Category Archives: समाज

कवि से महाकवि-हिंदी व्यंग्य कविता (kavi se mahakavai-hindi satire poem


सामने से आती
बेईमान हवाओं की
उनको पहचान नहीं
है।
बहने को आतुर
सामना करते हुए
टिकते नहीं
उनकी रीढ़ की
हड्डी में
इतनी जान नहीं
है।
रंग बिरंगा आकाश
खरीदने की चाहत
है
अपने लिये ही
खुद के दिल में
शान नहीं है।
कहें दीपक बापू
आदर्श की बात
परीक्षा के लिये
रट लीं
पद और पैसे की
दौड़ में जुटे
अक्ल के अंधों
को
बाकी कुछ ध्यान
नहीं है।
———————–
 
राजमार्ग पर जो निकल गये
वह कवि से
महाकवि हो गये।उपाधियों का बोझ
जिनके सिर पर आया
उनके शब्द आमजन की सपंत्ति थे
विशिष्ट सभा में खो गये।

कहें दीपक बापू बिकती है कलम
बाज़ार में सस्ते भाव,
अपनी पंसद के शब्द
अपनी प्रशंसा के गीत पर
लगाते दौलतमंद दाव,
बिके जो रचनाकार प्रसिद्धि पाई
रहे स्वंतत्र उन्होंने सिद्धि पाई
यह अलग बात है
अपनी जिंदगी का बोझ
खाली हाथ ढो गये।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 
ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh


वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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गुरु पूर्णिमा-तत्वज्ञान दे वही होता है सच्चा गुरु (article in hindi on guru purnima


गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव

         जहां गुरु लोभी और शिष्य लालची हों वह दोनों ही अपने दांव खेलते हैं पर अंततः पत्थर बांध कर नदिया पर करते हुए उसमें डूब जाते हैं।

            आज पूरे देश में गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है। भारतीय अध्यात्म में गुरु का बहुत महत्व है और बचपन से ही हर माता पिता अपने बच्चे को गुरु का सम्मान करने का संस्कार इस तरह देते हैं कि वह उसे कभी भूल ही नहीं सकता। मुख्य बात यह है कि गुरु कौन है?
दरअसल सांसरिक विषयों का ज्ञान देने वाला शिक्षक होता है पर जो तत्व ज्ञान से अवगत कराये उसे ही गुरु कहा जाता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में वर्णित है। इस ज्ञान को अध्ययन या श्रवण कर प्राप्त किया जा सकता है। अब सवाल यह है कि अगर कोई हमें श्रीगीता का ज्ञान देता है तो हम क्या उसे गुरु मान लें? नहीं! पहले उसे गुरु मानकर श्रीगीता का ज्ञान प्राप्त करें फिर स्वयं ही उसका अध्ययन करें और देखें कि आपको जो ज्ञान गुरु ने दिया और वह वैसा का वैसा ही है कि नहीं। अगर दोनों मे साम्यता हो तो अपने गुरु को प्रणाम करें और फिर चल पड़ें अपनी राह पर।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में गुरु की सेवा को बहुत महत्व दिया है पर उनका आशय यही है कि जब आप उनसे शिक्षा लेते हैं तो उनकी दैहिक सेवा कर उसकी कीमत चुकायें। जहां तक श्रीकृष्ण जी के जीवन चरित्र का सवाल है तो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्होंने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर हर वर्ष उनके यहां चक्कर लगाये।
गुरु तो वह भी हो सकता है जो आपसे कुछ क्षण मिले और श्रीगीता पढ़ने के लिये प्रेरित करे। उसके बाद                    अगर आपको तत्वज्ञान की अनुभूति हो तो आप उस गुरु के पास जाकर उसकी एक बार सेवा अवश्य करें। हम यहां स्पष्ट करें कि तत्वज्ञान जीवन सहजता पूर्ण ढंग से व्यतीत करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और वह केवल श्रीगीता में संपूर्ण रूप से कहा गया है। श्रीगीता से बाहर कोई तत्व ज्ञान नहीं है। इससे भी आगे बात करें तो श्रीगीता के बाहर कोई अन्य विज्ञान भी नहीं है।
इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते हैं।
सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों।

कबीरदास जी ने ऐसे ही लोगों के लिये कहा है कि

—————-

जाका गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।

      “जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है।”

 
बहुत कटु सत्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान एक स्वर्णिम शब्दों का बड़ा भारी भंडार है जिसकी रोशनी में ही यह ढोंगी संत चमक रहे हैं। इसलिये ही भारत में अध्यात्म एक व्यापार बन गया है। श्रीगीता के ज्ञान को एक तरह से ढंकने के लिये यह संत लोग लोगों को सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। भगवान श्रीगीता में भगवान ने अंधविश्वासों से परे होकर निराकर ईश्वर की उपासना का संदेश दिया और प्रेत या पितरों की पूजा को एक तरह से निषिद्ध किया है परंतु कथित रूप से श्रीकृष्ण के भक्त हर मौके पर हर तरह की देवता की पूजा करने लग जाते हैं। गुरु पूर्णिमा पर इन गुरुओं की तो पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देते हैं।
मुक्ति क्या है? अधिकतर लोग यह कहते हैं कि मुक्ति इस जीवन के बाद दूसरा जीवन न मिलने से है। यह गलत है। मुक्ति का आशय है कि इस संसार में रहकर मोह माया से मुक्ति ताकि मृत्यु के समय उसका मोह सताये नहीं। सकाम भक्ति में ढेर सारे बंधन हैं और वही तनाव का कारण बनते हैं। निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ऐसे ब्रह्मास्त्र हैं जिनसे आप जीवन भर मुक्त भाव से विचरण करते हैं और यही कहलाता मोक्ष। अपने गुरु या पितरों का हर वर्ष दैहिक और मानसिक रूप से चक्कर लगाना भी एक सांसरिक बंधन है। यह बंधन कभी सुख का कारण नहीं होता। इस संसार में देह धारण की है तो अपनी इंद्रियों को कार्य करने से रोकना तामस वृत्ति है और उन पर नियंत्रण करना ही सात्विकता है। माया से भागकर कहीं जाना नहीं है बल्कि उस पर सवारी करनी है न कि उसे अपने ऊपर सवार बनाना है। अपनी देह में ही ईश्वर है अन्य किसी की देह को मत मानो। जब तुम अपनी देह में ईश्वर देखोगे तब तुम दूसरों के कल्याण के लिये प्रवृत्त होगे और यही होता है मोक्ष।
इस लेखक के गुरु एक पत्रकार थे। वह शराब आदि का सेवन भी करते थे। अध्यात्मिक ज्ञान तो कभी उन्होंने प्राप्त नहीं किया पर उनके हृदय में अपनी देह को लेकर कोई मोह नहीं था। वह एक तरह से निर्मोही जीवन जीते थे। उन्होंने ही इस लेखक को जीवन में दृढ़ता से चलने की शिक्षा दी। माता पिता तथा अध्यात्मिक ग्रंथों से ज्ञान तो पहले ही मिला था पर उन गुरु जी जो दृढ़ता का भाव प्रदान किया उसके लिये उनको नमन करता हूं। अंतर्जाल पर इस लेखक को पढ़ने वाले शायद नहीं जानते होंगे कि उन्होंने अपने तय किये हुए रास्ते पर चलने के लिये जो दृढ़ता भाव रखने की प्रेरणा दी थी वही यहां तक ले आयी। वह गुरु इस लेखक के अल्लहड़पन से बहुत प्रभावित थे और यही कारण है कि वह उस समय भी इस तरह के चिंतन लिखवाते थे जो बाद में इस लेखक की पहचान बने। उन्हीं गुरुजी को समर्पित यह रचना।
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साभार समाचार प्रस्तुति-हिन्दी व्यंग्य (sabhar samachar prustuti-hindi vyangya)


धरती पर विचरने वाला सौर मंडल! कल जब इस विषय पर लेख लिखा था तब यह स्वयं को ही समझ में नहीं आ रहा था कि यह चिंत्तन है कि व्यंग्य! हमें लगने लगा कि यह किसी की समझ में नहीं आयेगा, क्योंकि उस समय दिमाग सोचने पर अधिक काम कर रहा था लिखने में कम! मगर ऐसे में उस पर आई एक टिप्पणी से यह साफ हो गया कि जिन लोगों के लिये लिखा गया उनको समझ में आ गया।
मुश्किल यह है कि चिंत्तन लिखने बैठते हैं तब किसी विषय पर तीव्र कटाक्ष करने की इच्छा होती है, तब कुछ न कुछ व्यंग्यात्मक हो ही जाता है। जब व्यंग्य लिखने बैठते हैं तो अपने विषय से संबंधित कुछ गंभीर चर्चा हो ही जाती है और वह चिंत्तन दिखने लगता है।
ब्लाग पर लिखते हुए पहले हम यह सोचते थे कि दोनों भाव एक साथ न लायें पर जब समाचार चैनलों को समाचार से अधिक खेल, हास्य तथा मनोरंजन से संबंधित अन्य चैनलों की सामग्री प्रसारित करते देखते हैं तो सोचते हैं क्यों न दोनों ही विद्यायें एक साथ चलने दी जायें। हम उनकी तरह धन तो नहीं कमा सकते पर उनकी शैली अपनाने में क्या बुराई है? इधर अमेरिका के राष्ट्रपति का भारत आगमन क्या हुआ? सारे चैनलों के लिये यही एक खबर बन गयी है। कब किधर जा रहे हैं, आ रहे हैं और खा रहे हैं, यह हर पल बताया जा रहा है। ऐसा लगता है कि बाकी पूरा देश ठहर गया है, कहीं सनसनी नहीं फैल रही। कहीं हास्य नहंी हो रहा है। कहीं खेल नहीं चल रहा है।
हैरानी होती है जिस क्रिकेट से यही प्रचार माध्यम अपनी सामग्री जुटा रहे थे उसके टेस्ट मैच-यह भारत और न्यूजीलैंड के बीच अहमदाबाद में चल रहा है-की खबर से मुंह फेरे बैठे हैं। कल इनका कथित महानायक या भगवान चालीस रन बनाकर आउट हो गया जबकि यह उससे पचासवें शतक की आशा कर रहे थे। हो सकता है कि उस महानायक या भगवान ने सोचा हो कि क्यों इनके अस्थाई भगवान यानि अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने खड़ा होकर धर्मसंकट खड़ा किया जाये। इस धरती पर विचरने वाले सौर मंडल-पूंजीपति, धार्मिक ठेकेदार, अराजक तत्व तथा उनके दलाल-के लिये स्वर्ग है अमेरिका। वैश्वीकरण ने पूरी दुनियां को एक राष्ट्र बना दिया है अमेरिका! इसलिये अमेरिका के राष्ट्रपति को अब विश्व का दबंग कहकर प्रचारित किया जा रहा है। बाकी राष्ट्रों के प्रमुख क्या हैं, यह वही जाने और उनके प्रचार माध्यम! ऐसे में क्रिकेट के भगवान या महानायक ने चालीस रन पर अपनी पारी निपटाकर प्रचार माध्यमों को संकट से बचा लिया। अगर वह शतक बनाता तो संभव है टीवी चैनल और अखबार में संकट पैदा हो जाता कि किसको उस दिन का महानायक बनाया जाये। अपनी खबर को अगले मैचों तक के लिये रोक कर उसने प्रचार माध्यमों को धर्मसंकट से बचा लिया। ख् वह पचासवां शतक नहीं बना सके-इस खबर से ऐसा लगता है कि जैसे नब्बे तक पहुंच गये थे, पर वह तो चालीस रन बनाकर आउट हो गया। इस तरह इन भोंपूओं ने सारी दुनियां में धरती पर विचरने वाले सौर मंडल को बताया कि देखो कैसे क्रिकेट के भगवान या महानायक ने अपनी वफादारी निभाई।
जिस पूंजीवाद को हम रोते हैं वह अब चरम पर है। अब तो ऐसा लगता है कि विश्व के अनेक विकासशील देशों के राष्ट्रप्रमुख अपने लिये अमेरिका को ही संरक्षक मानने लगे हैं। यही कारण है कि पूंजी के बल पर चलने वाले प्रचार माध्यम भले ही चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका जनाभिमुख होने का होने का दावा करें पर यह सच नहीं है। वह अपने समाचार और विषय जनता पर थोप रहे हैं। कम से कम भारत में अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा को लेकर जनमानस इतना उत्साहित नहीं है जितना समाचार चैनल उसे दिखा रहे हैं। इस समय देश में दीपावली का पर्व की धूम है। इधर अमेरिका का भव्य विमान भारत में उतर रहा था भारत में लोग तब फटाखे फोड़ने और मिठाई खाने में लोग व्यस्त थे। फिर भाईदूज का दिन भी है जब लोग अपने घरों से इधर उधर जाते और आते हैं। ऐसा लगता है कि यह यात्रा कार्यक्रम ही इस तरह बनाया गया कि भारत के लोग घरों में होंगे तो उन पर अपने महानायक का प्रचार थोपा जायेगा। हालांकि अनेक मनोरंजन और धार्मिक चैनलों के चलते यह संभव नहीं रहा कि कोई एक प्रकार के चैनल अपना कार्यक्रम थोप ले पर समाचारों में दिलचस्पी रखने वालों की संख्या कम नहीं है और अंततः उनको एक कम महत्व का समाचार बार बार देखना पड़ा।
समाचार पत्र पत्रिकाऐं, टीवी चैनल और रेडियो इनको एक प्रकार से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। पहले केवल प्रकाशन पत्रकारिता को ही चौथा स्तंभ माना जाता था पर अब आधुनिक तकनीकी के उपयोग के चलते बाकी अन्य दोनों माध्यमों को भी इसमें शामिल कर लिया गया है। समाचार चैनलों के कार्यकर्ता यह कहते है कि लोग इसी तरह के कार्यक्रम पसंद कर रहे हैं पर उन्हें यह पता होना चाहिए कि वह अपने मनोरंजन कार्यक्रमों को समाचारों की आड़ में थोप रहे हैं। इतना ही नहीं समाचारों के नाम पर भी अब अपने नायक बनाने लगे हैं। कभी फिल्म तो कभी क्रिकेट तो कभी टीवी धारावाहिकों से जुड़े लोगों को अनावश्यक प्रचार देने लगते हैं।
यह देश के समाचार चैनलों के लिये ही चिंताजनक है कि आम जनमानस में उनको एक समाचार चैनल की तरह नहीं बल्कि मनोरंजन कार्यक्रमों के नाम पर ही जाना जा रहा है। इन चैनलों की छबि भारत में नहीं बल्कि बाहर भी खराब हो गयी है। अगर ऐसा न होता तो ओबामा बराक हुसैन के भारत दौरे में मुंबई के कार्यक्रमों में उनको दूर नहीं रखा जाता। याद रखिये वहां के कार्यक्रमों में केवल दिल्ली दूरदर्शन को ही आने का अवसर मिला। क्या कभी अमेरिका के राष्ट्रपति की यात्रा के दौरन किसी पश्चिमी देश में भी ऐसा होता है कि वहां के समाचार चैनलों में किसी एक को ही ऐसा अवसर मिलता हो। यहां हम देखें तो अपने देश के समाचार चैनल संभव है कि विदेशी समाचार चैनलों से अधिक कमा रहे हों पर उनकी वैसी छबि नहीं है। इसका कारण यह है कि एक समाचार चैनल के नाते उनको जनमानस से सहानुभूति नहीं मिलती और जो उन्होंने खुद ही खोई है। वरना क्या वजह है कि दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर दावा करने वाले अनेक समाचार पत्रों तथा टीवी चैनलों की ऐसी उपेक्षा की गयी और वह भी दुनियां के सबसे महान लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले अमेरिका के रणनीतिकारों के कम कमलों से। बहरहाल यह तय है कि धरती पर विचरने वाले सौर मंडल के सूर्य कहे जाने पूंजीपतियों का उनको वरदहस्त बराबर मिलेगा क्योंकि उनके महानायक को वैसा ही प्रचार दिया जिसकी चाहत थी। यह पहला अवसर था कि जब कोई समाचार चैनल यह दावा नहीं कर रहा था कि यह सीधा प्रसारण आप हमारे ही चैनल पर देख रहे हैं। सभी ने दूरदर्शन से साभार कार्यक्रम लिया।
एक बुद्धिमान आज सब्जी खरीद रहे थे। पास में उनके एक मित्र आ गये। उन्होंने बुद्धिमान महाशय से कहा-‘आज ओबामा जी का क्या कार्यक्र्रम है? कहंी पढ़ा या सुना था। हमारे यहां तो सुबह से लाईट नहीं थी।’
बुद्धिमान महाशय ने कहा-‘क्या खाक देखते? हमारी भी लाईट सुबह से नहीं है। पता नहीं ओबामा का आज क्या कार्यक्रम है?
सब्जी वाले ने बीच में हस्तक्षेप किया‘यह आप लोग लाईट न होने से किसकी बात कर रहे हो।’
बुद्धिमान ने कहा-‘तू चुपचाप सब्जी बेच, ऐसे समाचार सुनना और देखना हमारे जैसे फालतू लोगों का काम है या कहो मज़बूरी है।’
मित्र ने अपना सिर हिलाया और बोला-‘हां, यह बात सही है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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वृंदावन के श्री कृष्ण और अयोध्या के श्री राम, शक्ति मिलती है लेते ही नाम-हिन्दी लेख (bhagwan shri ram aur krishan ke nam mein hee shakti-hindi lekh)


वृंदावन के कृष्ण और अयोध्या के राम भारतीय अध्यात्म दर्शन और धर्म के ऐसे स्तंभ है जिनको उन बड़े बड़े संतों ने भी माना है जो अपनी भक्ति और तपस्या से जनमानस में भगवत् स्वरूप माने जाते हैं। महाकवि तुलसीदास, संत प्रवर कबीरदास, कविवर रहीम, तपस्विनी मीरा तथा अन्य अनेक महापुरुषों ने अपने जीवन चरित्र से भारतीय जनमानस में भगवत्रूप की स्थिति प्राप्त की और इन सभी ने भगवान श्रीकृष्ण और राम के चरित्रों को अपने मन में स्थान दिया। स्पष्ष्टतः इन दोनों के बिना भारतीय अध्यात्म ज्ञान तथा जनमानस की भक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती।
भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण का समूचा जीवन ही लीलामय झांकी प्रस्तुत करता है और जैसे कि हम जानते हैं कि यह समूचा जीवन अनेक रंगों से व्याप्त है। यही कारण है कि हर इंसान के जीवन चरित्र में विविध रूप स्वयमेव नज़र आते हैं ऐसे में शरीर धारण करने वाले अवतारी पुरुष भी सभी रंगों में दृष्टिगोचर होते है। चूंकि भगवान श्री राम तथा श्रीकृष्ण भगवान के मानव स्वरूप अवतार माने जाते हैं इसलिये उनका जीवन भी इसी तरह बीता। सृष्टि के नियमों के अनुसार उन्होंने अपना बाल्यकाल, युवावस्था तथा अधेड़ावस्था में बिताया इसलिये उनके विभिन्न स्वरूप निर्मित हुए। दोनों महान योगी थे। उनके संदेश आज भी स्वाभाविक इसलिये लगते हैं कि प्रकृति और उसके जीवन के स्वरूप में बदलाव आता है पर मौलिक स्वभाव कभी नहीं बदलता। यही कारण है कि आज भी उनका चरित्र स्वाभाविक लगता है पर विविधता के कारण सभी अपने मन के अनुसार स्वरूप स्मरण करने के लिये चुनते हैं ।

अगर सहजता के साथ दोनों या किसी एक के भी स्वरूप में अपने ध्यान के साथ भक्ति की जाये तो शक्ति प्राप्त होती है मगर मुश्किल यह है कि सामान्य जन सकाम भक्ति में लीन होना पसंद करते हैं या फिर उनके चरित्र की चर्चा को ही सत्संग समझ लेते हैं और यहीं से शुरु होता है संतों और धर्मगुरुओं का उपदेश देने का सिलसिला जो अंततः पेशा बन जाता है। उसके बाद भी ऐसे लोग बहुत से हैं जो धर्म की आड़ में अपना लक्ष्य पाना चाहते हैं ताकि उनकी लोकप्रियता का नकदी में रूप में परिवर्तन किया जा सके। यही कारण है कि जब भारत के बाहर भारतीय अध्यात्म अनुसंधान का विषय बन रहा है वहीं यहां उनके जन्मस्थान तक ही लोगों का मन सीमित रखने का प्रयास हो रहा है। वर्तमान में भारतीय जनमानस अखबार, टीवी, इंटरनेट तथा रेडियो तक सीमित हो गया है और धर्म के आधार पर प्रचार पाने वाले यही सक्रियता अधिक दिखाते हैं। इससे सामान्य जनमानस प्रभावित भी होता है। कितना प्रभावित होता है यह भी अब विश्लेषण का विषय है।

इस समय अयोध्या की रामजन्म भूमि फिर चर्चा में है क्योंकि उसके विवाद का निर्णय संभवत आने वाला है। इसका बकायदा प्रचार हो रहा है। प्रचारकों को प्रसिद्धि मिल रही है तो व्यवसायिक प्रचार माध्यमों का समय पास हो रहा है जो अंततः विज्ञापन के सहारे ही व्यतीत होता है।

एक प्रश्न अक्सर लोग कहते हैं कि धर्म के आधार पर हिन्दू एक क्यों नहीं होते? कुछ लोग झुंझलाते हैं कि अन्य धर्म के लोग अपने इष्ट के नाम पर एक हो जाते हैं पर हिन्दू समाज हमेशा ही बिखरा रहता है। कुछ विद्वान तो हिन्दू समाज के बंटवारे का कारण अधिक देवताओं की उपासना करना बताते हैं तो कुछ समाज को स्वार्थों में लिप्त होकर रहने का दोष देते हैं। ऐसा लगता है कि ऐसे लोग अन्य समाजों की अंदरूनी स्थिति को नहीं जानते और उनके मुकाबले अपने समाज को कमतर होने का उनको अफसोस होता है। ऐसे विद्वानों को गीता अवश्य पढ़नी चाहिए जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की सामग्री भी अंतर्निहित है। श्रीमद्भागवत गीता में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि भक्त चार प्रकार के होते हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी।

आर्ती भक्त वह होते हैं जो विपत्ति आने पर भगवान की दरबार में पहुंचते हैं। अर्थार्थी वह होते हैं जो अपनी मनोकामना पूर्ण होती रहे इस उद्देश्य से जाते हैं। जिज्ञासु भक्त वह हैं जो यह देखने के लिये जाते हैं कि वहां जाने से उन पर क्या प्रभाव होता है। सबसे ऊंचे ज्ञानी है जो निष्काम भाव से मंदिर यह सोचकर जाते हैं कि वहां जाने से ध्यान का लाभ होगा जिनसे उनमें मानसिक शुद्धि आयेगी। समाज को किसी एक इष्ट के नाम एक रखने के प्रयास करने और सफल न होने पर झुंझलाने वाले इस तरह का ज्ञान नहीं रखते।

अब करते हैं भारतीय समाज की बात! यहां श्रीमद्भागवत गीता के संदेश हर आदमी जानता है। उसे यह भी मालुम है कि धर्म के नाम पर पाखंड यहां खूब होता है। राम जन्म भूमि के समय समाज में जोरदार एकता आयी थी पर कालांतर में उसका प्रभाव कम हो गया। इसका कारण यह रहा कि उस समय लोगों के पास यह एक ऐसा विषय था जो ज्वलंत था और धर्म से संबंधित अन्य कोई विषय उनके उनके पास मन लगाने के लिये नहीं था। फिर अब ऐसा क्या हो गया कि समाज अब उदासीन हो गया? यहां लोग धर्म के नाम पर कोई न कोई चर्चा चाहते हैें फिर राम जो सभी के हृदय के नायक हैं उनकी जन्मभूमि के नाम पर क्यों उत्तेजित नहीं हो रहे। इसका कारण यह है कि अब बाबा रामदेव ने योग का जो परचम पूरे विश्व में फहराया है उसने भारतीय जनमानस में भी गहरी पैठ बना ली है। कम से कम जिज्ञासु और ज्ञानी भक्तों के के दिमाग में यह बात आ गयी है कि भगवान राम और श्री कृष्ण हमारे अध्यात्मिक दर्शन का आधार है पर उसके साथ ही उनकी लीलाऐं और संदेश भी बहुत महत्वपूर्ण है। पूर्वकाल में रामजन्मभूमि आंदोलन के समय प्रचार माध्यम इतने सशक्त और व्यापक नहीं थे जितने अब दिखाई देते हैं। उस समय दिल्ली दूरदर्शन के अलावा अन्य कोई साधन नहंी था और अब तो टीवी चैनलों की संख्या तीन सौ से ऊपर ही होगी ऐसा लगता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों की भावनाओं का दोहन अब एक तरीके से नहीं किया जा सकता और न ही किसी पुराने विषय को फिर वैसे ही संवेदनशील बनाया जा सकता है।

इधर भारतीय योग दर्शन तथा श्रीगीता के संदेश की वैश्विक स्तर पर चर्चा और अनुसंधान का विषय बन बन गया है है। इससे यह बात तो स्थापित हो ही गयी है कि हमार अध्यात्म भले ही एक इष्ट पर निर्भर नहीं है पर बहुत सारे उसके स्वरूप का निराकार चरित्र का प्रतिबिंब हैं। निष्काम और सकाम भक्ति का स्वरूप अब स्पष्ट होता जा रहा है। मूर्तिपूजा करना और निरंकार का ध्यान करना अलग विधियां हैं पर दोनों का लक्ष्य एक ही है कि सर्वशक्तिमान का स्मरण कर अपने मन और विचारों को शुरु और पवित्र बनाना। अतः दोनों प्रकार के भक्तों में आपसी विरोध नहीं होता। यह अलग बात है कि सकाम भक्त निष्काम भक्तों को नास्तिक या अल्प आस्थावान समझते हैं पर ज्ञानी लोग इस तथ्य को जानते हुए चुप्पी साध लेते हैं ।

आखरी बात यह कि भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम इस धरती पर पैदा हुए तो समाज कल्याण का काम किया। ऐसा करते हुए उन्होंने अपने और पराये क्षेत्र का विचार नहीं किया। सारे संसार को अपना घर और समस्त प्रजाजनों को अपने से रक्षित माना। दोनों ने अपने महत्वपूर्ण काम अपने जन्म स्थान से परे होकर किये। श्रीकृष्ण तो वृंदावन से दूर होकर द्वारका में बसे और फिर आतिताइयों का नाश किया। एक बार वृंदावन से निकले तो फिर लौटे ही नहंीं। जिन गोपियों के साथ रासलीला करते थे वह उनकी प्रतीक्षा ही करती रहीं। जिस कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण जी ने गीता संदेश देकर अपना सवौच्च लक्ष्य पूरा किया वह भी उनके जन्मस्थान से बहुत दूर था। भगवान श्रीराम ने एक भी राक्षस का संहार अयोध्या में नहीं किया। सीधी बात यह है कि उन्होंने जन्मभूमि से अधिक पूरी धरती को अपनी कर्मभूमि मानकर कार्य किया। वैसे भी कहा जाता है कि आदमी को प्रतिष्ठा घर से बाहर काम करने पर ही मिलती है। यही कारण है कि इन दोनों के भक्त पूरे विश्व में हैं और कई तो ऐसे हैं कि जिनकी रुचि दोनों में होने के बावजूद उनकी जन्मभूमियों नहीं है। ऐसे में उन भक्तों को उदासीन यह कायर कतई नहीं कहा जा सकता। अगर कोई ऐसा कहता तो यकीनन वह भक्तों की भावनाओं का दोहन न होने के कारण ऐसा कह रहा है। रामजन्मभूमि का निर्णय अब अदालत में होना है। ऐसे में भी अनेक ऐसे लोग हैं जिनकी उनमें रुचि जिज्ञासा के कारण है न कि आस्था के कारण। मुश्किल यह भी है कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिये वही अपनी सुविधा के अनुसार ऐसे विवादों को न केवल पैदा करते हैं बल्कि निरपेक्ष दिखते हुए भी एक पक्ष की तरफ झुकते नज़र आते हैं। ऐसे में आम जनमानस की कोई बड़ी भूमिका नहीं दिखती और उसकी खामोशी को तटस्थता समझा जाये या उदासीनता यह विश्लेषकों के चिंतन का विषय हो सकता है।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior

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महंगाई तोड़ सकती है समाज की एकता-हिन्दी लेख (mahangai aur samajik ekta-hinde lekh)


महंगाई कोई समस्या नहीं बल्कि समस्याओं का परिणाम है। भले ही कुछ कवि या व्यंग्यकार इस पर कवितायें और व्यंग्य लिखते हों पर सच यह है कि बढ़ती महंगाई समाज में एक खतरनाक विभाजन करती आ रही है जिसे बड़े शहरों के निवासी बुद्धिजीवी वातानुकूलित कमरों नहीं देख रहे। ऐसा लगता है कि इस देश में चिंतकों का अकाल पड़ गया है यह अलग बात है कि अंग्र्रेजी मे लिखने वाले केवल औपचारिकता ही निभा रहे हैं और हिन्दी के चिंतक की तो वैसे भी कोई पूछ नहीं है और जिनकी पूछ है वह सोचते अंग्रेजी वालों की तरह है।
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि ‘इस संसार में दो ही प्रकार के लोग हैं एक अमीर और दूसरा गरीब!’
उनकी विचाराधारा का अनुसरण करने वाले अनेक नीति निर्माता इस नारे को गाते बहुत हैं पर जब नीतियां बनाने की बात आती है तो उनके सामने केवल अमीरों का विकास ही लक्ष्य बनकर आता है। कुछ लोगों की बातें तो बहुत हास्यास्पद हैं जब वह विकास को महंगाई का पर्याय बताते हैं। दरअसल महंगाई यकीनन विकास का की प्रतीक है पर वह स्वाभाविक होना चाहिए पर हम देश की स्थिति पर नज़र डालते हैं तो पता लगता है कि पूरा देश ही कृत्रिम विकास नीति पर चल रहा है और महंगाई की गति अस्वाभाविक और असंतुलित ढंग से बढ़ रही है जो कि अंततः समाज ही नहीं बल्कि परिवारों का भी विभाजन करती है।
हम अगर दृष्टिपात करें तो पहले परिवार और रिश्तेदारी में अमीर ओर गरीब होते थे पर उनमें अंतर इतना अधिक नहीं होता था कि विभाजन बाहर प्रकट हो। पहले एक अमीर के पास होता था अपना बड़ा मकान, भारी वाहन तथा अन्य महंगे सामान! जबकि गरीब के पास छोटा अपना या किराये का मकान, पूराना या हल्कातथा सस्ते सामान होते थे। एक शादी विवाह के अवसर पर भी होता यही था कि एक आदमी अपनी शादी में अधिक प्रकार के व्यंजन परोसता था तो दूसरा कम। दो भाईयों में अंतर होता था तो एक भाई अपनी जेब से थोड़ा व्यय कर दूसरे के बच्चे में उसकी शान बढ़ाता था। पड़ौसियों में भी यही स्थिति थी। एक के घर में रेडियो है तो दूसरे के पास नहीं! पर दूसरा सुनकर ही आनंद लेता था। सामाजिक सामूहिक अवसरों पर एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव था। परिवार, रिश्तेदारी और पड़ौस में रहने वाले लोगों में धन का अस्वाभाविक अंतर नहीं दिखाई देता था और जिस समाज पर हम गर्व करते हैं वह इसी का ही स्वभाविक अर्थव्यवस्था का परिणाम था। मगर अब हालत यह है धन का असमान वितरण विकराल रूप लेता जा रहा है। इससे आपस में ही लोगों के कुंठायें और वैमनस्य का भाव बढ़ता जा रहा है। हम जब देश की एकता या अखंडता की बात करते हैं तो एक बात भूल जाते हैं कि अंततः यह एक भौतिक विषय है और इसे अध्यात्मिक आधारों पर नियंत्रित नहीं किया जा सकता। हम भले ही जाति, भाषा, तथा धर्म के आधार पर बने समूहों की मजबूती में देश की एकता या अखंडता का भाव देखना चाहते हैं महंगाई के बढ़ते धन के असमान वितरण के भावनात्मक परिणामों को समझे बिना यह कठिन होगा क्योंकि अल्प धन वाला अधिक धनवान में प्रति कलुषिता का भाव रखने लगता है जो अंततः सामाजिक वैमनस्य में बदल जाता है।
अक्सर हम देश के दो हजार साल के गुलाम होने की बात करते हुए देश के सामाजिक अनुदारवाद को जिम्मेदार बताते हैं पर सच यह है कि इसके मूल में यही धन का असमान वितरण रहा है। जिन लोगों को यह बात अज़ीब लगे उन्हें यह देखना चाहिए कि हजार और पांच सौ नोट प्रचलन में आ गये हैं पर अभी भी कितने लोग हैं जो उसके इस्तेमाल करने योग्य बन गये हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि इस तरह के नोटों को केवल अवैध छिपाने वालों की सुविधा के लिये बनाया गया है क्योंकि जिस तरह कुछ भ्रष्ट लोगों के यहां उनकी बरामदगी हुई उससे तो यही लगता है। दूसरा यह भी कि साइकिल तथा स्कूटर में हवा भरने के लिये आज भी दरें वही हैं। सब्जियों तथा अन्य खाद्य पदार्थों की दरें बढ़ी हैं पर उनके उत्पादकों की आय का स्तर में धनात्मक वृद्धि हुई जबकि महंगाई में गुणात्मक दर से बढ़ोतरी होती दिख रही है।
कभी कभी तो इस बात पर गुस्सा आता है कि देश की संस्कृति, धर्म और अध्यात्म को लेकर कुछ लोग आत्ममुग्धता का शिकार हैं। कहीं किसी ने भारतीय धर्म अपनाया तो चर्चा होने लगती है तो कहींे भारतीय पद्धति से विवाह किया तो वाह वाह की आवाजें सुनायी देती हैं। यह भ्रम कि धर्म या अध्यात्म के आधार पर देश को एक रखा जा सकता है अब निकाल देना चाहिये। हमारे कथित कर्मकांड तो केवल अर्थ पर ही आधारित हैं। उसमें भी विवाह में दहेज प्रथा का तो विकट बोलबाला है। अमीर और दो नंबर की कमाई वाले पिताओं के लिये अपनी लड़की का विवाह करना कठिन नहीं है पर उनकी देखा देखी महंगी राह पर चलने वाले मध्यम वर्ग के लिये यह एक समस्या है।
कहने का अभिप्राय यह है कि महंगाई की धनात्मक वृद्धि तो स्वीकार्य है पर गुणात्मक वृद्धि अंततः पूरे समाज के आधार को कमजोर कर सकती है और ऐसे में देश की एकता, अखंडता तथा सम्मान बचाये रखना एक ऐसा सपना बन सकता है जिसे कभी नहीं पाया जा सकता।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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