीय समाज में इस समय फिल्म, समाचार पत्र और टीवी चैनलों का बहुत बड़ा प्रभाव है। भारतीय समाज की नब्ज पर पकड़ रखने वाले इस बात को जानते हैं। लार्ड मैकाले ने जिस तरह वर्तमान भारतीय शिक्षा पद्धति का निर्माण कर हमेशा के लिये यहां की मानसिकता का गुलाम बना दिया वही काम इन माध्यमों से जाने अनजाने हो रहा है इस बात को कितने लोगों ने समझा है?
पहले हिंदी फिल्मों की बात करें। कहते हैं कि उनमें काला पैसा लगता है जिनमें अपराध जगत से भी आता है। इन फिल्मों में एक नायक होता है जो अकेले ही खलनायक के गिरोह का सफाया करता है पर इससे पहले खलनायक अपने साथ लड़ने वाले अनेक भले लोगों के परिवार का नाश कर चुका है। यह संदेश होता है एक सामान्य आदमी के लिये वह किसी अपराधी से टकराने का साहस न करे और किसी नायक का इंतजार करे जो समाज का उद्धार करने आये। कहीं भीड़ किसी खलनायक का सफाया करे यह दिखाने का साहस कोई निर्माता या निर्देशक नहीं करता। वैसे तो फिल्म वाले यही कहते हैं कि हम तो जो समाज में जो होता है वही दिखाते हैं पर आपने देखा होगा कि अनेक ऐसे किस्से हाल ही में हुए हैं जिसमें भीड़ ने चोर या बलात्कारी को मार डाला पर किसी फिल्मकार ने उसे कलमबद्ध करने का साहस नहीं दिखाया। संस्कारों और संस्कृति के नाम पर फिल्म और टीवी चैनलों पर अंधविश्वास और रूढ़वादितायें दिखायी जाती हैं ताकि लोगों की भारतीय धर्मों के प्रति नकारात्मक सोच स्थापित हो। यह कोई प्रयास आज का नहीं बल्कि बरसों से चल रहा है। इसके पीछे जो आर्थिक और वैचारिक शक्तियां कभी उनका मुकाबला करने का प्रयास नहीं किया गया। हां, कुछ फिल्मों और टीवी चैनलों के कार्यक्रमों का विरोध हुआ पर यह कोई तरीका नहीं है। सच बात तो यह है कि किसी का विरोध करने की बजाय अपनी बात सकारात्मक ढंग से सामने वाले के दुष्प्रचार पर पानी फेरना चाहिये।
एक ढर्रे के तहत टीवी चैनलों और फिल्मों में कहानियां लिखी जाती हैं। यह कहानी हिंदी भाषा में होती है पर उसको लिखने वाला भी हिंदी और उसके संस्कारों को कितना जानता है यह भी देखने वाली बात है। मुख्य बात यह है कि इस तरह के कार्यक्रमों के पीछे जो आर्थिक शक्ति होती है उसके अदृश्य निर्देशों को ध्यान में रखा जाता है और न भी निर्देश मिलें तो भी उसका ध्यान तो रखा ही जाता है कि वह किस समुदाय, भाषा, जाति या क्षेत्र से संबंधित है। विरोध कर प्रचार पाने वाले संगठन और उनके प्रायोजक-जो कि कोई कम आर्थिक शक्ति नहीं होते-स्वयं क्यों नहीं फिल्मों और टीवी चैनलों के द्वारा उनकी कोशिशों पर फेरते? इसके लिये उनको अपने संगठन में बौद्धिक लोगों को शामिल करना पड़ेगा फिर उनकी सहायता लेने के लिये उनको धन और सम्मान भी देना पड़ेगा। मुश्किल यही आती है कि हिंदी के लेखक को एक लिपिक समझ लिया है और उसे सम्मान या धन देने में सभी शक्तिशाली लोग अपनी हेठी समझते हैं। यकीन करें इस लेखक के दिमाग में कई ऐसी कहानियां हैं जिन पर फिल्में अगर एक घंटे की भी बने तो हाहाकार मचा दे।
इस समाज में कई ऐसी कहानियां बिखरी पड़ी हैं जो प्रचार माध्यमों में सामाजिक एकता, समरसता और सभी धर्मों के प्रति आदर दिखाने के कथित प्रयास की धज्जियां उड़ा सकती है। प्यार और विवाह के दायरों तक सिमटे हिंदी मनोरंजन संसार को घर गृहस्थी में सामाजिक, धार्मिक और अन्य बंधन तोड़ने से जो दुष्परिणाम होते हैं उसका आभास तक नहीं हैं। आर्थिक, सामाजिक और दैहिक शोषण के घृणित रूपों को जानते हुए भी फिल्म और टीवी चैनल उससे मूंह फेरे लेते हैं। कटु यथार्थों पर मनोरंजक ढंग से लिखा जा सकता है पर सवाल यह है कि लेखकों को प्रोत्साहन देने वाला कौन है? जो कथित रूप से समाज, संस्कार और संस्कृति के लिये अभियान चलाते हैं उनका मुख्य उद्देश्य अपना प्रचार पाना है और उसमें वह किसी की भागीदारी स्वीकार नहीं करते।
टीवी चैनलों पर अध्यात्मिक चैनल भी धर्म के नाम पर मनोरंजन बेच रहे हैं। सच बात तो यह है कि धार्मिक कथायें और और सत्संग अध्यात्मिक शांति से अधिक मन की शांति और मनोरंजन के लिये किये जा रहे हैं। बहुत लोगों को यह जानकर निराशा होगी कि इनसे इस समाज, संस्कृति और संस्कारों के बचने के आसार नहीं है क्योंकि जिन स्त्रोतों से प्रसारित संदेश वाकई प्रभावी हैं वहां इस देश की संस्कृति, संस्कार और सामाजिक मूल्यों के विपरीत सामग्री प्रस्तुत की जा रही है। उनका विरोध करने से कुछ नहीं होने वाला। इसके दो कारण है-एक तो नकारात्मक प्रतिकार कोई प्रभाव नहीं डालता और उससे अगर हिंसा होती है तो बदनामी का कारण बनती है, दूसरा यह कि स्त्रोतों की संख्या इतनी है कि एक एक को पकड़ना संभव ही नहीं है। दाल ही पूरी काली है इसलिये दूसरी दाल ही लेना बेहतर होगा।
अगर इन संगठनों और उनके प्रायोजकों के मन में सामाजिक मूल्यों के साथ संस्कृति और संस्कारों को बचाना है तो उन्हें फिल्मों, टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में अपनी पैठ बनाना चाहिये या फिर अपने स्त्रोत निर्माण कर उनसे अपने संदेशात्मक कार्यक्रम और कहानियां प्रसारित करना चाहिए। दीवारों पर नारे लिखकर या सड़कों पर नारे लगाने या कहीं धार्मिक कार्यक्रमों की सहायता से कुछ लोगों को प्रभावित किया जा सकता है पर अगर समूह को अपना लक्ष्य करना हो तो फिर इन बड़े और प्रभावी स्त्रोतों का निर्माण करें या वहां अपनी पैठ बनायें। जहां तक कुछ निष्कामी लोगों के प्रयासों का सवाल है तो वह करते ही रहते हैं और सच बात तो यह है कि जो सामाजिक मूल्य, संस्कृति और संस्कार बचे हैं वह उन्हीं की बदौलत बचे हैं बड़े संगठनों के आंदोलनों और अभियानों का प्रयास कोई अधिक प्रभावी नहीं दिखा चाहे भले ही प्रचार माध्यम ऐसा दिखाते या बताते हों। इस विषय पर शेष फिर कभी।
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इस देश में कई ऐसे लोग है जो अमिताभ बच्चन के अभिनय और आवाज से अधिक उनके व्यक्तित्व और वक्तव्यों से अधिक प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि अमिताभ बच्चन जहां जवां दिलों को भाते हैं और फिल्म प्रेमियों को लुभाते हैं वहंी बुद्धिजीवी वर्ग में भी उनकी एक जोरदार छबि है। जिन बड़े लोगों ने अपने ब्लाग शुरू किये हैं उनमें एक अमिताभ ही ऐसे ही जो अपने लेखन से प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं।
आज टीवी पर उनका एक बयान सुनने को मिला जिसमें उन्होंने कहा कि ‘आस्कर में क्या रखा है‘। उनकी यह बात दिल को छू गयी। वह प्रसिद्ध कवि हरिबंशराय बच्चन के सुपुत्र हैं और जहां तक हिंदी बोलने या लिखने का प्रश्न है वह शायद हिंदी फिल्मों के अकेले ऐसे अभिनेता होंगे जिनको अपनी मातृभाषा में साहित्य लिखना आता होगा-बाकी भी होंगे पर इस लेखक को इसकी जानकारी नहीं है। यह लेखक लिखने में उनकी बराबरी तो नहीं कर सकता पर इतना जरूर कह सकता है कि दूसरा यहां कोई ‘अमिताभ बच्चन’ जैसा होगा यह संभव नहीं है इसलिये प्रचार माध्यम चिंतित रहते हैं। इसलिये हर साल आस्कर का बवाल खड़ा उठता है। अमिताभ बच्चन को कभी न तो आस्कर मिला न शायद कभी उसके लिये उनके नाम का चयन हुआ पर अगर आज उनको मिल भी जाये तो फर्क क्या पड़ता है। इस देश के लिये अमिताभ बच्चन जी को अमिताभ बच्चन ही रहना है। कोई उन जैसा नहीं बन सकता पर इसलिये बाकी लोग यह आशा करते हैं कि आस्कर मिल जाये तो कम से कम उनको प्रचार के मामले में चुनौती दे सकें और कह सकें कि अमिताभ बच्चन में क्या रखा है, हमें तो आस्कर मिल गया है’। सच तो यह है कि अनेक अभिनेताओं के मन में अमिताभ जैसा सम्मान पाने की इच्छा है पर वह जानते हैं कि यह संभव नहीं है और इसलिये वह आस्कर के द्वारा उनकी बराबरी करना चाहते हैं।
कई बार यह ख्याल समझदार लोगों को आता है कि आखिर आस्कर मिल जाने से होना क्या है?सच बात तो यह है कि आस्कर किसी फिल्म को तब मिलता है जब वह दर्शकों से पूरा पैसा वसूल कर चुकी है। अगर किसी हिंदी फिल्म को आस्कर मिल भी जाये तो उसकी दर्शक संख्या इसलिये नहीं बढ़ सकती कि उसे पुरस्कार मिल गया या फिर किसी अभिनेता की अगली फिल्म इसलिये हिट नहीं हो सकती कि उसे आस्कर अवार्ड मिल गया। दरअसल यह तो अन्य अभिनेताओं,निर्देशकों और निर्माताओं के साथ बाजार प्रबंधकों के लिये सोचने का विषय है जो इस देश के महानायक अमिताभ बच्चन के सामने कोई दूसरा विकल्प खड़ा करना चाहते हैं जिसमें अभी तक वह नाकाम रहे हैं। बाजार चाहे कुछ भी कर ले वह दूसरा अमिताभ ब्रच्चन नहीं बना सकता क्योंकि मनुष्य में कुछ गुण स्वाभाविक होते हैं जो पैसे सा शौहरत आने से नहंीं पैदा होते। अमिताभ बच्चन का सबसे बड़ा गुण है अपनी बात को सहज रूप से हिंदी मेंं कहना और यही कारण है कि जब वह दूरदर्शन पर कोई साक्षात्कार देते हैं तो लोगों के दिल में छा जाते हैं जबकि अन्य अभिनेता और अभिनेत्रियों के साक्षात्कारों से ऐसा लगता है कि उनकेा हिंदी नहीं आती और आम हिंदी दर्शक इससे निराशा और परायापन अनुभव करता है। आजकल प्रचार माध्यमों का जनता पर बहुत प्रभाव है और यही कारण है कि हिंदी फिल्मों के अभिनेता उसके हृदय पटल पर प्रभाव नहीं डाल पाते।
अगर हिंदी फिल्मों का कोई अभिनेता आस्कर भी ले आये तो भी श्री अमिताभ बच्चन जैसा सम्मान लोगों से नहंी पा सकता। अलबत्ता प्रचार माध्यम जरूर उनको कई बरस तक सिर पर उठा लेंगे। जहां तक आम आदमी के दिल पर राज करने का प्रश्न है तो कम से कम अगले पचास वर्ष तक अमिताभ बच्चन की बराबरी करने वाला नहीं मिल सकता। फिल्मी दुनियां की हालत सभी जानते हैं। फिल्मी गायक किशोर कुमार,मोहम्मद रफी,मन्ना डे, और मुकेश की बराबरी करने वाला आज भी कोई नहीं है जबकि ढेर सारे गायक हैं फिर अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता की तो बात ही क्या जो हर दिन एक नया मील का पत्थर रखता है। हो सकता है कुछ लोगों को यह बात अति लगे पर इस लेखक के मन का सच यही है और इसे मानने वाले ही अधिक होंगे।
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पता नहीं क्यों भारत के लेखकों और बुद्धिजीवियों एक तरफ से तो देशप्रेम से ओतप्रोत रहते हैं दूसरी तरफ अपने लेखों और वक्तव्यों में दूसरे देशों से सीख लेने का संदेश देते हैं। इनमें दो देशों के नाम बहुत आते हैं एक चीन का दूसरा इजरायल का। ऐसी बातें कहते और लिखते हुए लेखक और बुद्धिजीवी अपने देश के उपलब्धियों को भूल जाते हैं चाहे वह आर्थिक और सामाजिक हों या वैज्ञानिक-तकनीकी या स्वास्थ्य। हो सकता है इन दोनों देशों ने कड़े संघर्ष के बाद उपलब्धियों प्राप्त की हों पर उनसे भी अधिक हमारे देश के लोगों की सफलता हो। वैसे तो इस विषय पर अधिकतर वही राजनीतिक विषयों पर लिखने वाले लेखक लिखते हैं पर वह इसके सामाजिक प्रभावों का आंकलन नहीं करते जो हमारे देश के लोगों पर पड़ता है।
यहूदी धर्म को मानने वाले इजरायल की चर्चा आजकल इस देश में अधिक ही होने लगी है। खास तौर से फलस्तीन के आतंकवादियों के खिलाफ हमलों के कारण उसे बहुत प्रचार मिला। हिटलर की प्रताड़ना के कारण जर्मनी से यहूदियों ने पलायन किया और फलस्तीन की खाली जमीन पर कब्जा कर अपना देश बसा लिया। यहूंदियों ने अपनी कर्मठता और परिश्रम से अपना देश तो बसा लिया पर फलस्तीन ने कभी उसे चैन से नहीं बैठने दिया। उनके साथ संघर्ष करते हुए इजरायल ने अपने आपको बचा रखा है उसके लिये उसकी प्रशंसा होती हैं। विज्ञान,तकनीकी,कृषि,शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में उसने खूब प्रगति की पर इसी कारण उसे अपना आदर्श मानकर देश के लोगोे को उसी राह पर चलने का संदेश देना थोड़ा अजीब लगता है। यहूदियों ने अपने उद्यम और परिश्रम से न केवल विश्व में बल्कि इजरायल में भी खूब तरक्की की है पर उनको अमेरिका और पश्चिमी देशों का नैतिक समर्थन भी खूब मिला। अनेक अनुसंधानों की वजह से यहूदियों को नोबल पुरस्कार मिले पर यहां बात याद रखने लायक है कि इसके पीछे अमेरिक और पश्चिमी देशों का पूरा समर्थन उसके साथ रहा है। सच बात तो यह है कि एक तरह से यहूदियों का उनकी प्रतिभा का पश्चिमी देशों खासतौर से अमेरिका ने खूब दोहन किया है ऐसे में अगर उनको पुरस्कार मिल गये तो इसमें आश्चर्य क्या है? खास तौर से जब वह अपनी स्थापना के समय से ही अमेरिका पर आश्रित रहा है। जिस तरह अमरिका की धमकी के बाद वह फलस्तीनियों के विरुद्ध वह कार्यवाही या युद्ध बंद करता है उससे तो कभी तो वह अमेरिका का उपनिवेश अधिक लगता है। कभी कभी तो यह संदेह होता है कि कहीं यहूदियों की प्रतिभा का उपयोग करने के लिये ही तो कहीं अमेरिका ने उनको वहां स्थापित करने की योजना तो नहीं बनायी थी। यहां यह बात याद रखने लायक है कि किसी समय हिटलर अमेरिका का मित्र था और आजकल जैसी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति चल रही है वह पहले भी थी और कोई बड़ी बात नहीं ऐसी ही कोई दूरगामी योजना के तहत यहूदियों को वहां लाया गया हो-यह बात कहीं इतिहास मेंं नहंी लिखी पर जिस तरह इजरायल हमेशा समर्थन के लिये अमेरिका पर निर्भर रहा है उससे यही लगता है।
याद रखने वाली बात यह भी है कि इजरायल हथियारों को बेचने वाला देश है और इसलिये कुछ लोग उस पर कुछ आतंकवादी गुटों को सहायता देने के आरोप भी लगाते हैं। हथियार कोई शांतिकाल में नहीं बिकते इसके लिये जरूरी है कि विश्व में अशांत क्षेत्र बने रहें। इतना ही नहीं एक मजेदार बात यह भी हुई है कि किसी समय अमेरिका की जासूसी संस्था सी.आई.ए. पर जिस तरह दूसरे देशों में अस्थिरता फैलाने के आरोप लगते थे वैसे ही अब इजरायल की जासूसी संस्था पर भी लगने लगे हैं। हम इजरायल द्वारा आतंकवाद के मुकाबले के लिये अनेक प्रकार के हथियार और तकनीकी के अविष्कार की बातें सुनते हें और तय बात है कि उसे बेचा वही जायेगा जहां आंककवाद होगा। आतंकवाद भी वहीं होगा जहां हथियार और तकनीकी खरीदने के लिये धन होगा। ऐसे में विश्व के हथियार के सौदागरों पर यही आरोप लगते हैं कि वह हथियार बेचने के लिये अपने लिये बाजार बनाते हैं ओर इसलिये इजरायल की रणनीति संदेह से परे नहीं हो सकती।
इजरायल की शक्ति का भी अधिक प्रचार होता लग रहा हैं। बरसों से सुन रहे हैं कि इजरायल ईरान के परमाणु संयंत्रों को नष्ट कर सकता है पर कभी नहीं किया। बीच में तो यह भी सुनने में आया कि वह पाकिस्तान के परमाणु संयंत्रों पर हमला करेगा पर यह दूर की कौड़ी ही रही।
फिर इजरायल एक छोटा देश है और भारत बहुत बृहद देश है। अगर मान लीजिये किसी परिवार में दो बच्चे हैं और मकान में भी दो कमरे में है तो वह आसानी संभल जाता है। गृहस्वामिनी आसानी से घर की साफ सफाई कर लेती है। जबकि किसी परिवार में पांच बच्चे हों और रहने के लिये आठ कमरे तो उसकी साफ सफाई के लिये बाहर से मदद लेनी पड़ती है। कहने का तात्पर्य है कि सीमित दायरे में विकास और आपसी संपर्क बहुत मजबूत होते हैं। यहां हम सड़क पर निकलते हैं तो कितने अनजान लोग निकल जाते हैं पर हम उनकी तरफ नहीं देखते पर कहीं अगर विदेश में हों तो कोई भारतीय सड़क पर मिल जाये तो उससे बात करने के लिये जरूर मन मचलेगा। भारत एक बृहद देश है और उसके जो फायदे और नुक्सान हैं उसकी वजह से इजरायल के संदर्भ देकर अपने देश के लोगों को समझाना ठीक नहंीं लगता।
जहां तक तरक्की की बात है तो याद रखें कि भारत ने अभी हाल ही में चंद्रयान भेजा था और वह आज भी इजरायल के उपग्रह भेजता है। भारत ने यह उपलब्धि चीन और इजरायल से पहले हासिल की हैं। दरअसल छोटे क्षेत्र में विकास दृष्टिगोचर होता है जबकि बृहद क्षेत्र में अधिक होने पर भी वही कम लगता है। शायद लोगों ने इस बात पर कम ही गौर किया होगा कि चंद्रयान भेजने के बाद भारत में अप्रिय वारदातें एकदम बढ़ गयीं थीं। चंद्रयान की उपलब्धि से कोई खुश नहंीं है। यहां तक कि आजकल भारतीय बुद्धिजीवियों और लेखकों के लाड़ले ओबामा तक ने इस पर चुनाव प्रचार के दौरान अपनी चिंता जताई थी। आशय यह है कि भारत की प्रगति को चीन या इजरायल के संदर्भ में देखने की बजाय अमेरिका से तुलना करना चाहिये। चंद्रयान के प्रक्षेपण को कुछ लोग कम आंकते हैं तो कुछ मजाक उड़ाते हैं। दरअसल एक बात याद रखने वाली यह भी है कि इस देश का विकास इसलिये कम लगता है क्योंकि यह आबादी बड़े पैमाने पर बढ़ती जा रही है। कुछ लोग तो इस देश के हर वैज्ञानिक उपलब्धि पर यही कहते हैं कि पहले अपने देश की गरीबी मिटा लो फिर बाकी काम करो। उन्हें यह समझाना जरूरी है कि इस हिसाब से भारत को अगले एक हजार वर्ष तक कुछ नहीं करना चाहिये और तब भी पूरा विश्व हम पर हंसेगा।
इजरायलियों और यहूदियों के अपनी नस्ल से प्रेम की भी बात करें। ऐसा लगता है कि वह कुछ अधिक ही रूढ़ हैं। कुछ समय पूर्व इजरायल ने गाजा पट्टी का एक हिस्सा फलस्तीन को सौपा था तब वहां उसने सेना भेजकर पचास हजार यहूदी वहां से हटा कर अपने यहां बसाये। फलस्तीनियों ने इसका विरोध किया और कहा कि वह उन यहूदियों की सुरक्षा का पूरा जिम्मा लेते हैं। यहां तक कि वह यहूदी भी अपनी पैतृक संपतियों और वैभव छोड़कर नहीं जाना चाहते थे पर उनको जबरन खींच लिया गया अनेक लोगों ने रोते हुए अपने घर छोड़े ठीक है अपनी जाति और नस्ल से प्रेम करना चाहिये और मानवीय दृष्टि से स्वाभाविक भी है पर यह प्रकृति के विरुद्ध भी है। समय के अनुसार इस दुनियां में परिवर्तन आते हैं और नस्ल और जातियों के स्वरूप में बदलाव आते हैं। उनको रेाकने या बनाने का मानवीय प्रयास हमेशा ऐसे संघर्षों को जन्म देता है जो लंबे समय तक चलते है। इजरायल के लोगों को अपने छोटे देश में कामयाबी से कार्य करने पर शाबाशी दी जानी चाहिये पर अपने देश के प्रति कोई कुंठा पालना ठीक नहीं है।
फिर देश को सिखायें क्या? सच बात तो यह है कि चीन और इजरायल की जिस भौतिक समृद्धि को लेकर हम अपने देश को जो सिखा रहे हैं वह असहजता पैदा करने वाली है। अपनी जाति,नस्ल और विचार पर अहंकार हमेशा असहजता को उत्पन्न करने का कारण होता है। हां, कुछ लोगों को यहां बता देना जरूरी है कि जिनको अपने देश के अध्यात्म गुरु होने की परवाह नहीं हैं वह स्वयं असहजता की और अग्रसर हैं। भगवान श्रीकृष्ण से मनुष्य को सहजयोग का पाठ पढ़ाया हैं उसके आगे पूरा विश्व नतमस्तक हैंं। उन्होंने मनुष्य को ज्ञान के साथ विज्ञान में भी पारंगत होने का संदेश दिया है। यही कारण है कि अनेक भारतीय वैज्ञानिक जिन्होंने विज्ञान में विशेषज्ञता का प्राप्त की वह भी गीता के संदेशों के आगे नतमस्तक होते हैं। चंद्रयान प्रक्षेपण शायद भारत के बुद्धिजीवियों को एक मामूली घटना लगती है पर विदेश में इससे जो भारत की मान्यता हुई है उससे वही जानते हैं। शायद विदेशी भी अपने यहां यही संदेश देते हों कि ‘‘भारत से सीखो जिसने अध्यात्मिक ज्ञान के साथ विज्ञान में भी तरक्की की है। भारतीय डाक्टरों ने अमेरिका तक में अपना परचम फैलाया है। भारतीय वैज्ञानिकों ने भी कोई कम सफलतायें प्राप्त नहीं की और नोबल न मिलने से वह कम नहीं हो जाती। यहां भारत में दूसरों से सीखने की शिक्षा दी जा रही है। हो सकता है कि इसे ही कहते हों कि ‘दूर के ढोल सुहावने।’
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कुछ ऐसी घटनाएँ अक्सर समाचारों में सुर्खियाँ बनतीं है जिसमें पति अपनी पत्नी की हत्या कर देता है
१। क्योंकि उसे संदेह होता है की उसके किसी दूसरे आदमी से उसके अवैध संबंध हैं।
२।या पत्नी उसके अवैध संबंधों में बाधक होती है।
इसके उलट भी होता है। ऐसी घटनाएँ जो अभी तक पाश्चात्य देशों में होतीं थीं अब यहाँ भी होने लगीं है और कहा जाये कि यह सब अपनी सभ्यता छोड़कर विदेशी सभ्यता अपनाने का परिणाम है तो उसका कोई मतलब नहीं है। यह केवल असलियत से मुहँ फेरना होगा और किसी निष्कर्ष से बचने के लिए दिमागी कसरत से बचना होगा।
हम कहीं न कहीं सभी लोग पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण कर ही रहे हैं। फिर भी समाज में बदनामी का डर रहता है इसलिए पुराने आदर्शों की बात करते हैं पर विवाह और जन्म दिन के अवसर पर हम सब भूलकर उसी ढर्रे पर आ जाते हैं जिस पर पश्चिम चल रहा है।
मैं एक दार्शनिक की तरह समाज को जब देखता हूँ तो कई लोगों को ऐसे तनावों में फंसा पाता हूँ जिसमें आदमी का धन और समय अधिक नष्ट होता देखता हूँ। कई माँ-बाप अपने बच्चों की शादी कराकर अपने को मुक्त समझते हैं पर ऐसा होता नहीं है। लड़कियों की कमी है पर लड़के वालों के अंहकार में कमी नहीं है। हम इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि लडकी के बाप के रूप में आदमी झुकता है लड़के के बाप के रूप में अकड़ता है। अपने आसपास जब कुछ लोगों को बच्चों के विवाह के बाद भी उनके तनाव झेलते हुए पाता हूँ तो हैरानी होती है।
रिश्ते करना सरल है और निभाना और मुश्किल है और उससे अधिक मुश्किल है उनको तोड़ना। कई जगह लडकी भी लड़के के साथ रहना नहीं चाहती पर लड़के वाले दहेज़ और अन्य खर्च की वापसी न करनी पड़े इसलिए मामले को खींचते हैं। कई जगह कामकाजी लडकियां घरेलू तनाव से बहुत परेशान होती हैं और वह अपने पति से अलग होना चाहतीं है पर यह काम उनको कठिन लगता है। लंबे समय तक मामला चलता है। कुछ घर तो ऐसे भी देखे हैं कि जिनका टूटना तय हो जाता है पर उनका मामला बहुत लंबा चला जाता है। दरअसल अधिकतर सामाजिक और कानूनी कोशिशे परिवारों को टूटने से अधिक उसे बचाने पर केन्द्रित होतीं है। कुछ मामलों में मुझे लगा कि व्यर्थ की देरी से लडकी वालों को बहुत हानि होती है। अधिकतर मामलों में लडकियां तलाक नहीं चाहतीं पर कुछ मामलों में वह रहना भी नहीं चाहतीं और छोड़ने के लिए तमाम तरह की मांगें भी रखतीं है। कुछ जगह लड़किया कामकाजी हैं और पति से नहीं बनतीं तो उसे छोड़ कर दूसरा विवाह करना चाहतीं है पर उनको रास्ता नहीं मिल पाता और बहुत मानसिक तनाव झेलतीं हैं। ऐसे मामले देखकर लगता है कि संबंध विच्छेद की प्रक्रिया बहुत आसान कर देना चाहिए। इस मामले में महिलाओं को अधिक छूट देना चाहिऐ। जहाँ वह अपने पति के साथ नहीं रहना चाहतीं वह उन्हें तुरंत तलाक लेने की छूट होना चाहिए। जिस तरह विवाहों का पंजीयन होता है वैसे ही विवाह-विच्छेद को भी पंजीयन कराना चाहिए। जब विवाह का काम आसानी से पंजीयन हो सकता है तो उनका विच्छेद का क्यों नहीं हो सकता।
कहीं अगर पति नहीं छोड़ना चाहता और पत्नी छोड़ना चाहती है उसको एकतरफा संबंध विच्छेद करने की छूट होना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे कि समाज में इसे अफरातफरी फ़ैल जायेगी। ऐसा कहने वाले आँखें बंद किये बैठे हैं समाज की हालत वैसे भी कौन कम खराब है। अमेरिका में तलाक देना आसान है पर क्या सभी तलाक ले लेते हैं। देश में तलाक की संख्या बढ रही हैं और दहेज़ विरोधी एक्ट में रोज मामले दर्ज हो रहे हैं। इसका यह कारान यह है कि संबंध विच्छेद होना आसान न होने से लोग अपना तनाव इधर का उधर निकालते हैं। वैसे भी मैं अपने देश में पारिवारिक संस्था को बहुत मजबूत मानता हूँ और अधिकतर औरतें अपना परिवार बचाने के लिए आखिर तक लड़ती है यह भी पता है पर कुछ अपवाद होतीं है जो संबध विच्छेद आसानी से न होने से-क्योंकि इससे लड़के वालों से कुछ नहीं मिल पाता और लड़के वाले भी इसलिए नहीं देते कि उसे किसी के सामने देंगे ताकि गवाह हों-तमाम तरह की नाटकबाजी करने को बाध्य होतीं हैं। कुछ लड़कियों दूसरों के प्रति आकर्षित हो जातीं हैं पर किसी को बताने से डरती हैं अगर विवाह विच्छेद के प्रक्रिया आसान हो उन्हें भी कोई परेशानी नहीं होगी।
कुल मिलकर विवाह नाम की संस्था में रहकर जो तनाव झेलते हैं उनके लिए विवाह विच्छेद की आसान प्रक्रिया बनानी चाहिऐ। हालांकि देश के कुछ धर्म भीरू लोग जो मेरे आलेख को पसंद करते है वह इससे असहमत होंगें पर जैसा मैं वाद और नारों से समाज नहीं चला करते और उनकी वास्तविकताओं को समझना चाहिऐ। अगर हम इस बात से भयभीत होते हैं तो इसका मतलब हमें अपने मजबूत समाज पर भरोसा नहीं है और उसे ताकत से नियंत्रित करना ज़रूरी है तो फिर मुझे कुछ कहना नहीं है-आखिर साठ साल से इस पर कौन नियंत्रण कर सका।
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