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गुरु पूर्णिमा-तत्वज्ञान दे वही होता है सच्चा गुरु (article in hindi on guru purnima


गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव

         जहां गुरु लोभी और शिष्य लालची हों वह दोनों ही अपने दांव खेलते हैं पर अंततः पत्थर बांध कर नदिया पर करते हुए उसमें डूब जाते हैं।

            आज पूरे देश में गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है। भारतीय अध्यात्म में गुरु का बहुत महत्व है और बचपन से ही हर माता पिता अपने बच्चे को गुरु का सम्मान करने का संस्कार इस तरह देते हैं कि वह उसे कभी भूल ही नहीं सकता। मुख्य बात यह है कि गुरु कौन है?
दरअसल सांसरिक विषयों का ज्ञान देने वाला शिक्षक होता है पर जो तत्व ज्ञान से अवगत कराये उसे ही गुरु कहा जाता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में वर्णित है। इस ज्ञान को अध्ययन या श्रवण कर प्राप्त किया जा सकता है। अब सवाल यह है कि अगर कोई हमें श्रीगीता का ज्ञान देता है तो हम क्या उसे गुरु मान लें? नहीं! पहले उसे गुरु मानकर श्रीगीता का ज्ञान प्राप्त करें फिर स्वयं ही उसका अध्ययन करें और देखें कि आपको जो ज्ञान गुरु ने दिया और वह वैसा का वैसा ही है कि नहीं। अगर दोनों मे साम्यता हो तो अपने गुरु को प्रणाम करें और फिर चल पड़ें अपनी राह पर।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में गुरु की सेवा को बहुत महत्व दिया है पर उनका आशय यही है कि जब आप उनसे शिक्षा लेते हैं तो उनकी दैहिक सेवा कर उसकी कीमत चुकायें। जहां तक श्रीकृष्ण जी के जीवन चरित्र का सवाल है तो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्होंने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर हर वर्ष उनके यहां चक्कर लगाये।
गुरु तो वह भी हो सकता है जो आपसे कुछ क्षण मिले और श्रीगीता पढ़ने के लिये प्रेरित करे। उसके बाद                    अगर आपको तत्वज्ञान की अनुभूति हो तो आप उस गुरु के पास जाकर उसकी एक बार सेवा अवश्य करें। हम यहां स्पष्ट करें कि तत्वज्ञान जीवन सहजता पूर्ण ढंग से व्यतीत करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और वह केवल श्रीगीता में संपूर्ण रूप से कहा गया है। श्रीगीता से बाहर कोई तत्व ज्ञान नहीं है। इससे भी आगे बात करें तो श्रीगीता के बाहर कोई अन्य विज्ञान भी नहीं है।
इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते हैं।
सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों।

कबीरदास जी ने ऐसे ही लोगों के लिये कहा है कि

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जाका गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।

      “जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है।”

 
बहुत कटु सत्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान एक स्वर्णिम शब्दों का बड़ा भारी भंडार है जिसकी रोशनी में ही यह ढोंगी संत चमक रहे हैं। इसलिये ही भारत में अध्यात्म एक व्यापार बन गया है। श्रीगीता के ज्ञान को एक तरह से ढंकने के लिये यह संत लोग लोगों को सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। भगवान श्रीगीता में भगवान ने अंधविश्वासों से परे होकर निराकर ईश्वर की उपासना का संदेश दिया और प्रेत या पितरों की पूजा को एक तरह से निषिद्ध किया है परंतु कथित रूप से श्रीकृष्ण के भक्त हर मौके पर हर तरह की देवता की पूजा करने लग जाते हैं। गुरु पूर्णिमा पर इन गुरुओं की तो पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देते हैं।
मुक्ति क्या है? अधिकतर लोग यह कहते हैं कि मुक्ति इस जीवन के बाद दूसरा जीवन न मिलने से है। यह गलत है। मुक्ति का आशय है कि इस संसार में रहकर मोह माया से मुक्ति ताकि मृत्यु के समय उसका मोह सताये नहीं। सकाम भक्ति में ढेर सारे बंधन हैं और वही तनाव का कारण बनते हैं। निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ऐसे ब्रह्मास्त्र हैं जिनसे आप जीवन भर मुक्त भाव से विचरण करते हैं और यही कहलाता मोक्ष। अपने गुरु या पितरों का हर वर्ष दैहिक और मानसिक रूप से चक्कर लगाना भी एक सांसरिक बंधन है। यह बंधन कभी सुख का कारण नहीं होता। इस संसार में देह धारण की है तो अपनी इंद्रियों को कार्य करने से रोकना तामस वृत्ति है और उन पर नियंत्रण करना ही सात्विकता है। माया से भागकर कहीं जाना नहीं है बल्कि उस पर सवारी करनी है न कि उसे अपने ऊपर सवार बनाना है। अपनी देह में ही ईश्वर है अन्य किसी की देह को मत मानो। जब तुम अपनी देह में ईश्वर देखोगे तब तुम दूसरों के कल्याण के लिये प्रवृत्त होगे और यही होता है मोक्ष।
इस लेखक के गुरु एक पत्रकार थे। वह शराब आदि का सेवन भी करते थे। अध्यात्मिक ज्ञान तो कभी उन्होंने प्राप्त नहीं किया पर उनके हृदय में अपनी देह को लेकर कोई मोह नहीं था। वह एक तरह से निर्मोही जीवन जीते थे। उन्होंने ही इस लेखक को जीवन में दृढ़ता से चलने की शिक्षा दी। माता पिता तथा अध्यात्मिक ग्रंथों से ज्ञान तो पहले ही मिला था पर उन गुरु जी जो दृढ़ता का भाव प्रदान किया उसके लिये उनको नमन करता हूं। अंतर्जाल पर इस लेखक को पढ़ने वाले शायद नहीं जानते होंगे कि उन्होंने अपने तय किये हुए रास्ते पर चलने के लिये जो दृढ़ता भाव रखने की प्रेरणा दी थी वही यहां तक ले आयी। वह गुरु इस लेखक के अल्लहड़पन से बहुत प्रभावित थे और यही कारण है कि वह उस समय भी इस तरह के चिंतन लिखवाते थे जो बाद में इस लेखक की पहचान बने। उन्हीं गुरुजी को समर्पित यह रचना।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

इन्टरनेट के प्रयोग से होने वाले दोषों से बचाती है योग साधना-हिंदी आलेख


कुछ समाचारों के अनुसार इंटरनेट पर अधिक काम करना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। इंटरनेट का संबंध कंप्यूटर से ही है जिसके उपयोग से वैसे भी अनेक बीमारियां पैदा होती हैं। एक खबर के अनुसार कंप्यूटर पर काम करने वालों में विटामिन डी की कमी हो जाती है इसलिये लोगों को धूप का सेवन अवश्य करना चाहिये। अगर इन खबरों का विश्लेषण करें तो उनसे यही निष्कर्ष निकलता है कि कंप्यूटर और इंटरनेट के अधिक प्रयोग से ही शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। इसके अलावा इनके उपयोग के समय अपने आपको अनावश्यक रूप से थकाने के साथ ही अपनी शारीरिक तथामानसिक स्थिति पर पर्याप्त ध्यान न देना बहुत तकलीफदेह यह होता है। सच बात तो यह है कि इंटरनेट तथा कंप्यूटर पर काम करने वालों के पास उससे होने वाली शारीरिक और मानसिक व्याधियों से बचने का एकमात्र उपाय योग साधना के अलावा अन्य कोई उपाय नज़र नहीं आता।
दरअसल कंप्यूटर के साथ अन्य प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक सावधानियां रखने के नुस्खे पहले बहुत पढ़ने को मिलते थे पर आजकल कहीं दिखाई नहीं देते । कुछ हमारी स्मृति में हैें, जो इस प्रकार हैं-
कंप्यूटर पर बीस मिनट काम करने के बाद विश्राम लें। पानी अवश्य पीते रहें। खाने में नियमित रूप से आहार लेते रहें। पानी पीते हुए मुंह में भरकर आंखों पर पानी के छींटे अवश्य मारें। अगर कंप्यूटर कक्ष से बाहर नहीं आ सकें तो हर बीस मिनट बार अपनी कुर्सी पर ही दो मिनट आंख बंद कर बैठ जायें-इसे आप ध्यान भी कह सकते हैं। काम खत्म करने पर बाहर आकर आकाश की तरफ जरूर अपनी आंखें केंद्रित करें ताकि संकीर्ण दायरे में काम कर रही आंखें व्यापक दृश्य देख सकें।
दरअसल हम भारतीयों में अधिकतर नयी आधुनिक वस्तुओं के उपयोग की भावना इतनी प्रबल रहती है कि हम अपने शरीर की सावधनी रखना फालतु का विषय समझते हैं। जहां तक बीमारियों का सवाल है तो वह शराब, सिगरेट और मांस के सेवन से भी पैदा होती हैं इसलिये इंटरनेटर और कंप्यूटर की बीमारियों से इतना भय खाने की आवश्यकता नहीं है मगर पर्याप्त सावधानी जरूर रखना चाहिए।
इंटरनेट और कंप्यूटर पर काम करने वाले हमारे देश में दो तरह लोग हैं। एक तो वह है जो शौकिया इससे जुड़े हैं और दूसरे जिनको इससे व्यवसायिक बाध्यता ने पकड़ा है। जो शौकिया है उनके लिये तो यह संभव है कि वह सावधानी रखते हुए काम करें-हालांकि उनके मनोरंजन की प्यास इतनी गहरी होती है कि वह इसे समझेंगे नहीं-पर जिनको नौकरी या व्यवसाय के कारण कंप्यूटर या इंटरनेट चलाना है उनके स्थिति बहुत दयनीय होती है। दरअसल इंटरनेट और कंप्यूटर पर काम करते हुए आदमी की आंखें और दिमाग बुरी तरह थक जाती हैं। यह तकनीकी काम है पर इसमें काम करने वालों के साथ एक आम कर्मचारी की तरह व्यवहार किया जाता है। जहां कंप्यूटर या इंटरनेट पर काम करते एक लक्ष्य दिया जाता है वहां काम करने वालों के लिये यह भारी तनाव का कारण बनता है। दरअसल हमारे देश में जिनको कलम से अपने कर्मचारियेां को नियंत्रित करने की ताकत मिली है वह स्वयं कंप्यूटर पर काम करना अपने लिये वैसे ही हेय समझते हैं जैसे लिपिकीय कार्य को। वह जमीन गड़ढा खोदने वाले मजदूरो की तरह अपने आपरेटरों से व्यवहार करते हैं। शारीरिक श्रम करने वाले की बुद्धि सदैव सक्रिय रहती है इसलिये वह अपने साथ होने वाले अनाचार या बेईमानी का मुकाबला कर सकता है। हालांकि यह एक संभावना ही है कि उसमें साहस आ सकता है पर कंप्यूटर पर काम करने वाले के लिये दिमागी थकावट इतनी गहरी होती है कि उसकी प्रतिरोधक क्षमता काम के तत्काल बाद समाप्त ही हो जाती है। इसलिये जो लोग शौकिया कंप्यूटर और इंटरनेट से जुड़े हैं वह अपने घर या व्यवसाय में परेशानी होने पर इससे एकदम दूर हो जायें। जिनका यह व्यवसाय है वह भी अपने साइबर कैफे बंद कर घर बैठे या किसी निजी संस्थान में कार्यरत हैं तो पहले अवकाश लें और फिर तभी लौटें जब स्थिति सामान्य हो या उसका आश्वासन मिले। जब आपको लगता हो कि अब आपको दिमागी रूप से संघर्ष करना है तो तुरंत कीबोर्ड से हट जायें। घर, व्यवसाय या संस्थान में अपने विरोधी तत्वों के साथ जब तक अमन का यकीन न हो तब कंप्यूटर से दूर ही रहें ताकि आपके अंदर स्वाभाविक मस्तिष्कीय ऊर्जा बनी रहे।
कंप्यूटर पर लगातार माउस से काम करना भी अधिक थकाने वाला है। जिन लोगों को लेखन कार्य करना है अगर वह पहले कहीं कागज पर अपनी रचना लिखे और फिर इसे टाईप करें। इससे कंप्यूटर से भी दूरी बनी रहेगी दूसरे टाईप करते हुए आंखें कंप्यूटर पर अधिक देर नहंी रहेंगी। जो लेाग सीधे टाईप करते हैं वह आंखें बंद कर अपने दिमाग में विचार करते हुए टंकित करें।
वैसे गूगल के फायरफाक्स में बिना माउस के कंप्यूटर चलाया जा चलाया जा सकता है। जहां तक हो सके माउस का उपयोग कम से कम करें। वैसे भी बेहतर कंप्यूटर आपरेटर वही माना जाता है जो माउस का उपयोग कम से कम करता है।
कुछ लोगों का कहना है कि कंप्यूटर पर काम करने से आदमी का पेट बाहर निकल आता है क्योंकि उसमें से कुछ ऐसी किरणें निकलती हैं जिससे आपरेटर की चर्बी बढती है। इस पर थोड़ा कम यकीन आता है। दरअसल आदमी जब कंप्यूटर पर काम करता है तो वह घूमना फिरना कम कर देता है जिसकी वजह से उसकी चर्बी बढ़ने लगती है। अगर सुबह कोई नियमित रूप से घूमें तो उसकी चर्बी नही बढ़ेगी। यह अनुभव किया गया है कि कुछ लोगों को पेट कंप्यूटर पर काम करते हुए बढ़ गया पर अनेक लोग ऐसे हैं जो निरंतर काम करते हुए पतले बने हुए हैं।
आखिरी बात यह है कि कंप्यूटर पर काम करने वाले योगसाधना जरूर करें। प्राणायाम करते हुए उन्हेंइस बात की अनुभूति अवश्य होगी कि हमारे दिमाग की तरफ एक ठंडी हवा का प्रवाह हो रहा हैं। सुबह प्राणायाम करने से पूर्व तो कदापि कंप्यूटर पर न आयें। रात को कंप्यूटर पर अधिक देर काम करना अपनी देह के साथ खिलवाड़ करना ही है। सुबह जल्दी उठकर पहले जरूर पानी जमकर पियें और उसके बाद अनुलोम विलोम प्राणायाम निरंतर करंें। इससे पांव से लेकर सिर तक वायु और जल प्रवाहित होगा उससे अनेक प्रकार के विकार बाहर निकल आयेंगे। जब आप करेंगे तो आपको यह लगने लगेगा कि आपने एक दिन पूर्व जो हानि उठाई थी उसकी भरपाई हो गयी। यह नवीनता का अनुभव प्रतिदिन करेंगे। वैसे कंप्यूटर पर काम करते समय बीच बीच में आंखें बंद कर ध्यान अपनी भृकुटि पर केद्रित करें तो अनुभव होगा कि शरीर में राहत मिल रही है। अपने साथ काम करने वालों को यह बता दें कि यह आप अपने स्वास्थ्य के लिये कर रहे हैं वरना लोग हंसेंगे या सोचेंगे कि आप सो रहे हैं।
किसी की परवाह न करें क्योंकि सबसे बड़ी बात तो यह है कि जान है तो जहान हैं। भले ही इस लेख की बातें कुछ लोगों को हास्यप्रद लगें पर जब योगासन, ध्यान, प्राणायाम तथा मंत्रोच्चार-गायत्री मंत्र तथा शांति पाठ के सा ओम का जाप- करेंगे और प्रतिदिन नवीनता के बोध के साथ इंटरनेट या कंप्यूटर से खेलें्रगे तक इसकी गंभीरता का अनुभव होगा।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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भर्तृहरि नीति शतक-नौकरी करना कठिन काम (serivce a difficult word-hindu adhyatm sandesh)


मौनान्मूकः प्रवचनपटुर्वातुलो जल्प वा धृष्टः पाश्र्वे वसति च सदा दूरश्चाऽप्रगल्भः।
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशा नाभिजातः सेवाधर्म परमगहनो योगिनामपयगभ्यः।।
हिंदी में भावार्थ-
सेवा करने वाला यदि मौन रहे तो गूंगा, वाक्पट् हो तो बकवादी, समीप रहे तो ढीठ और दूरी बनाकर रखे तो मूर्ख, क्षमाशील हो तो भीरु, असहनशील हो अकुलीन कहा जाता है। यह सेवा धर्म अत्यंत ही कठिन है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यहां सेवा से आशय गरीबों की सेवा से नहीं बल्कि नौकरी से है। कहते हैं न नौकरी क्यों करी? आधुनिक शिक्षा प्रणाली से शिक्षित अधिकतर युवा नौकरी के लिये इधार फिरते हैं। नौकरी तो नौकरी है चाहे जैसी भी हो-एक तरह से गुलामी है। सच तो यह है कि इसमें स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त ही हो जाता है। यह सही है कि नौकरी करने वाले को वेतन मिलता है पर उसको काम का दबाव और स्वामी या उच्च अधिकारी के व्यवहार का भय घर तक पीछा नहीं छोड़ता। अगर स्वामी या अधिकारी की हां में हां मिलाओ तो वह मूर्ख समझते हैं। अगर कोई सलाह दो तो सही होने पर भी मातहत के सामने हेठी न हो इसलिये अस्वीकार कर दी जाती है। नौकरी करने वाला अपने स्वामी या अधिकारी को रोज झुककर सलाम ठोके तो चमचा कहलाता है और न करे तो मक्कार!
नौकरी करने वाले तो अनेक लोग तो यही कहते हैं कि ‘कितना भी काम करो अपने बोस को खुश नहीं रखा जा सकता’। सच तो यह है कि नौकरी में बंधी बंधायी आय मिलने से खर्च भी वैसे ही हो जाते हैं और उसके खोने का खतरा आदमी को एक तरह गुलाम बना देता है। एक दूसरी बात भी है कि अवकाश के दिनों में आदमी आराम करना चाहता है और उसे घर के अन्य काम बोझ लगते हैं। इस तरह उसकी सामाजिक स्थिति भी अधिक सुदृढ़ नहीं रहती।
इसके विपरीत जो स्वतंत्र व्यवसाय करते है उनका जीवन संघर्षमय होने के कारण उनका दिमाग और देह हमेशा ही सक्रिय रहती है। फिर उनको भविष्य में विकास की संभावना अधिक काम के लिये स्वतः प्रेरित करती है जबकि नौकरी करने वाले के लिये विकास तो छोटी से बड़ी गुलामी में ही है।
एक स्वतंत्र व्यवसायी और नौकरी करने वाले की मासिक आय एक समान भी हो तब भी व्यवसायी अधिक आजादी से सांस ले पाता है। वह आगे चलकर अपने एक रुपये का दो कर सकता है पर नौकरी वाले के लिये यह संभव नहीं है। हालांकि अनेक नौकरी वाले छोटे व्यवसाय करने वालों को हेय समझते हैं पर सच तो यह है कि वह उनके मुकाबले अधिक आजादी से सांस ले पाते हैं। नौकरी में दिल का चैन केवल कहने के लिये है क्योंकि वह तो एक तरह से रोटी का गुलाम हो जाता है। भले ही उपरी कमाई से धन भी अधिक हो जाता है पर इतिहास गवाह रहा है कि अनेक गुलामों ने भी बहुत धन पाया पर कहलाये तो गुलामी ही न!
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य दर्शन-धर्म परिवर्तन करने से मनुष्य बाद में दु:खी हो जाता है(hindi sandesh-dharm parivaratan anuchit-chankya niti


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं
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आत्मवर्ग परित्यन्य परवर्गे समाश्रितः।
स्वयमेव लयं याति यथा राजात्यधर्मतः।।

हिन्दी में भावार्थ कि अपना समूह,समुदाय वर्ग या धर्म त्याग कर दूसरे का सहारा लेने वाले राजा का नाश हो जाता है वैसे ही जो मनुष्य अपने समुदाय या धर्म त्यागकर दूसरे का आसरा लेता है वह भी जल्दी नष्ट हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- अक्सर लोग धर्म की व्याख्या अपने ढंग से करते हैं। अनेक लोग निराशा, लालच या आकर्षण के वशीभूत होकर धर्म में परिवर्तन कर दूसरा अपना लेते हैं-यह अज्ञान का प्रतीक है। दरअसल मनुष्य के मन में जो विश्वास बचपन में उसके माता पिता द्वारा स्थापित किया जाता है उसी को मानकर वह आगे बढ़ता जाता है। कहा भी जाता है कि माता पिता प्रथम गुरू होते हैं। उनके द्वारा मन में स्थापित संस्कार,आस्था तथा इष्ट के स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहिये। इसका कारण यह है कि बचपन से ही मन में स्थापित संस्कार और आस्थाओं से आदमी आसानी से नहीं छूट पाता-एक तरह से कहा जाये कि पूरी जिंदगी वह उनसे परे नहीं हो पाता।
कहा भी जाता है कि आदमी में संस्कार,नैतिकता और आस्था स्थापित करने का समय बाल्यकाल ही होता है। ऐसे में कुछ लोग निराशा, लालच,भय या आकर्षण की वजह से से अपने धर्म या आस्था में बदलाव लाते हैं पर बहुत जल्दी ही उनमें अपने पुराने संस्कार, आस्थाऐं और इष्ट के स्वरूप का प्रभाव अपना रंग दिखाने लगता है पर तब उनको यह डर लगता है कि हमने जो नया विश्वास, धर्म या इष्ट के स्वरूप को अपनाया है उसको मानने वाले दूसरे लोग क्या कहेंगे? एक तरफ अपने पुराने संस्कार और आस्थाओं की खींचने वाला मानसिक विचार और दूसरे का दबाव आदमी को तनाव में डाल देता है। धीरे धीरे यह तनाव आदमी की देह और मन में विकार पैदा कर देता है। इसलिये अपने अंदर बचपन से स्थापित संस्कार,आस्था और इष्ट के स्वरूप में में कभी बदलाव नहीं करना चाहिये बल्कि अपने धर्म के साथ ही चलते हुए सांसरिक कर्मों में निष्काम भाव से लिप्त होना चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने भी श्रीगीता में कहा भी है कि अपना धर्म गुणहीन क्यों न हो पर उसका त्याग नहीं करें क्योंकि दूसरे का धर्म कितना भी गुणवान हो अपने लिये डरावना ही होता है। धर्म परिवर्तन करने वाले कभी सुखी नहीं रहते है और आस्था बदलने वालों का भटकाव कभी ख़त्म नहीं होता यह  अंतिम सत्य है।
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गणेश चतुर्थी पर उनके गुणों का स्मरण-आलेख (hindi article on ganesh ji)


भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में भगवान शिव को सत्य का प्रतीक माना जाता है। इसके अलावा एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय अध्यात्म में अनेक प्रकार के भगवत् स्वरूपों की चर्चा आती है पर उनमें शायद ही कोई अन्य स्वरूप हो जिसके पूरे परिवार के समस्त सदस्य ही जनमानस द्वारा सहज रूप से भगवत्रूप मान लिये जाते हैं। भगवान शिव और पार्वती के साथ उनके पुत्र श्री कार्तिकेयन और श्री गणेश दोनों ही भगवतस्वरूप भारतीय जनमानस के हृदय में विद्यमान हैं। कार्तिकेयन को देवताओं का सेनापति माना जाता है और यही देवता इस प्रथ्वी का भरण भोषण करते हैं।
भगवान श्रीगणेश जी एक लीला की बहुत चर्चा होती है। वह यह है कि एक बार देवताओं में यह होड़ लगी कि उनमें कौन श्रेष्ठ है। तब यह तय हुआ कि जो प्रथ्वी का चक्कर पहले लगा लेगा उसे ही श्रेष्ठ माना जायेगा। दावेदारों में श्रीगणेश जी ने भी अपना नाम लिखाया। बाकी सभी देवता तो चक्कर लगाने चले गये पर महाराज गणेश जी वहीं जमे रहे। इधर उनके समर्थक इस बात को लेकर चिंतित थे कि श्री गणेश जी एक तो वैसे ही भारी है तिस पर बड़े आराम से अपने माता पिता के पास ही बैठकर आराम फरमा रहे हैं। ऐसे में यह जीतेंगे कैसे? आखिर जब बहुत देर हो गयी तो श्रीगणेश जी उठे और अपने माता पिता की प्रदक्षिणा कर फिर वही बैठ गये और कहा कि मैने तो पूरी सृष्टि का चक्क्र लगा लिया।
वह विजेता घोषित किये गये। यही कारण है कि कहीं भी पूजा करने से पहले भगवान श्रीगणेशजी की स्तुति गायी जाती है। मगर उपरोक्त कथा ही परिचय के रूप में पर्याप्त नहीं है। माता पिता की प्रदक्षिणा करने से अधिक महत्व का कार्य तो उन्होंने भगवान श्री वेदव्यास का महाभारत जैसा महाग्रंथ स्वयं लिख कर पूरा किया। सच बात तो यह है कि यही महाभारत जैसा महाग्रंथ-जिसमें शामिल श्री मद्भागवत् जैसा वह उपग्रंथ शामिल है जिसमें जीवन और सृष्टि के ऐसे रहस्य शामिल हैं जो आज भी प्रमाणिक माने जाते हैं-भारतीय जनमानस के लिये एक ऐसा ग्रंथ है जो उनके लिये एतिहासिक और अध्यात्मिक धरोहर है।
इस तरह भगवान श्री गणेशजी एक तरह से दिव्य लेखक हैं और उन्होंने अपनी उस महान रचना के लिये कोई पारिश्रमिक नहीं मांगा। महाभारत की रचना लिखवाने के लिये भगवान श्री वेदव्यास ने श्री गणेश की तपस्या की थी। जब वह प्रकट हुए तो वेदव्यास की समक्ष यह शर्त रखी कि ‘वह निरंतर लिखेंगे और अगर श्री वेदव्यास की वाणी कहीं अवरुद्ध हो गयी तो वह उसे बीच में ही छोड़ देंगे।’
इस तरह वह वह अनुपम ग्रंथ पूरा हुआ। सरस्वती देवी बुद्धि की देवी मानी जाती है और अनेक भक्त सदबुद्धि पाने के लिये उनकी आराधना करते हैं पर सच तो यह है कि अच्छी या बुरी बुद्धि के लिये सरस्वती देवी जी का न दायित्व है न दोष। वह तो सभी को बुद्धि प्रदान करने वाली हैं-अच्छी भी और बुरी भी- जिनको इससे वंचित रखती हैं उनका जीना न जीना बराबर हो जाता है। आपने देखा होगा कि कुछ लोग मनुष्य के रूप में पैदा होते हैं पर उनकी बौद्धिक विकलांगता उनके साथ ही उनके परिवार के लिये भी कष्टदायक होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि सरस्वती देवी तो बुद्धि की देवी हैं। कभी कभी वह देवताओं के कहने पर बुद्धि को दोष पूर्ण भी बना सकती हैं जैसे देवताओं के आग्रह पर कैकयी की दासी मंथरा की बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी ताकि भगवान श्रीराम बनवास जाकर राक्षसों का संहार कर सकें।
इसी बुद्धि को नियंत्रण कर बड़े बड़े काम करने के लिये ही श्रीगणेश जी की उपासना की जाती है। हर अच्छा काम करने से पूर्व इसलिये ही श्रीगणेश जी की स्तुति की जाती है ताकि भक्त की बुद्धि और बल का समन्वय बना रहे। अगर बुद्धि में शुद्धता नहीं है तो कोई शुभ काम पूर्ण हो ही नहीं सकता-इसी कारण श्रीगणेश जी की स्तुति की जाती है।

देश में अनेक भगवत्स्वरूपों के स्मरण करते हुए पर्व मनाये जाते हैं पर इस दौरान केवल शोरशराबा कर भक्ति का दिखावा करना एक तरह से स्वयं को धोखा देना है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन में वर्णित सभी भगवत्स्वरूपों में प्रथक प्रथक गुण हैं और शायद इसलिये ही सभी का स्मरण करने की परंपरा प्रारंभ हुई है कि उनके गुणों की चर्चा कर मनुष्य अपने अंदर उनको स्थापित करे पर इसके विपरीत केवल उनका नाम लेकर दिखावा कर स्वयं को भक्त होने का धोखा देते हैं। दरअसल यह अवसर होता है कि सत्संग कर उनके देवस्वरूपों की चर्चा कर उनके गुणों की चर्चा की जाये। इस तरह की चर्चा करने से भी गुणों का समावेश अपने अंदर होता है। बाहर से अंदर गुण ले जाने के लिये तीन प्रक्रियायें हैं, दर्शन(तस्वीर को देखते हुए भगवान के गुणों का स्मरण), अध्ययन और श्रवण। यह तभी संभव है जब ऐसा संकल्प हो।
कुछ लोग कहते हैं हिन्दू धर्म में ढेर सारे भगवान हैं यह गलत है। यह कहने वाले अज्ञानी हैं। सच तो यह है कि ऐसा करने से भक्तों को सत्संग की सुविधा मिल जाती है। सभी भगवत्स्वरूपों में अलग अलग गुण हैं। चूंकि सभी मानव लीला में रूप में प्रकट होते हैं तो उनमें इसलिये उनकी देह सर्वगुण संपन्न नहीं होती। सत्संग में उनके गुणों की चर्चा भी हो तो उनकी लीलाओं में मानवीय चूकों पर भी विचार हो जाता है। चूंकि होते तो सभी भक्त ही हैं और किसी न किसी स्वरूप पर उनका मस्तिष्क स्थिर रहता ही है इसलिये वार्तालाप युद्ध में नहीं बदलता। इसके विपरीत अन्य धर्मों में बस एक ही महापुरुष के नाम पर ही सारा समाज खड़ा है और वहां इसलिये सत्संग नहीं हो पाता क्योंकि उस दौरान किसी प्रकार की कमी की चर्चा अपराध हो जाता है। हमारे समाज में सत्संग की जो परंपरा है वही उसे एक किये रहती है। विभिन्न जातियों, भाषाओं, क्षेत्रों और समूहों को सत्संग की छत्रछाया में बैठकर आनंद लेते हुए देखा जा सकता है।
इस अवसर पर सभी ब्लाग लेखक मित्रों और पाठकों को बधाई इस संदेश के साथ कि भगवान श्रीगणेश की ध्यान अवश्य करें। उनके गुणों का स्मरण स्वयं करने के साथ ही अपने परिवार के सदस्यों को भी इसके लिये प्रेरित करें। वर्तमान युग में जो हालत हैं उनको हम नहीं बदल सकते पर उनसे होने वाले तनाव से मुक्ति तभी संभव है जब हमारा बुद्धि पर नियंत्रण हो।
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