Category Archives: हिंदी

फसाद फिक्सिंग-हिन्दी हास्य व्यंग्य (fasad-hindi comic story)


वह समाज सेवक निठल्ले घूम रहे थे। दरअसल अब कंप्यूटर और इंटरनेट आने से चंदा लेने देने का धंधा आनलाईन हो गया था और वह इसमें दक्ष नहीं थे। फिर इधर लोग टीवी से ज्यादा चिपके रहते हैं इसलिये उनके कार्यक्रमों के बारे में सुनते ही नहीं इसलिये चंदा तो मिलने से रहा। पहले वह अनाथ आश्रम के बच्चों की मदद और नारी उद्धार के नाम पर लोगों से चंदा वसूल कर आते थे। पर इधर टीवी चैनलों ने ही सीधे चैरिटी का काम करने वाले कार्यक्रम प्रस्तुत करना शुरु कर दिये हैं तो उनके चैरिटी ट्रस्ट को कौन पूछता? इधर अखबार भी ऐसे समाज सेवकों का प्रचार नहीं करते जो प्रचार के लिये तामझाम करने में असमर्थ हैं।
उन समाज सेवकों ने विचार किया कि आखिर किस तरह अपना काम बढ़ाया जाये। उनकी एक बैठक हुई।
उसमें एक समाज सेवक को बहुत तीक्ष्ण बुद्धि का-सीधी भाषा में कहें तो शातिर- माना जाता था। उससे सुझाव रखने का आग्रह किया गया तो वह बोला-आओ, दंगा फिक्स कर लें।
बाकी तीनों के मुंह खुले रह गये।
दूसरे ने कहा-‘पर कैसे? यह तो खतरनाक बात है?
पहले ने कहा-‘नहीं, दंगा नहीं करना! पहले भी कौनसा सच में समाज सेवा की है जो अब दंगा करेंगे! बस ऐसे तनावपूर्ण हालत पैदा करने हैं कि दंगा होता लगे। बाकी काम मैं संभाल लूंगा।’
तीसरे ने पूछा-‘ पर इसके लिये चंदा कौन देगा।’
पहले ने कहा-‘अरे, इसके लिये परेशान होने की जरूरत नहीं है। हमारे पूर्वज समाज को टुकड़ों में केक की तरह बांट कर रख गये हैं बस हमें खाना है।’
तीसरे ने कहा-‘मगर, इस केक के टुकड़ों में अकल भी है, आखें भी हैं, और कान भी हैं।’
पहला हंसकर बोला-‘यहीं तो हमारी चालाकी की परीक्षा है। अब करना यह है कि दूसरा और तीसरा नंबर जाकर अपने समाजों में यह अफवाह फैला दें कि विपक्षी समाज अपने इष्ट की दरबार सड़क के किनारे बना रहा है। उसका विरोध करना है। सो विवाद बढ़ाओ। फिर अमन के लिये चौथा दूसरे द्वारा और पहले के द्वारा आयोजित समाज की बैठकों मैं जाऊंगा। तब तक तुम दोनो गोष्ठियां करो तथा अफवाहें फैलाओ। समाज के अमीर लोगों के वातानुकूलित कमरों में बैठकें कर उनका माल उड़ाओ। पैसा लो। सप्ताह, महीना और साल भर तक बैठकें करते रहो। कभी कभी मुझे और चौथे नंबर वाले को समाज की बैठकों बुला लो। पहले विरोध के लिये चंदा लो। फिर प्रस्ताव करो कि उसी सड़क के किनारे दूसरे समाज के सामने ही अपने इष्ट का मंदिर बनायेंगे। हम दोनों हामी भरेंगे। संयुक्त बैठक में भले ही दूसरे लोगों को बुलायेंगे पर बोलेंगे हम ही चारों। समझौता करेंगे। दोनों समाजों के इष्ट की दरबार बनायेंगे। फिर उसके लिये चंदा वसूली करेंगे।’
दूसरे ने कहा-‘पर हम चारों ही सक्रिय रहेंगे तो लोगों का शक होगा।’
पहला सोच में पड़ गया और फिर बोला-‘ठीक है। पांचवें के रूप में हम अपने वरिष्ठ समाज सेवक को इस तरह उस बैठक में बुलायेंगे जैसे कि वह कोई महापुरुष हो। लोगों ने उनके बारे में सुना कम है इसलिये मान लेंगे कि वह कोई निष्पक्ष महापुरुष होंगे।’
तीसरे ने कहा-‘पर सड़कों का चौड़ीकरण हो रहा है। अब इतना आसान नहीं रहा है अतिक्रमण करना। अदालतें भी ऐसे विषय पर सख्त हो गयी हैं। कहीं फंस गये तो। इसलिये किसी भी समाज के इष्ट का दरबार नहीं बनेगा।’
पहला हंसकर बोला-‘इसलिये ही मुझे तीक्ष्ण बुद्धि का माना जाता है। अरे, दरबार बनाना किसे है। सड़क पर एक कंकड़ भी नहंी रखना। सारा झगड़ा फिक्स है इसलिये दरबार बनाने का सपना हवा में रखना है। बरसों तक मामला खिंच जायेगा। हम तो इसे समाजसेवा में बदलकर काम करेंगे। अब बताओ कपड़े, बर्तन तथा किताबें गरीबों और मजदूरों में बांटने के लिये कितना रुपया लिया पर एक पैसा भी किसी को दिया। यहां एक पत्थर पर भी खर्च नहीं करना। सड़क पर एक पत्थर रखने का मतलब है कि दंगा करवाना। जब पानी सिर के ऊपर तक आ जाये तब कानूनी अड़चनों का बहाना कर मामला टाल देंगे। फिर कहीं   किसी दूसरी जगह कोई नया काम हाथ में लेंगे। अब जाओ अपनी रणनीति के अनुसार काम करो।’
चारों इस तरह तय झगड़े और समझौते के अभियान पर निकल पड़े।

सूचना-यह लघु व्यंग्य काल्पनिक है तथा इसे मनोरंजन के लिये लिखा गया है। इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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वह पर्स-हिन्दी हास्य व्यंग्य


एक बेजान पर्स की भी कहानी हो सकती है! क्यों नहीं, अगर वह सब्जी की तरह कटने का जुमला उस पर फिट हो सकता है तो कोई कहानी भी हो सकती है। पर्स में माल होता है और माल के पीछे धमाल! धमाल पर्स नहीं करता, बल्कि आदमी करते हैं इसलिये कहानी तो बन ही जाती है।
उस दिन वह बालिका अपने पिताजी के साथ हमारे घर के बाहर आटो से उतरी। मोबाइल से से पिता पुत्री के आने की खबर मिल गयी सो हम उनका इंतजार कर रहे थे।
उसके पिता से हमसे हाथ मिलाया उन्होंने अपने पर्स से सौ का नोट उसकी तरफ बढ़ाया तो वह बोला-‘साहब खुला साठ रुपया दो।’
हमने अपना पर्स खोला और उसमें से साठ रुपया निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया।
पिता पुत्री दोनों घर के अंदर दाखिल होने लगे। बालिका ने कहा-‘वाह मौसा जी, अब तो आपने नया पर्स ले ही लिया। पहले हमारे यहां कितना पुराना पर्स ले आये थे। मैंने आपको टोका था न! इसलिये नया खरीदा होगा।’
हमने कहा-‘नहीं! पुराना कट गया तो नया खरीदना पड़ा।’
बालिका भौचक्की रह गयी-‘कब कटा! उसमें कितने पैसा थे।’
हमने कहा-‘नहीं, उसमेें दस या पंद्रह रुपया था। सबसे खुशी इस बात की है कि तुम्हारे घर से आते समय मैंने अपना ए.टी.एम. कार्ड अपनी शर्ट की जेब में रख लिया था।’
बालिका घर के अंदर दाखिल हुई तो हमारे घर में जान पहचान की एक महिला जो उस समय श्रीमतीजी से मिलकर बाहर जा रही थीं बालिका को देखते ही बोली-‘ तुम आ गयी अपने मौसी और मौसा को लेने। कब ले जायेगी?’
उसके पिता या चाचा हमारे पास छोड़ जाते थे और हम उसे छोड़ने मथुरा जाते थे। यह क्रम कई बरसों से चलता रहा है इसलिये उसके आने का मतलब यही होता है कि हम जरूरी उसे छोड़ने मथुरा जायेंगे।
बालिका ने कहा-‘हां, इस बार केवल सात दिन ही रहूंगी। मेरे अगले सोमवार से पेपर है। आज शुक्रवार है और अगले शुक्रवार चली जाऊंगी।’
हमने सिर खुजलाया, क्योंकि हम अगले सप्ताह सफर करने में मूड में नहीं थे। अलबत्ता अनेक बार अपने मन के विपरीत भी चलना ही पड़ता है।
सोमवार सुबह उसने याद दिलाया कि ‘शुक्रवार को मथुरा चलना है। ताज की टिकिट रिजर्व करवा लें।’
पहले छोटी थी तो वह इतने अधिकार से बात नहीं कहती थी पर बड़ी और सयानी होने के कारण अब उसमें दृढ़ता भी आ गयी थी। सोमवार को हम टिकिट नहीं करवा सके। मंगलवार को जाकर करवा ली।
रात को आकर अपने पर्स से टिकिट निकाला और उससे कहा कि‘सभाल कर रखना।’
सब कुछ ठीक ठाक था। वैसे मथुरा कई बार रेल की सामान्य बोगी में बैठकर अनेक बार सफर किया है पर वह हमेशा मुश्किल रहा है। दो बार आगरा में हमारी जेब कट चुकी है। फिर सामान्य बोगी में भीड़ और रिजर्वेशन डिब्बे में रेल कर्मचारियों से विवाद करने की परेशानियेां से बचने का हमें एक ही उपाय नजर आया कि ताज से ही यात्रा की जाये। वैसे मथुरा वृंदावन की यात्रा करने में हमको मजा आता है पर बीच की परेशानी दुःखदायी यादें बन जाती हैं। टिकिट रिजर्व करवाकर हम निश्चिंत हो गये कि यात्रा सुखदायी होगी, मगर यह केवल सोचना ही था!
जाने के एक दिन पहले बालिका की उससे उम्र में बड़ी एक सहेली का फोन आया कि वह भी उसके साथ चलेगी। बालिका ने हामी भर दी।
रात को उसने बताया कि ‘उसकी सहेली का पति उसे छोड़ने आयेगा। वैसे तो वह अकेली भी चली जाती पर उसके साथ छोटा बच्चा है इसलिये मेरी मदद ले रही है।
हमारा माथा ठनका। हमने कहा-‘देखो, हमारी टिकिट रिजर्व है और मैं नहीं चाहता कि उसकी वजह से टिकिट चेकरों से लड़ता फिरूं। ग्वालियर में तो ठीक है पर आगरा में उनसे जूझना पड़ता है।’
बालिका ने कहा-‘उसका पति भी टिकिट रिजर्वेशन कराकर देगा।’
हमने चुप्पी साध ली।
अगले दिन हम शाम को अपने बालिका तथा श्रीमतीजी के साथ घर से निकले। हमने अपना पर्स देखा। उसमें कुछ पांच और दस के नोट थे। अपना ए. टी. एम. निकाल कर शर्ट की जेब में रखा। कुछ चिल्लर जेब में रखी ताकि कहीं पैसा निकालने के लिये पर्स न निकालना पड़े। स्टेशन पर पहुंचने से पहले ही आटो के पैसे भी जेब से निकाल लिये।
स्टेशन पर उसकी सहेली का पति अपनी पत्नी को छोड़ने आया। दोनोें सहेलियां मिली। उसके पति ने एक टिकिट देकर मुझसे कहा कि ‘यह लीजिये आज ही रिजर्व करवाई है।’
मैंने टिकिट में बोगी का नंबर देखा तो मेरा माथा ठनका। वह हमारी बोगी से बहुत दूर थी। मैंने वह टिकिट अपने रखने के लिये पर्स निकाला और उसमें रखा। तत्काल मुझे अपने पर्स निकालने का पछतावा भी हुआ पर सोचा कि ‘यह तो ग्वालियर है? यहंा कभी पर्स नहीं कटा। इसलिये चिंता की बात नहीं।’
मैंने उसके पति से कहा कि ‘यह तीनों एक साथ बैठ जायेंगी। मैं उसकी जगह पर बैठ जाऊंगा।’
उसने कहा-‘नहीं आप साथ ही बैठना। टीसी से कहना तो वह एडजस्ट कर देगा।’
गाड़ी आयी हम उसमें चढ़े। उसकी सहेली अपने नवजात शिशु के साथ ढेर सारा सामान भी ले आयी थी। उसका सामान चढ़ाने की जल्दी में हम यह भूल गये कि एक अदद पर्स की रक्षा भी करना है।’
अंदर बोगी में पहुंचे तो टिकिट का ख्याल कर हमने पीछे पर्स वाली जगह पर हाथ मारा। वह नदारत था। वह हम चिल्लाये क्योंकि गाड़ी चलने वाली थी और बालिका की सहेली का टिकिट उसी में था।
हमारी आवाज सुनकर वहीं खड़े एक आदमी ने पास ही एक लड़के को पकड़ा और कहा-‘शायद, इसने काटा हो। क्योंकि यह आपके पास आने के बाद बाहर भागने की तैयारी में है।’
लड़का हाथ छुराकर भागा पर बोगी के बाहर ही खड़े सहेली के पति के साथ आये एक मित्र ने जो यह माजरा देख रहा था उसे पकड़ लिया। हमने उसकी तलाशी ली। वह भी ललकार रहा था कि ‘ले लो मेरी जेब की तलाशी।’
वाकई उसकी जेबों में हमारा पर्स नहीं था।
हमारा मन उदास होते होते हाथ उसके पेट पर चले गये। जहां ठोस वस्तु का आभास होने पर हमने वहीं हाथ डाला। हमारा पर्स आ हमारे हाथ में आ गया।
हमने तत्काल उसे अपने हाथ में लिया और ट्रेन में चढ़ आये और वह चल दी।
हमने देखा कुछ दूसरे लोग उसे मार रहे थे। यह माजरा उत्तर प्रदेश का एक सिपाही देख रहा था वह बोला-‘देखो, अब उसके लोग ही दिखाने के लिये मार रहे हैं ताकि दूसरे लोग न मारें।
हमें पर्स से ज्यादा इस बात की खुशी थी कि हमें रेल्वे के कर्मचारियों के सामने चोर नहीं बनना पड़ेगा।
हमारे यहां सुबह लाईट जाने के बाद तब आती है जब हम घर से बाहर निकलने वाले होते हैं। कभी हमारे निकलने से पहले आती है तो अपना ईमेल देख लें। अक्सर नहीं होता पर जब होता है तो हम अपनी जेबें ढंग से देखना भूल जाते हैं। कई बार तो पर्स बाहर स्कूटर पर बैठकर यात्रा करता हुआ मिलता है। उस दिन ऐसा ही हुआ।
हमारी मोबाइल की घंटी बजी। हमारे एक मित्र का था। उसने पूछा‘तुम्हारा पर्स कहां है?’
हमने अपनी जेब पर हाथ फिराया। रास्ते में वह किसी आटो वाले को मिला था जिसने उसमें से एक कागज पर मित्र का नंबर देखकर फोन किया था। उस आटो वाले के मोबाइल पर हमने फोन किया और उससे कहा कि ‘आप, पता दें तो समय मिलने पर मैं ले जाऊंगा। उसमें ए.टी.एम. को छोड़कर कोई खास चीज नहीं है। पैसे तो शायद ही हों!’
उसने कहा कि ‘आप अपना पता दें।’
हमने उसे पता दिया तो वह कहने लगा कि ‘आप उस इमारत के बाहर खड़े हो जाईये मेरे पास उधर की ही सवारी है।’
हमारे साथ खड़े एक दोस्त ने कहा-‘देखो भलाई करने वाले आज भी लोग हैं।’
हम दोनों उस इमारत के बाहर होकर उस आटो वाले का इंतजार करते रहे।
उसका नंबर हमारे पास था। वह आया तो हमने उसके नंबर से पहचान लिया।
उसके साथ बैठा एक लड़का उतरा और बोला-‘लीजिये अपना पर्स! इसमें पैसा एक भी नहीं था। आपका ए.टी.एम किसी दूसरे के हाथ लग जाता तो वह आपका नुक्सान कर सकता था। इसलिये आप हमें दो सौ रुपये दो।’
मेरे दोस्त का गुस्सा आ गया। उसने कहा-‘अरे किसे चला रहे हो। चलो हमारे सामने निकाल कर बताओ ए.टी.एम. से पैसे! यह बैंक पास में ही है। अभी जाकर कैंसिल करा देते। वैसे भी यह ए.टी.एम. पुराना हो चुका है हम इसे बदलवाने वाले हैं।’
मैंने उसे पचास रुपये देने चाहे तो उसने नहीं लिये। सौ रुपये दिये तो नानुकर करने लगा। अंदर से आटो वाला बोला-‘अरे साहब दो सौ रुपया दो। अगर हम यह पर्स अपने पास रख लेते तो!
मैंने हंसकर कहा‘मैं तो कुछ नहीं करता। मगर याद रखना इस पर्स को रखने पर एक आदमी रेल्वे स्टेशन पर पिट चुका है। वैसे यह पर्स चार बार खो चुका हूं पर हर बार वापस आता है। आना तो इसे मेरे पास ही था, अलबत्ता संभव है तुम नहीं तो कोई और लाता। हां, इसकी तुम्हें क्या सजा मिलती पता नहीं। यह लो सौ रुपये और चलते बनो।’
बाद में दोस्त बोला-‘यार, इससे अच्छा तो पर्स वापस लेते ही नहीं। नया ए.टी.एम बनवा लेते।’
मैंने उससे कहा-‘सच तो यह है कि इज्जत का सवाल है। उसने हमारा नाम पता तो ले ही लिया था। दस लोगों को पर्स देखकर बताता कि देखो ऐसे भी लोग हैं जिनके पर्स में एक पैसा भी नहीं होता। यह सबूत वापस लेने के लिये मैंने ऐसा किया।’

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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ज़िन्दगी के देखे दो ही रास्ते-हिंदी कविता (zindagi ke do raste-hindi poem)


ज़िन्दगी के देखे दो ही रास्ते
एक बागों की बहार
दूसरा उजाड़ की कगार का.

चलती है टांगें
मकसद तय करता है मन
दुश्मन की शान में गुस्ताखी करना
या तारीफ के अल्फाज़ कहकर
दिल खुश करना यार का..

फिर भी समझ का फेर तो
होता है इंसान में अलग अलग
कहीं रौशनी देखकर अंगारों में
अपने पाँव जला देता है
कहीं प्यार के वहम में
अपनी अस्मत भी लुटा देता है
जिंदगी है उनकी ही साथी
जो आगे कदम बढ़ाने से पहले
अनुमान कर लेता है
समय और हालत की धार का..

——————
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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आस्तिक, नास्तिक और स्वास्तिक- (हास्य व्यंग्य)


सच बात तो यह है कि दुनियां विश्वास के आधार पर तीन भागों में बंटी हुई हैं-आस्तिक,नास्तिक और स्वास्तिक। आस्तिक और नास्तिकों में बीच बरसों से संघर्ष चलता रहा है। एक कहता है कि इस दुनियां का संचालन करने वाला कोई सर्वशक्तिमान है-उसका नाम हर धर्म,भाषा,जाति और क्षेत्र में अलग है। दूसरा कहता है कि ऐसा कोई सर्वशक्तिमान नहीं है बल्कि यह दुनियां तो अपने आप चल रही है। इनसे परे होते हैं ‘स्वास्तिक’। हम भारत के अधिकतर लोग इसी श्रेणी में हैं और सर्वशक्तिमान के होने या न होने की बहस में समय जाया करना बेकार समझते हैं। इस मान्यता में वह लोग हैं जो मानते हैं कि वह तो अपने अंदर ही है और हम उस सर्वशक्तिमान को धारण करना हैं-बाहर उसका अस्तित्व ढूंढना समय जाया करना है। इसी श्रेणी में दो वर्ग हैं एक तो वह जो ज्ञानी हैं जो हमेशा इस बात को याद करते हैं और दूसरे सामान्य लोग हैं जो यह बात मानते तो हैं पर फिर भूले रहते हैं। ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक हैं और आस्तिक और नास्तिक अपनी बहसों से उन्हेें बरगलाते रहते है।

अधिक संख्या होने के कारण एक स्वास्तिक दूसरे स्वास्तिक की इज्जत नहीं करता-यहां यह भी कह सकते हैं कि जिस वस्तु की मात्रा बाजार में अधिक होती है उसकी कीमत कम होती है। फिर अब तो विश्व में बाजार का बोलबाला है इसलिये समाज में चमकते हैं तो बस आस्तिक और नास्तिक। स्वास्तिक का किसी से कोई द्वंद्व नहीं होता इसलिये बाजार में नहीं बिकता। बाजार में केवल केवल विवाद बिकता है और आस्तिक और नास्तिक ही उसका निर्माण करते हैं।

आस्तिक चिल्ला चिल्ला कर कहते हैं कि ‘सर्वशक्तिमान है’ तो नास्तिक भी खड़ा होता है कि ‘सर्वशक्तिमान नहीं है’। भीड़ उनकी तरफ देखने लगती है। आस्तिक अपने हाथ में धार्मिक प्रतीक चिन्ह रख लेेते हैं। कपड़ों के रंग अपने धर्म के अनुसार
तय कर पहनते हैं। नास्तिक भी कम नहीं है और वह सर्वशक्तिमान का अस्तित्व नकार कर समाज-जिसका अस्तित्व केवल संज्ञा के रूप में ही है-को अपना कल्याण करने के लिये नारे लगाते हैं।

कहते हैं कि मनुष्य अपने मन, बुद्धि और अहंकार के वशीभूत होकर चलता है। चलने की यही मजबूरी नास्तिकों को किसी न किसी नास्तिक विचाराधारा से जुड़ने को विवश करती है।
आस्तिक धार्मिक कर्मकंाड करते हुए पूरे विश्व में कल्याण करने के लिये निकल पड़ते है। कोई पुस्तक और उसमें लिखे शब्दों को सीधे सर्वशक्तिमान के मुखारबिंद से निकला हुआ बताते हुए उसके अनुसार धार्मिक क्रियाओं के लिये सामान्य जन-स्वास्तिक श्रेणी के लोग- को प्रेरित करते हैं। जो ज्ञानी स्वास्तिक हैं वह तो बचे रहते हैं पर भुल्लकड़ उनके जाल में फंस जाते हैं। नास्तिक लोग उन्हीं पुस्तकों का मखौल उड़ाते हुए महिलाओं,बालकों,श्रमिकों,शोषितों और बूढ़े लोगों के वर्ग करते हुए उनके कल्याण के नारे लगाते हैं। कहीं कोई घटना हो उसका ठीकरा किसी विचाराधारा की पुस्तक पर फोड़ते है-खासतौर से जिनका उद्गम स्थल भारत ही है। वह क्ल्याण के लिये चिल्लाते हैं पर जब इसके लिये कोई काम करने की बात आती है तो कहते हैं कि यह हमारा काम नहीं बल्कि समाज और सरकार को करना चाहिए।
आस्तिक अपने धार्मिक कर्मकांड करते हुए नास्तिकों को कोसना नहीं भूलते। बरसों से चल रहा यह द्वंद्व कभी खत्म नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि स्वास्तिक लोग अगर सामान्य हैं तो उनको इस बहस में पड़ने में डर लगता है कि कहींे दोनों ही उससे नाराज न हो जायें। जहां तक ज्ञानियों का सवाल है तो उनकी यह दोनों ही क्या सुनेंगे अपने ही वर्ग के सामान्य लोग ही सुनते। हां, आस्तिकों और नास्तिकों के द्वंद्व से मनोरंजन मिलने के कारण वह उनकी तरफ देखते हैं और यहीं से शुरु होता हो बाजार का खेल।

नास्तिकों का पंसदीदा नारा है-नारी कल्याण। दरअसल हमारे देश में लोकतंत्र हैं और प्रचार माध्यमों-टीवी चैनल और अखबार-में स्थान पाने के लिये यह जरूरी है कि नारी कल्याण की बात जोर से की जाये। जब से प्रचार माध्मों का आधुनिकीकरण हुआ यह नारा और बढ़ गया है। वजह अधिकतर पुरुष काम के सिलसिले में घर से बाहर रहते हैं और स्त्रियों घर में अखबार पढ़ती हैं या टीवी देखती हैं। कभी कभी बाल कल्याण की बात भी जोड़ दी जाती है कि इससे नारियों पर दोहरा प्रभाव तो पड़ेगा ही बच्चे भी प्रभावित होकर भाषण, वार्ता और प्रवचन करने वाले का गुणगान करेंगे।

आस्तिकों और नास्तिकों की सोच का कोई ओरछोर नहीं होता। आस्तिक कहते हैं कि सर्वशक्तिमान इस दुनियां में हैं और एक ही है। मगर हैं कहां? यह वह नहीं बताते? सर्वशक्तिमान आकाश में रहता है या पाताल में? कह देंगे सभी जगह है। कोई मूर्तिै बना लेगा तो कोई मूर्ति विरोधी आस्तिक भी होगा। मगर वह भी कोई ठीया ऐसा जरूर बनायेगा जो भले ही पत्थर का बना होग पर उसमें मूर्ति नहीं होगी। मजे की बात यह है कि दोनों ही एक दूसरे पर नास्तिक होने का आरोप लगाते हैं।

नास्तिक कहते हैं कि इस संसार में कोई सर्वशक्तिमान नहीं है। फिर आखिर यह दुनियां चल कैसे रही है? वह बतायेंगे इंसानों की वजह से! मतलब पशु,पक्षी तथा अन्य जीव जंतुओं की सक्रियता का कोई मतलब नहीं है इसलिये उनकी रक्षा की बात भी वह नहीं करते। बस इंसानों का भला होना चाहिये। उनके अनुसार नारी को आजादी, बालकों के बालपन की रक्षा, बूढ़ापे में संतान का सहारा, और शोषित के अधिकार और सम्मान की रक्षा होना चाहिये और वह डंडे के जोर से। सभी जानते हैं कि अभी तक विश्व में कर्मशील पुरुषों का वर्चस्व इसलिये है क्योंकि वह इन इन सभी कर्तव्यों की पूर्ति के लिये श्रम करते हैं और उनके लिये यह नारे सुनने का समय नहीं होता। वह टीवी और अखबारों के साथ उतना समय नहीं बिता पाते इसलिये उनको प्रभावित करने का लाभ नहीं होता। नास्तिक लोग इसलिये केवल उन्हीं वर्गों को लक्ष्य कर अपनी बात रखते हैं जिनको प्रभावित कर अपनी वैचारिक दुकान चलायी जा सकती है।।

आजकल नारी स्वातंत्रय को लेकर अपने देश में बहुत जोरदार बहस चल रही है। इस बहस में आस्तिक अपने संस्कारों और आस्थाओं का झंडा बुलंद कर यह बताते हैं कि हमारे देश में नारियां तो देवी की तरह पूजी जाती हैं। नास्तिक को तो हर कर्मशील पुरुष राक्षस नजर आता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि नास्तिक भले ही सर्वशक्तिमान का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते पर अपने प्रचार के लिये उनको कोई काल्पनिक बुत तो चाहिये इसलिये उन्होंने अन्याय,अत्याचार,शोषण,गरीबी, और बेरोजगारी को खड़ा कर लिया। यह कहना गलत है कि वह किसी में यकीन नहीं करते बस अंतर यह है कि वह उन बुत बने राक्षसों को दिखाकर उनसे मुक्ति के लिये स्वयं सर्वशक्तिमान बनना चाहते हैं।

नास्तिक सर्वशक्तिमान का अस्तित्व को तो खारिज करते हैं पर अपनी देह को तो वह नकार नहीं सकते। पंच तत्वों से बनी इस देह में अहंकार,बुद्धि और मन तीन ऐसी प्रकृतियां हैं जिनसे हर जीव संचालित होता है। फिर यहां अमीर गरीब, शोषक शोषित, और उच्च निम्न वर्ग कैसे बन गये? नास्तिक कहेंगे कि वही मिटाने के लिये तो हम जूझ रहे हैं। मगर अमीर ने गरीब को गरीब, शोषक ने शोषित का शोषण और उच्च वर्ग के व्यक्ति ने निम्म वर्ग के लोगों का अपमान कब और कैसे शुरु किया? इस पर नास्तिक तमाम तरह की इतिहास की पुस्तकें उठा लायेंगे-जिनके बारे में स्वास्तिक ज्ञानी कहते हैं कि उनके सिवाय झूठ के कुछ और नहीं होता। अलबत्ता आस्तिक प्रचार पाने के लिये उन्हीं पुस्तकों में अपने लिये तर्क ढूंढने लगते हैं।

वैसे यह आस्तिक और नास्तिक का संघर्ष भारत के बाहर खूब हुआ है। भारत में लोग स्वास्तिक वर्ग के हैं और यह मानते हैं कि सर्वशक्तिमान का अस्तित्व आदमी के अंदर ही है बशर्ते उसे समझा जाये। मगर विदेशी शिक्षा, रहन सहन और विचारों के साथ यह संघर्ष भी इस देश में आ गया है। यह कारण है कि आस्तिक महिला पुरुष बुद्धिजीवी देश का कल्याण कर्मकांडों में तो नास्तिक केवल नास्तिकता में ढूंढते हैं। हम ठहरे स्वास्तिक तो यही कहते हैं कि स्वास्तिक हो जाओ कल्याण स्वतः‘ होगा। कैसै हो जायें? बहुत संक्षिप्त उत्तर है। जब भी अवसर मिले भृकुटि पर दृष्टि रखकर ध्यान लगाओ। इससे देह के विकार तो निकलते ही हैं उसमें ऐसे तत्व भी निर्मित होते हैं जिसके प्रभाव से शत्रु मित्र बन जाते हैं और विकास के पथ पर अपने कदम स्वतः चल पडते हैं उसके लिये किसी कर्मकांड में पड़ने या कल्याण के नारे में बहने की आवश्कता नहीं है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

आम भक्त,विशिष्ट भक्त-लघु हास्य व्यंग्य


गुरुजी टूथपेस्ट कर रहे थे और खास चेला पास में खड़ा था। गुरुजी ने पूछा-‘बाहर की क्या खबर है?’
चेले ने कहा-‘गुरुजी, आज तो बहुत सारे विशिष्ट भक्त आये हैं। आपसे मिलने को आतुर हो रहे हैं। मैंने सबसे कह दिया कि गुरु जी तो इस समय ध्यान कर रहे हैं। इसलिये देर से दर्शन होंगे।
गुरुजी ने कहा-‘कल तुम्हारे चक्कर में अधिक पी ली तो आज देर से नींद खुली है। अभी चाय पीकर टूथपेस्ट कर रहा हूं। फिर नहाधोकर आता हूं। तब तक लोगों से कहो कि गुरुजी आज खास ध्यान कर रहे हैं। वैसे बाहर कितनी भीड़ है?’
चेले ने कहा-‘भीड़ से क्या मतलब? विशिष्ट भक्तों में पान वाले सेठजी, दारूवाले साहब और कई साहूकार आये हैं। आम भक्त से क्या मिलता है? आप तो पहले विशिष्ट भक्तों से मिलें। मेरे विचार से आम भक्तों से मिलने का आपको आज समय ही नहीं मिल पायेगा। आम भक्तोें से कह देता हूं कि आप आज ध्यान में पूरे दिन लीन रहेंगे।
गुरुजी ने कहा-‘तुम पगला गये हो। हमारे विरोधियों ने कभी हमारे खिलाफ प्रचार किया तो हम अपने आश्रम को कैसे बचायेंगे? हमें तब धर्म पर हमला कहकर बचाने के लिये इन्हीं आम भक्तों की जरूरत पड़ती है। इसलिये उनको भी दर्शन देना जरूरी है। आम भक्त केवल उसी समय संक्रमण काल मेंबरगला कर अपने साथ लाने के लिये है। इसलिये उनको पहले पांच मिनट दर्शन देकर विशिष्ट भक्तों से मिल लेते हैं। उनके लिये तो पूरा दिन है।’
चेला बोला-‘वाह गुरुजी! आप वाकई महान हैं।
गुरु ने कहा-‘अगर ऐसा न होता तो क्या तुम गुरु मानते। आम भक्त तो केवल दिखाने के लिये है। असली काम तो विशिष्ट भक्तों से है। आम भक्त यह देखकर आता है कि हमारे पास विशिष्ट भक्त हैं और विशिष्ट भक्त इसलिये आता है कि इतने सारे आम भक्त हैं। जिनको दोनों का सानिध्य मिलता है उनके ही आश्रम हिट होते हैं नहीं तो फ्लाप शो हो जाता है।
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