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साधू, शैतान और इन्टरनेट-हिंदी हास्य व्यंग्य कविता


शैतान ने दी साधू के आश्रम पर दस्तक
और कहा
‘महाराज क्या ध्यान लगाते हो
भगवान के दिए शरीर को क्यों सुखाते हो
लो लाया हूँ टीवी मजे से देखो
कभी गाने तो कभी नृत्य देखो
इस दुनिया को भगवान् ने बनाया
चलाता तो मैं हूँ
इस सच से भला मुहँ क्यों छुपाते हो’

साधू ने नही सुना
शैतान चला गया
पर कभी फ्रिज तो कभी एसी ले आया
साधू ने कभी उस पर अपना मन नहीं ललचाया
एक दिन शैतान लाया कंप्यूटर
और बोला
‘महाराज यह तो काम की चीज है
इसे ही रख लो
अपने ध्यान और योग का काम
इसमें ही दर्ज कर लो
लोगों के बहुत काम आयेगा
आपको कुछ देने की मेरी
इच्छा भी पूर्ण होगी
आपका परोपकार का भी
लक्ष्य पूरा हो जायेगा
मेरा विचार सत्य है
इसमें नहीं मेरी कोई माया’

साधू ने इनकार करते हुए कहा
‘मैं तुझे जानता हूँ
कल तू इन्टरनेट कनेक्शन ले आयेगा
और छद्म नाम की किसी सुन्दरी से
चैट करने को उकसायेगा
मैं जानता हूँ तेरी माया’

शैतान एकदम उनके पाँव में गिर गया और बोला
‘महाराज, वाकई आप ज्ञानी और
ध्यानी हो
मैं यही करने वाला था
सबसे बड़ा इन्टरनेट तो आपके पास है
मैं इसलिये आपको कभी नहीं जीत पाया’
साधू उसकी बात सुनकर केवल मुस्कराया

क्रिकेट में यह कैसी राजनीति-आलेख (cricket aur politics-hindi article)


भारत की एक व्यवसायिक प्रतियोगिता में पाकिस्तान खिलाड़ियों की नीलामी न होने पर देश के अनेक बुद्धिजीवी चिंतित है। यह आश्चर्य की बात है।
पाकिस्तान और भारत एक शत्रु देश हैं-इस तथ्य को सभी जानते हैं। एक आम आदमी के रूप में तो हम यही मानेंगे। मगर यह क्या एक नारा है जिसे हम आम आदमियों का दिमाग चाहे जब दौड़ लगाने के लिये प्रेरित किया जाता है और हम दौड़ पड़ते हैं। अगर कोई सामान्य बुद्धिजीवी पाकिस्तान के आम आदमी की तकलीफों का जिक्र करे तो हम उसे गद्दार तक कह देते हैं पर उसके क्रिकेट खिलाड़ियों तथा टीवी फिल्म कलाकारों का स्वागत हो तब हमारी जुबान तालू से चिपक जाती है।
दरअसल हम यहां पाकिस्तान के राजनीतिक तथा धार्मिक रूप से भारत के साथ की जा रही बदतमीजियों का समर्थन नहीं कर रहे बल्कि बस यही आग्रह कर रहे हैं कि एक आदमी के रूप में अपनी सोच का दायरा नारों की सीमा से आगे बढ़ायें।
अगर हम व्यापक अर्थ में बात करें तो भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों का आशय क्या है? दो ऐसे अलग देश जिनके आम इंसान एक दूसरे के प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं-इसलिये दोनों को आपस में मिलाने की बात कही जाती है पर मिलाया नहीं जाता क्योंकि एक दूसरे की गर्दन काट डालेंगे।
मगर खास आदमियों का सोच कभी ऐसा नहीं दिखता। भारत में अपने विचार और उद्देश्य संप्रेक्षण करने यानि प्रचारात्मक लक्ष्य पाने के लिये फिल्म, टीवी, अखबार और रेडियो एक बहुत महत्वपूर्ण साधन हैं। इन्हीं से मिले संदेशों के आधार पर हम मानते हैं कि पाकिस्तान हमारा शत्रु है। मगर इन्हीं प्रचार माध्यमों से जुड़े लोग पाकिस्तान से ‘अपनी मित्रता’ की बात करते हैं और समय पड़ने पर यह याद दिलाना नहीं भूलते कि वह शत्रु राष्ट्र है।
भारत के फिल्मी और टीवी कलाकार पाकिस्तान में जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं तो अनेक खेलों के खिलाड़ी भी वहां खेलते हैं-यह अलग बात है कि अधिकतर चर्चा क्रिकेट की होती है। पाकिस्तानी कलाकारो/खिलाड़ियों से उनके समकक्ष भारतीयों की मित्रता की बात हम अक्सर उनके ही श्रीमुख से सुनते हैं। इसके अलावा अनेक बुद्धिजीवी, लेखक तथा अन्य विद्वान भी वहां जाते हैं। इनमे से कई बुद्धिजीवी तो देश के होने वाले हादसों के समय टीवी पर ‘पाकिस्तानी मामलों के विशेषज्ञ’ के रूप में चर्चा करने के लिये प्रस्तुत होते हैं। इनके तर्कों में विरोधाभास होता है। यह पाकिस्तान के बारे में अनेक बुरी बातें कर देश का दिल प्रसन्न करते हैं वह यह कभी नहीं कहते कि उससे संबंध तोड़ लिया जाये। सीधी भाषा में बात कहें तो जिन स्थानों से पाकिस्तान के विरोध के स्वर उठते हैं वह मद्धिम होते ही ‘पाकिस्तान शत्रु है’ के नारे लगाने वाले दोस्ती की बात करने लगते हैं। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की बारे में सभी जानते हैं। इतना ही नहीं मादक द्रव्य पदार्थो, फिल्मों, क्रिकेट से सट्टे से होने वाली कमाई का हिस्सा पाकिस्तान में बैठे एक भारतीय माफिया गिरोह सरदार के पास पहुंचता है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह इन आतंकवादियों को धन मुहैया कराता है। अखबारों में छपी खबरें बताती हैं कि जब जब सीमा पर आतंक बढ़ता है तब दोनों के बीच अवैध व्यापार भी बढ़ता है। अंतराष्ट्रीय व्यापार अवैध हो या वैध उसका एक व्यापक आर्थिक आधार होता है और यह तय है कि कहीं न कमाई की लालच दोनों देशों में ऐसे कई लोगों को है जिनको भारत की पाकिस्तान के साथ संबंध बने रहने से लाभ होता है। अब यह संबंध बाहर कैसे दिखते हैं यह उनके लिये महत्वपूर्ण नहीं है। पाकिस्तान में भारतीय फिल्में दिखाई जा रही हैं। यह वहां के फिल्मद्योग के लिये घातक है पर संभव है भारतीय फिल्म उद्योग इसकी भरपाई वहां के लोगों को अपने यहां कम देखकर करना चाहता है। भारत में होने वाली एक व्यवसायिक क्रिकेट प्रतियोगिता में पाकिस्तान खिलाड़ियों का न चुने जाने के पीछे क्या उद्देश्य है यह अभी कहना कठिन है पर उसे किसी की देशभक्ति समझना भारी भूल होगी। दरअसल इस पैसे के खेल में कुछ ऐसा है जिसने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को यहां नहीं खरीदा गया। एक आम आदमी के रूप में हमें कुछ नहीं दिख रहा पर यकीनन इसके पीछे निजी पूंजीतंत्र की कोई राजनीति होगी। एक बात याद रखने लायक है कि निजी पूंजीतंत्र के माफियाओं से भी थोड़े बहुत रिश्ते होते हैं-अखबारों में कई बार इस गठजोड़ की चर्चा भी होती है। भारत का निजी पूंजीतंत्र बहुत मजबूत है तो पाकिस्तान का माफिया तंत्र-जिसमें उसकी सेना भी शामिल है-भी अभी तक दमदार रहा है। एक बात यह भी याद रखने लायक है कि भारत के निजी पूंजीतंत्र की अब क्रिकेट में भी घुसपैठ है और भारत ही नहीं बल्कि विदेशी खिलाड़ी भी यहां के विज्ञापनों में काम करते हैं। संभव है कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों की इन विज्ञापनों में उपस्थिति भारत में स्वीकार्य न हो इसलिये उनको नहीं बुलाया गया हो-क्योंकि अगर वह खेलने आते तो मैचों के प्रचार के लिये कोई विज्ञापन उनसे भी कराना पड़ता और 26/11 के बाद इस देश के आम जन की मनोदशा देखकर इसमें खतरा अनुभव किया गया हो।
ऐसा लगता है कि विश्व में बढ़ते निजी पूंजीतंत्र के कारण कहीं न कहीं समीकरण बदल रहे हैं। पाकिस्तान के रणनीतिकार अभी तक अपने माफिया तंत्र के ही सहारे चलते रहेे हैं और उनके पास अपना कोई निजी व्यापक पूंजीतंत्र नहीं है। यही कारण है कि उनको ऐसे क्षेत्रों में ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जहां सफेद धन से काम चलता है। पाकिस्तानी रुपया भारतीय रुपये के मुकाबले बहुत कमजोर माना जाता है।
वैसे अक्सर हम आम भारतीय एक बात भूल जाते हैं कि पाकिस्तान की अपनी कोई ताकत नहीं है। भारतीय फिल्म, टीवी, रेडियो और अन्य प्रचार माध्यम पाकिस्तान की वजह से उसका गुणगान नहीं करते बल्कि मध्य एशिया में भारत के निजी पूंजीतंत्र की गहरी जड़े हैं और धर्म के नाम पर पाकिस्तान उनके लिये वह हथियार है जो भारत पर दबाव डालने के काम आता है। जब कहीं प्रचार युद्ध में पाकिस्तान भारत से पिटने लगता है तब वह वहीं गुहार लगाता है तब उसके मानसिक जख्मों पर घाव लगाया जाता है। मध्य एशिया में भारत के निजी पूंजीतंत्र की जड़ों के बारे में अधिक कहने की जरूरत नहीं है।
कहने का अभिप्राय यह है कि हम आम आदमी के रूप में यह मानते रहें कि पाकिस्तान का आम आदमी हमारा शत्रु है मगर खास लोगों के लिये समय के अनुसार रुख बदलता रहता है। एक प्रतिष्ठत अखबार में पाकिस्तान की एक लेखिका का लेख छपता रहता है। उससे वहां का हालचाल मालुम होता है। वहां आतंकवाद से आम आदमी परेशान है। भारत की तरह वहां भी महंगाई से आदमी त्रस्त है। हिन्दूओं के वहां हाल बहुत बुरे हैं पर क्या गैर हिन्दू वहां कम दुःखी होगा? ऐसा सोचते हुए एक देश के दो में बंटने के इतिहास की याद आ जाती है। अपने पूर्वजों के मुख से वहां के लोगों के बारे में बहुत कुछ सुना है। बंटवारे के बारे में हम लिख चुके हैं और एक ही सवाल पूछते रहे हैं कि ‘आखिर इस बंटवारे से लाभ किनको हुआ था।’ जब इस पर विचार करते हैं तो कई ऐसे चित्र सामने आते हैं जो दिल को तकलीफ देते हैं। एक बाद दूसरी भी है कि पूरे विश्व के बड़े खास लोग आर्थिक, सामाजिक, तथा धार्मिक उदारीकरण के लिये जूझ रहे हैं पर आम आदमी के लिये रास्ता नहीं खोलते। पैसा आये जाये, कलाकर इधर नाचें या उधर, और टीम यहां खेले या वहां फर्क क्या पड़ता है? यह भला कैसा उदारीकरण हुआ? हम तो यह कह रहे हैं कि यह सभी बड़े लोग वीसा खत्म क्यों नहीं करते। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो उसके नियमों का ढीला करें। वह ऐसा नहीं करेंगे और बतायेंगे कि आतंकवादी इसका फायदा ले लेंगे। सच्चाई यह है कि आतंकवादियों के लिये कहीं पहुंचना कठिन नहीं है पर उनका नाम लेकर आम आदमी को कानूनी फंदे में तो बंद रखा जा सकता है। कुल मिलाकर भारत पाकिस्तान ही नहीं बल्कि कहीं भी किन्हीं देशों की दोस्ती दुश्मनी केवल आम आदमी को दिखाने के लिये रह गयी लगती है। उदारीकरण केवल खास लोगों के लिये हुआ है। अगर ऐसा नहीं होता तो भला आई.पी.एल. में पाकिस्तान के खिलाड़ियों की नीलामी पर इतनी चर्चा क्यों होती? एक बात यहां उल्लेख करना जरूरी है कि क्रिक्रेट की अंतर्राष्ट्रीय परिषद के अध्यक्ष के अनुसार इस खेल को बचाने के लिये भारत और पाकिस्तान के बीच मैच होना जरूरी है। इस पर फिर कभी।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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ज़िन्दगी के देखे दो ही रास्ते-हिंदी कविता (zindagi ke do raste-hindi poem)


ज़िन्दगी के देखे दो ही रास्ते
एक बागों की बहार
दूसरा उजाड़ की कगार का.

चलती है टांगें
मकसद तय करता है मन
दुश्मन की शान में गुस्ताखी करना
या तारीफ के अल्फाज़ कहकर
दिल खुश करना यार का..

फिर भी समझ का फेर तो
होता है इंसान में अलग अलग
कहीं रौशनी देखकर अंगारों में
अपने पाँव जला देता है
कहीं प्यार के वहम में
अपनी अस्मत भी लुटा देता है
जिंदगी है उनकी ही साथी
जो आगे कदम बढ़ाने से पहले
अनुमान कर लेता है
समय और हालत की धार का..

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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अनंत शब्दयोग को ऐलेक्सा ने दिया आठवां नंबर-संपादकीय (anant shabdyog trafic rank 8)


यह दिलचस्प भी और अविश्वसनीय भी। अक्सर ब्लाग लेखक अपने ब्लाग के लिये ऐलेक्सा का प्रमाण देते हैं। इस लेखक ने भी वहां कई बार देखा है तो उसके ब्लाग हमेशा पिछड़े रहते हैं। मगर यह सबसे पुराना ब्लाग है ‘अनंत शब्दयोग’ जिसके बारे में एलेक्सा हमेशा कहता है कि इसके लिये डाटा उपलब्ध नहीं है। लेखक ने भी मान लिया कि उस पर बहुत लिखा जाता है इसलिये उसकी स्थिति यही हो सकती है। मगर ‘दीपक भारतदीप’ के नाम से सर्च करते हुए इस ब्लाग पर नजर पड़ी। वह वल्र्ड डोमेज से जुड़ा हुआ था। वहां खोलने पर पता लगा कि एलेक्सा में इसकी ट्रेफिक रैकिंग आठ है। लिंक 9 नंबर भी दिया था। जब एलेक्सा पर देखा गया तो फिर वही पुराना जवाब दिया गया।
बहरहाल हम यहां लिंक दे रहे हैं।

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ऐसा लगता है कि एलेक्सा बहुत ऊंची रैकिंग देता नहीं है या हम से ही कोई गलती हो गयी है। अलबत्ता हिंदी के ब्लाग लेखक लिखते हैं कि एक लाख की संख्या से अगर कोई नीचे हिंदी ब्लाग हो तो उसे भी अच्छा माना जाना चाहिये मगर यह तो दो अंकों से भी कम है। हम यहां दो लिंक दे रहे हैं। सुधि पाठक और ब्लाग लेखक इसे चेक करें। लेखक का यह दावा कतई नहीं है कि यह हिंदी का सबसे लोकप्रिय ब्लाग है क्योंकि इस अंतर्जाल की माया ही कुछ ऐसी है कि समझ में तो हमारे भी नहीं आती। बहरहाल यह आंकड़ा दिलचस्प है और इसे हम अपने मित्रों से ही बांट रहे हैं पर इस पर अभिभूत कतई नहीं है। अगर गलती हो जाये तो मजाक न बनायें यही अपेक्षा है। अगर यह सही है तो फिर लिखने लायक बहुत कुछ हमारे पास है वह भी लिख देंगे। नहीं तो यह पाठ यहां नहीं रहने देंगे। अपनी बेवकूफी कौन जगजाहिर करता है। यहां यह भी बता दें कि अभी हाल ही में एक पौर्न बेवसाईट को प्रतिबंधित किया गया था उसकी भी हमने एलेक्सा वाली रैकिंग एक जगह लिखी देखी थी 1124। ऐसे में इस ब्लाग की रैकिंग हमें चौंका सकती है।
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वैसे हम उस ब्लाग शब्दलेख सारथी की भी जानकारी दे रहे हैं जिससे हम सबसे अधिक हिट समझते हैं पर ऐलेक्सा में उसकी रैकिंग 81,50,877 है और दोनों ही वेबसाईट उसे प्रमाणित कर रही है। एक सवाल यह भी है कि क्या ऐलेक्सा उच्च रैकिंग वाले ब्लाग की जानकारी स्वयं कोई नहीं देता और दूसरों को कैसे जाती हैं। बहरहाल विस्तृत जानकारी मिल जाये तो आगे कुछ लिखे।
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यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेखक के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
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4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका

बड़ा कौन, कलम कि जूता-हास्य व्यंग्य


देश के बुद्धिजीवियों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया था। गोलमेज सम्मेलन का विषय था कि ‘जूता बड़ा कि कलम’। यह सम्मेलन विदेश में एक बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूते उछालने की घटना की पृष्ठभूमि में इस आशय से आयोजत किया गया था कि यहां के लोग इस बारे में क्या सोचते हैं? जाने माने सारे बुद्धिजीवी दौड़े दौड़े चले जा रहे थे । एक बुद्धिजीवी तो घर से एक ही पांव में जूता पहनकर निकल गये उनको दूसरा पहनने का होश ही नहीं रहा। रास्ते चलते हुए एक आदमी ने टोका तो वह कहने लगे-‘तुम देश के आम लोग भी निहायत जाहिल हो। तुम मेरे पांव के जूते देखने की सोच भी पा रहे हो यह देखकर ताज्जुब होता है। अरे, अखबार या टीवी नहीं देखते क्या? विदेश में जूता फैंकने की इतनी बड़ी घटना हो गयी और हमें उसी पर ही सोचना है। मैंने एक ही पांव में जूता पहना है पर यह कोई एतिहासिक घटना नहीं है और इस पर चर्चा मत करो।’

कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्धिजीवियों के लिये यह एक ऐसा विषय था जिसमें उनकी जमात का ही आदमी जूता फैंकने की घटना में शामिल पाया गया था वैसे तो अपने देश में जूतमपैजार रोज होती है पर बुद्धिजीवियों का काम लिखने पढ़ने और भाषण तक ही सीमित होता है। केाई भला काम हो बुरा उनकी दैहिक सक्रियता स्वीकार नहीं की जातीं। पश्चिम से आयातित विचारों पर चलने वाले बुद्धिजीवियों ने स्वयं ही यह बंदिश स्वीकार की है और किसी बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूता उछालने की घटना देखकर अब यह प्रश्न उठा था कि क्या वह अपनी इस राह में बदलाव करें। क्या मान लें कि बुद्धिजीवी को कलम के अलावा जूता भी उठाना चाहिये। अगर कहीं ऐसी घटना देश में हेाती तो शायद बुद्धिजीवी विचार नहीं करते मगर यह धटना पश्चिम दिशा से आयी थी इसलिये विचार करना जरूरी था। अपने देश का कोई बुद्धिजीवी होता तो सभी एक स्वर में उसकी निंदा करते या नहीं भी करते। निंदा करते तो उस बुद्धिजीवी को प्रचार होता इसलिये शायद अनदेशा करना ही ठीक समझते या फिर कह देते कि यह तो बुद्धिजीवी नहीं बल्कि एक साधारण आदमी है। विदेश में वह भी पश्चिम में कुछ हो तो यहां का बुद्धिजीवी उछलने लगता है।

सम्मेलन शुरू हुआ। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस कृत्य की घोर निंदा की तो कुछ ने प्रशंसा। प्रशंसकों का मानना था कि यह बुद्धिजीवी के देश के आक्रोश का परिणाम है। विरोधियों ने पूछा कि ‘जब अपने पास कलम हैं तो फिर जूते से विरोध प्रदर्शन करना ठीक कैसे माना जा सकता है?’
जूता फैंकने के प्रशंसकों ने कहा-‘लिखे हुऐ का असर नहीं होता तो क्या करेें?’

विरोधियों ने कहा-‘तो ऐसा लिखो कि कोई दूसरा जूता उछाले।’
प्रशंसकों ने कहा-‘अगर कोई दूसरा जूता न उछाले तो आखिर क्या किया जाये?‘
विरोधियों ने कहा-‘अगर आपके लिखे से समाज में कोई दूसरा व्यक्ति सरेराह जूते उछालने को तैयार नहीं है तो फिर उसके लिये लिखने से क्या फायदा?’
प्रशंसकों ने कहा-‘अरे वाह! तुम तो हमारा लिखना ही बंद करवाओगे। तुम पिछडे हुए हो और तुम जानते नहीं कि अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवी को एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता उठाना चाहिये।’
यह सुनकर एक पांव में जूता पहनकर आये बुद्धिजीवी को जोश आ गया और उसने अपने पांव से जूता उतार कर हाथ में लिया और चिल्लाया-‘ऐसा करना चाहिये।’
प्रशंसक और विरोधी दोनों खेमों में डर फैल गया। पता नहीं वह कहीं उछाल न बैठे-यह सोचकर लोग जड़वत् खड़े हो गये। सभी को पता था कि अगर उसने जूता उछाला तो वह हीरो बन जायेगा और जिसको पड़ा वह खलनायक कहलायेगा।’
कमबख्त वह आम आदमी भी उस बुद्धिजीवी के पीछे यह जिज्ञासा लेकिर आया कि ‘आखिर यह आदमी कहां जा रहा है और क्या करेगा’ यह चलकर देखा जाये। तय बात है कि आम आदमी ही ऐसा सोचता और करता है कोई बुद्धिजीवी नहीं।

उसने जब यह देखा तो चिल्लाया-‘अरे, यह तो इस कार्यक्रम के न्यौते से ही इतना खुश हो गये कि एक जूता पहनकर चले आये दूसरा पहनना भूल गये-यह बात रास्ते में इन्होंने स्वयं बतायी। अब वह जूता इसलिये पांव से उतार लिया कि कोई पूछे भी नहीं हीरो भी बन जायें। इस एक जूते को लेकर कब तक पहनकर चलते और हाथ में लेते तो लोग अनेक तरह के सवाल करते। अब कौन पूछेगा कि यह एक जूता लेकर कहां घूम रहे हो? यह बोल देंगे कि ‘बुद्धिजीवियों के हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता लेने का नया रिवाज शुरू हो गया है।’

उस बुद्धिजीवी को ताव आ गया और उसने वह जूता उस आम आदमी की तरफ ऐसे उछाला जैसे कि उसे लगे नहीं-यानि एक प्रतीक के रूप में! वह भी उस्ताद निकला उसने जूता ऐसे ही लपका जैसे क्रिकेट में स्लिप में बायें तरफ झुककर कैच लिया जाता है और भाग गया।

गोलमेज सम्मेलन में कोहराम मच गया। विरोधियों ने उस जूता फैंकने वालूे बुद्धिजीवी की निंदा की तो प्रशंसकों ने भी उसे फटकारा-‘शर्म आनी चाहिये एक आम आदमी पर जूता फैंकते हुए। वह चालाक था इसलिये लेकर भाग गया। बचने की कोशिश करता नजर भी नहीं आया जैसे कि विदेश में हुई घटना में नजर आया है। किसी खास आदमी पर फैंकते तो कुछ एतिहासिक बन जाता। हमने जो विदेश का दृश्य देखा है उससे यह दृश्य मेल नहीं खाता।’

बहरहाल बहस जारी थी। कोई निष्कर्ष नहीं निकला। कई दिन तक बहस चली। अनेक लोग उस पर अपने विचार लिखते रहे। कोई समर्थन करता तो कोई विरोध। आखिर उसी आम आदमी को बुद्धिजीवियों पर दया आ गयी और वह वहां इस सम्मेलन में आया। उसके हाथ में वही जूता था। उसे देखकर सब बुद्धिजीवी भागने लगे। सभी को लगा कि वह मारने आ रहा है। हर कोई यही सोचकर बच रहा था कि ‘दूसरे में पड़े जाये पर मैं बच जांऊ ताकि अगर घटना ऐतिहासिक हो तो उस लिखूं। आखिर एक आम आदमी द्वारा बुद्धिजीवी पर जूता बरसना भी एक एतिहासिक घटना हो सकती थी।

वह आम आदमी ढूंढता हुआ उस बुद्धिजीवी के पास पहूंचा जिसका जूता लेकर वह भागा था और बोला-‘मैं आपका जूता ले गया पर बाद में पछतावा हुआ। मैंने अपनी पत्नी को बताया कि यह जूता एक बुद्धिजीवी ने मेरी तरफ उछाला तो वह बोली कि इससे तुम खास आदमी तो नहीं हो गये! जाओ उसे वापस करे आओ। कहीं उसकी पत्नी उसे डांटती न हो।’

बुद्धिजीवियों में से एक ने पूछा-‘तुम्हें यहां आते डर नहीं लगा यह सोचकर कि ं कोई तुम पर जूता न फैंके।’
आम आदमी ने कहा-‘यह सोचा ही नहीं, क्योंकि आप लोग बिना प्रस्ताव पास हुए कुछ नहीं करते और ऐसी कोई खबर मैंने अखबार में भी नहीं पढ़ी पर आप लोगों को परेशान देखकर सेाचता हूं कि मैं सामने खड़ा हो जाता हूं आम एक एक कर मेरे ऊपर जूता उछालो पर एक बात याद रखना कि वह मुझे लगे नहीं।’
बुद्धिजीवियों को गुस्सा आ गया और वह चिल्लाने लगे कि-‘तू मक्कान है। ठहर अभी तेरे को जूते लगाते हैें।’

वह आदमी हंसता वहीं खड़ा रहा। सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहते रहे कि -‘इस आदमी को जूता मारो कोई चिंता वाली बात नहीं है।’

कुछ लोग कहने लगे कि-‘इससे क्या? कोई इतिहास थोड़े ही बनेगा। यह तो एक आदमी है। इसको जूता मारने की कोई खबर नहीं छापेगा। फिर हम में से कौन इसे जूते मार यह तय होना है क्योंकि जिसे इस विषय पर लिखना है वह तो जूता फैंककर उसके समर्थन में तो लिख नहीं सकता। यानि जो वही फैंके जो इस विषय पर लिखना नहीं चाहता।’
इस सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहने लगे-तू फैंक जूता मैं तो उस पर लिखूंगा।’
कुछ कहने लगे कि-‘अभी यह तय नहीं हुआ कि बुद्धिजीवी को जूता उठाना चाहिये कि नहीं।’

आम आदमी वहीं खड़ा सब देखता रहा। वह इंतजार करता रहा कि कब उस पर कौनसा सर्वसम्मत प्रस्ताव पास होता है। वह कई चक्कर लगा चुका है पर अभी भी वह यह जानना चाहता है कि‘बुद्धिजीवी को कलम के साथ जूता भी चलाना चाहिये कि नहीं।’
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