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रहीम के दोहे:हंसिनी चुनती है केवल मोती


मान सहित विष खाप के, संभु भय जगदीश
बिना मान अमृत पिए, राहू कटाए शीश

कविवर रहीम कहते हैं सम्मान के के साथ विषपान कर शिव पूरे जगत में भगवान् स्वरूप हो गए. बिना सम्मान के अमृत-पान कर राहू ने चंद्रमा से अपना मस्तक कटवा लिया.

भाव-हमें वही कार्य करना चाहिए जिससे सम्मान मिले. समाज हित में कार्य करना विष पीने लायक लगता है पर प्रतिष्ठा उसी से ही बढती है. अपने स्वार्थ के लिए कार्य करने से यश नहीं बढ़ता बल्कि कई बार तो अपयश का भागी बनना पड़ता है. इसका एक आशय यह भी है हमें जो चीज सहजता और सम्मान से मिले स्वीकार करना चाहिए और कहीं हमें अपमान और घृणा से उपयोगी वस्तु भी मिले तो उसे त्याग देना चाहिए.

मान सरोवर ही मिले, हंसी मुक्ता भोग
सफरिन घरे सर, बक-बालकनहिं जोग

कवि रहीम कहते हैं की हंसिनी तो मान सरोवर में विचरण करती है और केवल मोतियों को ही चुनकर खाती है. सीपियों से भरे तालाब तो केवल बगुले और बच्चों के क्रीडा स्थल होते हैं.

भाव- विद्वान् और ज्ञानी व्यक्ति सदैव अपने जैसे लोगों से व्यवहार रखते हैं और उनके अमृत वचन सुनते हैं, किन्तु जो मूर्ख और अज्ञानी हैं वह सदैव बुरी संगति और आमोद-प्रमोद में अपना समय नष्ट करते हैं. जिस तरह हंसिनी केवल मानसरोवर में विचरण करती है उसी तरह ज्ञानी लोग सत्संग में अपने मन के साथ विचरण करते हुए अपना समय बिताते और ज्ञान प्राप्त करते हैं.

दिल के सोच जैसी होगी दुनिया


मन का खोखलापन
तन को रुग्ण कर देता हैं
विचारों की कलुषिता से
अपना दिल ही बैचेन कर देता है
हम अपने ही दायरों में कैद हो जाते हैं

जैसा ख़्याल दिल में होगा
वैसा ही दृश्य हमारे सामने
हर हाल में प्रकट होगा
ख्वाब देखना ठीक है
पर अगर पूरे न हौं तो
देखने वाले तकलीफ उठाएँ जाते हैं

जैसी सोच होती है
वैसी ही दुनिया सामने नजर आती है
कुछ अच्छा और बुरा नहीं
नजरिया जैसा होता है
वैसे ही अहसास हो जाते हैं

इसलिये जैसी दुनिया
देखना चाहते हो
वैसी ही सोच के साथ चलो
ख़्वाबों और ख्यालों में
कुछ खूबसूरत नजरिये
जोड़ते हुए उनके साथ ढलो
जिन्दगी का सफर तो सभी काटते हैं
कुछ रोते कराहते गुजारते हैं
जो हँसते, गुनगुनाते और अपनी
हकीकतों से करते हैं दोस्ती
वही सुख के पल जीं पाते हैं

जो सहज वह ‘कबीर’ जो असहज वह गरीब है


भारत में संत कबीर जी का नाम बहुत श्रद्धा से लिया जा सकता है. कबीर दास जी के दोहों और साखियों में न केवल सहज भक्ति भाव की प्रेरणा है वरन जीवन में नैतिक आदर्शों पर चलने और व्यवहार में सरलता अपनाने का भी संदेश है. कबीर दास जी ने अगर सभी धर्मों पर कटाक्ष नहीं किये होते और मूर्ति पूजा को हास्यास्पद नही बताया होता तो तो शायद उनके नाम पर भी लोगों ने धर्म का प्रतिपादन किया होता-और आश्रम बनाकर उनका ख़ूब प्रचार करते. सच तो यह है कि उन्होने जीवन को सहजता से जीने का संदेश दिया है वह अनुकरणीय है. संत कबीर सहजता के प्रतीक हैं और मेरी इसमें मान्यता है कि जो आदमी जीवन में भक्ति और व्यवहार में सहज वह कबीर है और जो असहज है वह गरीब है.

कबीर दास जी ने अपना पूरा जीवन के जुलाहे के रूप में व्यतीत किया. कभी अपना काम नहीं छोडा. श्री गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ‘हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु है और कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ. क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूं तो बड़ी हानि हो जाये क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं. इसलिये मैं कर्म न करूं तो तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरताका करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ.’

संत कबीर के अपने जीवन कल में ही शिष्य बन गये थे फिर भी उन्होने अपना काम बंद नहीं किया क्योंकि वह जानते थे कि अगर उन्होने ऐसा किया तो बाद में लोग उनके कथन पर यकीन नहीं करेंगे-यह अलग बात है कि आजकल के कई व्यासायिक संत उनके कथनों को सुनाकर वाह-वाही लूटते हैं पर उनके जीवन चरित्र पर चलने का साहस कोई नहीं कर पाता.

पाँव पुजावेँ बैठि के, भखै मांस मद दोय
तिनकी दीच्छा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होय

आशय -जो साधू-संत खाली बैठकर अपने पाँव पुजवाते हैं और मांस-मदिरा दोनों का सेवन करते हैं उनकी दीक्षा से कभी किसी की मुक्ति नहीं हो सकती, उल्टे करोड़ों नरकों का भीषण कष्टप्रद फल भोगना पड़ता है।
आप यह समझ सकते हैं कि कबीर दास जी कितने बडे दूरदर्शी थे. इससे एक बात और समझ सकते हैं कि हम कहते हैं कि आजकल ज़माना ही ऐसा हो गया है पर हम देखें तो एसा तो उनके समय में रहा होगा तभी तो उन्होने ऐसा लिखा. शायद यही कारण है कि कबीर का दर्शन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले था- हम यह नहीं कह सकते कि उनका ज़माना कुछ और था और हमारा और.

जो जल बाढै नाव में, घर में बाढै दाम
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों काम

संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है किसी कारणवश नाव में जल भरने लगे और घर में धन की मात्रा बढती चली जाये तो बिना देरी किये दोनों हाथों से उसे निकालो, यही बुद्धिमानी का काम है, अन्यथा डूब जाओगे।
वह जीवन के गूढ़ रहस्यों के साथ मनुष्य के मनोविज्ञान को कितनी गहराई सा समझते थे उनकी रचनाओं को देखकर यह समझा जा सकता है. कबीरदास जीं कोई न तो कोइ पूंजीपति थे और न ही आश्रमों का निर्माण करने वाले संत. जीवन भर अपने परिवार के साथ घर में रहे. कोई पाखंड या दिखावा नहीं किया, यही कारण यह है कि उनका जीवन दर्शन आम आदमी के निकट दिखाई देता है.

अगर आज हम देखें तो हमारे अन्दर जो मन है वह भावनाओं की नदी में तैरता है. आजकल उसमें भगवान् की भक्ति की जगह ऐसे भाव भरे जा रहे हैं जिससे उनका आर्थिक दोहन किया जा सके-और अगर कोई इसके बाद भी हाथ नहीं आता तो भक्ति में ही ऐसे आकर्षक तत्व जोड़ दो कि अपने आप आदमी जेब ढीली करेगा. एक मजे की बात यह है कि मैने देखा है कि भक्ति के तंतु अगर बचपन में आदमी के मन में नहीं बैठे तो फिर कभी नहीं आते और आजकल धार्मिक चैनलों को लेकर ऎसी टिप्पणी आती है कि वह तो केवल बूढों के लिए है-और भगवान की भक्ति तो बुदापे में की जाती है . मैं इन बातों पर बचपन पर ही हंसता हूँ. मैं हर विषय में दिलचस्पी लेता हूँ पर लिप्प्त भक्ति में ही होता हूँ क्योंकि मुझे यह संस्कार बचपन से मिले हैं. श्रीवाल्मिकी रामायण, श्रीगीता और श्रीगुरु ग्रंथ साहब के साथ हिंदी साहित्य में कबीर दास की रचनाओं के अध्ययन मैने भक्ति और चिंतन के साथ किया है. शायद यही वजह है कि मुझे इन पर लिखने में बहुत मजा आता है इस बात की परवाह किये बिना कि उसे कितना पढेंगे. कबीर दास का जीवन के प्रति सहज और सरल भाव मुझे सदैव आकर्षक लगता है. वह हमेशा ही सादगी से दैहिक जीवन जिए और आत्मिक रूप से आज भी हमारे आध्यात्म विचार का महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं. इसलिये कहता हूँ कि जो आदमी जीवन में सहज है वह कबीर है और जो असहज है वह गरीब है. जिसके पास सब कुछ है पर संतोष नहीं है उसे गरीब नही तो क्या कहा जायेगा. ऐसे महान संत को मेरा प्रणाम.

अपनी आभा खोते हुए समाचार चैनल


हम भारत के लोग मूलत: सीधे होते हैं इसमें कोई शक नहीं है, क्योंकि इसी कारण विदेशियों ने हम पर कई वर्ष तक शासन किया. उनके शासकमें चालाकी और कुटिलता कूट-कूट कर भरी हुई थी जबकि हमारे देश के लोग एकदम सीधे-साधे थे. पर अब अंग्रेजी भाषा के साथ उसकी मानसिकता को भी अपनाने वाले लोग भी अपने ही देश के लोगों को नासमझ समझने लगे हैं . अब देश के समाचार चैनलों को ही लें. विकसित देश की तर्ज पर इस देश में उन्होने यहाँ कार्यक्रम शुरू किये और उनको लोकप्रियता भी बहुत मिली और यह तय था कि उनको विज्ञापन भी मिले. अब सफलता के गुरूर ने इतना आत्ममुग्ध बना दिया है कि उनको यह भ्रम हो गया है कि हम चाहे जैसे कार्यक्रम दें लोग उसे देखने के लिए बाध्य हैं. उन्होने इस बात को भुला दिया है कि मनोरंजन और समाचार दो अलग अलग चीजे हैं.

इस देश में करोड़ों लोग हैं जो केवल समाचार पढने और सुनने में रूचि लेते हैं और मनोरंजन उनके लिए दूसरी प्राथमिकता होती है. समाचार का मतलब केवल देश के ही नहीं बल्कि विदेशों की भी छोटी और बडे खबरों में उनकी रूचि होती है. सामयिक चर्चाओं को वह बहुत रूचि के साथ पढते और सुनते हैं. एसे लोगों की वजह से ही इन समाचार चैनलों को लोकप्रियता मिली. फिर भी समाचार चैनलों वालों को भरोसा नहीं है और वहा मनोरंजन कार्यक्रमों को ठूंसे जा रहे हैं. मनोरंमन चैनलों पर होने वाली गीत-संगीत प्रतियोगिताओं पर अपना आधे से अधिक समय खर्च कर रहे हैं जैसे कोई देश की बड़ी खबर है. सामयिक चर्चाएं जो कि समाचारों का एक बहुत महत्वपूर्ण भाग माना जाता है उसके मामले में तो सभी चैनल कोरे हैं. उन्हें लगता है कि यह तो केवल एक फालतू चीज है. जिस तरह किसी समाचार पत्र और पत्रिका को उसका संपादकीय ताकत देता है और वैसे ही समाचार चैनलों की ताकत उसकी सामयिक चर्चा होती है. जिन्होंने सी एन एन और बीबीसी का प्रसारण देखा है उन्हें यह चैनल वैसे ही नहीं भाते पर अपनी भाषा के कारण सबको अच्छे लगते हैं पर इन चैनलों ने आपने असली प्रशंसकों पर भरोसा करने की बजाए उसे नई पीढ़ी पर ज्यादा भरोसा दिखाया जिसे अभी समाचारों से अधिक महत्व नहीं है.

कई लोग हैं जो शाम को घर बैठकर देश-विदेश की खबरे और उनके बारे में सामयिक चर्चाएं सुनना चाहते हैं पर उन्हें सुनने पढते हैं बस गाने और डांस. अगर कोई कह रहा है कि लोग यही देखना चाहते हैं तो झूठ बोल रहा है. क्योंकि शुरू में तो इन चैनलों पर ऐसे कार्यक्रम नहीं आते थे तब उन्हें कैसे लोकप्रियता मिली. दर असल घर में बैठी महिलाएं और बच्चे इन्हें देखने लगे थे और इसी का फायदा उठाने के लिए विज्ञापन देने वालों ने इन्हें अपने बस में कर लिया. पैसा कमाने में कोई बुराई नहीं है पर इस तरह अपने मूल स्वरूप से जी तरह छेड़छाड़ कर उन्होने यह साबित किया है कि वह विदेशी चैनलों की तरह व्यवसायिक नहीं हैं. मैं आज भी जब भी बीबीसी पर इस देश के बारे में सामयिक चर्चा सुनता हूँ तो एसा लगता है कि उनके प्रसारणों की इसे देश में कोई बराबरी नहीं कर सकता और न सीख सकता है. कई बार शाम को जब मैं समाचार सुनना चाहता हूँ तो निराशा हाथ लगती है.

इन लोगों को पता ही नहीं है कि समाचार केवल देश के ही नहीं विदेश के भी होते है और लोग उन्हें सुनते हैं. फिर यह कहते हैं कि विदेशी चैनलों की तरह यहां नहीं चल सकता- पर यह नहीं बताते कि पहले कैसे चल रहा था. इस मामले में इस देश का दूरदर्शन चैनल आज भी इनसे आगे है जिस पर यह सरकारी का ठप्पा लगाकर उसकी उपेक्षा करते हैं. कम से कम उस पर सामयिक चर्चाएँ तो सुनाने को तो मिल जाती हैं.

इन समाचार चैनलों को अपना सही स्वरूप बनाए रखें के लिए अपने चैनलों पर सामयिक विषयों पर चर्चा के लिए समय भी रखना चाहिए ताकि उनके साथ बौद्धिक वर्ग के दर्शक भी जुडे रहे. .

संत कबीर वाणी:भक्त में अहंकार नहीं होता



जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय
नाता तोड़े गुरू भजै, भक्त कहावै सोय

कविवर कबीर दास जी कहते हैं कि जाति-पांति का अभिमान है तब तक भक्ति नहीं हो सकती। अहंकार और मोह को त्यागा कर, सभी नाते-रिश्तों को तोड़कर भक्ति करो तभी भक्त कहला सकते हो।

भक्ति बिना नहिं निस्तरै, लाख कराइ जो कोय
शबद हृँ सनेही रहै, घर को पहुंचे सोय

भक्ति के बिना उद्धार नहीं हो सकता, चाहे लाख प्रयत्न करो, वे सब व्यर्थ ही सिद्ध होंगे, जो केवल सदगुरु के प्रेमी हृँ, उनके सत्य-ज्ञान का आचरण करने वाले हैं वही अपने उद्देश्य को पा सकते हैं, अन्य कोई नहीं।