Category Archives: शिक्षा

आध्यात्मिक ज्ञान तथा भक्ति के प्रति झुकाव सुखद लगता है-हिन्दी लेख (adhyamik prem and film actres-hindi article)


बंबई में हिन्दी फिल्मों और टीवी धारावाहिकों की अभिनेत्री सोनाली बैंद्रे  अनुपम सौंदर्य के साथ कुशल अभिनय तथा मधुर स्वर की स्वामिनी मानी जाती है। हैरानी की बात है कि फिल्मों में उनको अधिक अभिनय का अवसर नहीं मिला। इसलिये उन्होंने फिल्मों में सक्रिय एक व्यक्ति से विवाह कर लिया। सौंदर्य के साथ हर किसी में विवेक और बुद्धि हो या आवश्यक नहीं है। जिस नारी में सौंदर्य के साथ बुद्धि और विवेक तत्व हो उसे ही सर्वाग सुंदरी माना जाता है और सोनाली बेंद्र इस पर खरी उतरती हैं। ऐसे में जब अखबार में उनके आध्यात्मिक प्रेम के बारे में पढ़ा तो सुखद आश्चर्य हुआ। प्रसंगवश सोनाली बेंद्रे ने टीवी पर बच्चों के साथ प्रसारित एक संगीत प्रतियोगिता के रूप में प्रसारित एक कार्यक्रम में उनके संचालन के तरीके ने इस लेखक को बहुत प्रभावित किया था। शांति के साथ अपने कुशल संचालन के प्रसारण से यह तो उन्होंने साबित कर ही दिया था कि उनमें बुद्धिमता का भी विलक्षण गुण है। सच बात कहें कि अमिताभ बच्चन के कौन बनेगा करोड़पति के मुकाबले वह एक बेहतर प्रसारण लगा था।
अखबार में पढ़ने को मिला कि वह अभिनय के नये प्रस्ताव स्वीकार नहीं  कर रहीं। इसका कारण यह बताया कि वह अपने पांच वर्षीय बच्चे को संस्कारिक रूप से भी संपन्न बनाना चाहती हैं। उनका बच्चा जिस स्कूल में जाता है वहां श्रीमद्भागवत गीता का भी अध्ययन कराया जाता है। बहुत छोटे इस समाचार ने सोनाली बेंद्रे की याद दिला दी जो अब केवल कभी कभी बिजली के उपकरणों के विज्ञापन में दिखाई देती हैं। वैसे उसका अभिनय देखकर लगता था कि वह अन्य अभिनेत्रियों से कुछ अलग है पर अब इस बात का आभास होने लगा है कि वह अध्यात्मिक भाव से सराबोर रही होंगी और उनकी आंखों में हमेशा दिखाई देने वाला तेज उसी की परिणति होगी।
भारत की महान अदाकारा हेमा मालिनी भी अपनी सुंदरता का श्रेय योग साधना को देती हैं पर सोनाली बेंद्रे में कहीं न कहीं उस अध्यात्मिक भाव का आभास अब हो रहा है जो आमतौर से आम भारतीय के मन में स्वाभाविक रूप से रहता है।
जिस मां के मन में अध्यात्मिक भाव हो वही अपने बच्चे के लिये भी यही चाहती है कि उसमें अच्छे संस्कार आयें और इसके लिये बकायदा प्रयत्नशील रहती है। यहां यह भी याद रखें कि मां अगर ऐसे प्रयास करे तो वह सफल रहती है। अब यहां कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं कि अध्यात्मिक भाव रखने से क्या होता है?
श्रीमद्भागवत गीता कहती है कि इंद्रियां ही इंद्रियों में और गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। साथ ही यह भी कि हर मनुष्य इस त्रिगुणमयी माया में बंधकर अपने कर्म के लिये बाध्य होता है। इस त्रिगुणमयी माया का मतलब यह है कि सात्विक, राजस तथा तामस प्रवृत्तियों मनुष्य में होती है और वह जो भी कर्म करता है उनसे प्रेरित होकर करता है। जब बच्चा छोटा होता है तो माता पिता का यह दायित्व होता है कि वह देखे कि उसका बच्चे में कौनसी प्रवृत्ति डालनी चाहिए। हर बच्चा अपने माता पिता के लिये गीली मिट्टी की तरह होता है-यह भी याद रखें कि यह केवल मनुष्य जीव के साथ ही है कि उसके बच्चे दस बारह साल तक तो पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो पाते और उन्हें दैहिक, बौद्धिक, तथा मानसिक रूप से कर्म करने के लिये दूसरे पर निर्भर रहना ही होता है। इसके विपरीत पशु, पक्षियों तथा अन्य जीवों में बच्चे कहीं ज्यादा जल्दी आत्मनिर्भर हो जाते हैं। यह तो प्रकृति की महिमा है कि उसने मनुष्य को यह सुविधा दी है कि वह न केवल अपने बल्कि बच्चों के जीवन को भी स्वयं संवार सके। ऐसे में माता पिता अगर लापरवाही बरतते हैं तो बच्चों में तामस प्रवृत्ति आ ही जाती है। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह व्यसन, दुराचरण तथा अभद्र भाषा की तरफ स्वाभाविक रूप ये आकर्षित होता है। अगर उसे विपरीत दिशा में जाना है तो अपनी बुद्धि को सक्रिय रखना आवश्यक है। उसी तरह बच्चों के लालन पालन में भी यह बात लागू होती है। जो माता पिता यह सोचकर बच्चों से बेपरवाह हो जाते हैं कि बड़ा होगा तो ठीक हो जायेगा। ऐसे लोग बाद में अपनी संतान के दृष्कृत्यों पर पछताते हुए अपनी किस्मत और समाज को दोष देते हैं। यह इसलिये होता है क्योंकि जब बच्चों में सात्विक या राजस पृवत्ति स्थापित करने का प्रयास नहीं होता तामस प्रवृत्तियां उसमें आ जाती हैं। बाहरी रूप से हम किसी बुरे काम के लिये इंसान को दोष देते हैं पर उसके अंदर पनपी तामसी प्रवृत्ति पर नज़र नहीं डालते। अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखने वालों में स्वाभाविक रूप से सात्विकता का गुण रहते हैं और उनका तेज चेहरे और व्यवहार में दिखाई देता है।
सोनाली बेंद्रे और हेमामालिनी फिल्म और टीवी के कारण जनमानस के परिदृश्य में रहती हैं और योग साधना और अध्यात्म के उनके झुकाव पर बहुत कम लोग चर्चा करते हैं। हम उनके इन गुणों की चर्चा इसलिये कर रहे हैं क्योंकि श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार श्रेष्ठ या प्रसिद्ध व्यक्त्तिवों से ही आम लोग सीखते हैं-विज्ञापनों का बढ़ता प्रभाव इसी का प्रमाण है। इसका उल्लेख हमने इसलिये भी किया कि लोग समझते हैं कि भारतीय अध्यात्म का ज्ञान बुढ़ापे में अपनाने लायक हैं जबकि यह दोनों हस्तियां आज भी युवा पीढ़ी के परिदृश्य में उपस्थित हैं और इस बात प्रमाण है कि बचपन से ही अध्यात्म ज्ञान होना जरूरी है। सोनाली बेंद्रे तो अभी युवावस्था में है और उसका अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति झुकाव आज की युवतियों के लिये एक उदाहरण है। श्रीमद्भागवत गीता को लोग केवल सन्यासियों के लिए पढ़ने योग्य समझते हैं जबकि यह विज्ञान और ज्ञान से परिपूर्ण ग्रंथ हैं जिसे एक बार कोई समझ ले तो कुछ दूसरी बात समझने को शेष नहीं  रह जाती। इससे मनुष्य चालाक होने के साथ उदार, बुद्धिमान होने के साथ सहृदय, और सहनशील होने के साथ साहसी हो जाता है। सामान्य स्थिति में इन गुणों का आपसी अंतर्द्वंद्व दिखाई देता है पर ज्ञानी उससे मुक्त हो जाते हैं।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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आतंकवाद से लड़ने के दावे-हास्य कविता और चिंत्तन लेख


आतंकवाद एक व्यापार है, और यह संभव नहीं है कि बिना पैसे लिये कोई आतंक फैलाता हो। अभी अखबार में एक खबर पढ़ी थी कि उत्तरपूर्व में केंद्र सरकार ने आर्थिक विकास के लिये जो धन दिया उसमें से कुछ आतंकी संगठनों के पास पहुंचा जिससे आतंकियों ने हथियार खरीदे। स्पष्टतः इन हथियारों का पैसा उसके निर्माताओं को मिला होगा। इस संबंध में केंद्रीय खुफिया ऐजेंसियों की जानकारी के आधार पर कुछ सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों तथा अन्य लोगों के खिलाफ़ मामला दर्ज किया गया है और यकीनन यह इस तरह के सफेदपोश लोग हैं जो कहीं न कहीं समाज में अपना चेहरा पाक साफ दिखते हैं। जब आतंक की बात आती है तो चंद मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रभावित क्षेत्रों में धर्म और धन के आधार पर शोषण का आरोप लगाते हैं पर जब विकास के धन से आतंक को सहायता मिलती है तो उस पर खामोश हो जाते हैं।
ऐसे में आतंक को रंग से पहचाने वाले बुद्धिजीवियों पर तरस आता है पर उनको भी क्या दोष दें। सभी किसी न किसी रंग से प्रायोजित हैं और उनको अपने प्रायोजकों की बज़ानी है। एक स्वतंत्र और मौलिक लेखक होने के नाते हमने तो यह अनुभव किया है कि संगठित प्रचार माध्यमों-टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो-में हमें जगह इसलिये नहीं मिल पाई क्योंकि किसी रंग ने प्रयोजित नहीं किया। हम इस पर अफसोस नहीं जता रहे बल्कि अपने जैसे स्वतंत्र लेखकों ओर पाठकों को यह समझा रहे हैं कि जब किसी आतंकवाद या उग्र आंदोलन का समर्थक कोई प्रसिद्ध बुद्धिजीवी बयान दे तो समझ लें कि वह दौलतमंदों का प्रयोजित बुत बोल रहा है। यकीनन उसे प्रयोजित करने वाला कोई ऐसा दौलतमंद ही हो सकता है जो अपने रंग की रक्षा केवल इसलिये करना चाहता है जिससे कि उसके काले धंधे चलते रहें। पहले गुस्सा आता था पर अब हंसी आती है जब आतंक या उग्रता की पहचान लिये आंदोलनों के समर्थक बुद्धिजीवी बयान देते हैंे और समझते हैं कि कोई इस बात को जानता नहीं है। एक रंग समर्थक बुद्धिजीवी उग्र बयान देता है तो उस पर अनेक बयान आने लगते हैं इस तरह आतंक के साथ ही उस पर बयान और बहस भी प्रचार का व्यापार हो गये हैं।
इस पर एक हास्य कविता लिखने का मन था पर लगा कि उसमें पूरी बात नहीं कह पायेंगे इसलिये यह गद्य भी लिखकर मन की भड़ास निकाल दी। इसका उद्देश्य यही है कि दुनियां भर के सभी शासक आतंकवाद से लड़ने का दावा करते हैं पर वह है कि बढ़ता ही जा रहा है। स्पष्टतः ऐसे में जिम्मेदार लोगों की अकुशलता, कुप्रबंधन के साथ इसमें कहीं न कहीं सहभागिता का भी शक होता है। सभी देश अपने अपने ढंग से आतंकवाद को समझ रहे हैं इसलिये लड़ कोई नहीं रहा। दावे केवल दावे लगते हैं
इस पर यह एक बेतुकी हास्य कविता प्रस्तुत है।

पोते ने दादा से कहा
‘‘बड़ा होकर मैं भी आतंकवादी बनूंगा
क्योंकि उनके साक्षात्कार टीवी पर आते हैं,
समाचारों में भी वह छाते हैं,
पूरी दुनियां में मेरा नाम छा जायेगा।
अमेरिका भी मुझसे घबड़ायेगा।’’

तब दादा ने हंसते हुए कहा
‘‘बेटा, यह क्या सपना तूने पाल लिया,
आतंकवादी सबसे बड़ा है यह कैसे मान लिया,
तू मादक द्रव्य का तस्कर बन जाना,
चाहे तो क्रिकेट पर सट्टा भी लगवाना,
मन में आये तो जुआ घर खोल देना,
अपहरण उद्योग भी बुरा नहीं है,
अपहृत के बदले भारी रकम मोल लेना,
जब ढेर सारा पैसा तेरे पास आयेगा,
तब क्या पहरेदार, क्या चोर,
आतंकवादी भी तेरे आगे सिर झुकायेगा।
बेटा, यह भी एक व्यापार है,
पर इसमें खतरे अपार हैं,
धंधा चाहे काला हो
पर दौलत होगी तो
हमेशा अपने को सफेदपोश पायेगा,
आतंकी बनकर भी रहेगा गुलाम,
हर कोई अपना रंग तुझ पर चढ़ायेगा।
टीवी पर चेहरा आने ,
या अखबार में खबर छप जाने पर
तेरे को चैन नहीं आयेगा,
मरने का डर तेरे को सतायेगा,
काम निकल जाने पर प्रायोजक ही

तेरा बैरी होकर ज़माने का नायक बन जायेगा
पहले तेरे को मरवायेगा,
या फिर इधर से उधर दौड़ाते हुए
तेरा पीछा करते अपने को दिखायेगा।
मेरी सलाह है
न तो सफेदपोश प्रयोजक बन,
न आतंकवादी होकर तन,
अपना छोटा धंधा या नौकरी करना,
चाहे तो कविता लिखना
या चित्र बनाकर उसमें रंग भरना,
दूसरे खुश हो या नहीं
तुम अपने होने का खुद करना अहसास,
दिल की खुशी का बाहर नहीं अंदर ही है वास,
ऐसा चेहरा रखना अपना
जो खुद आईने में देख सके,
दौलत, शौहरत और ताकत में
अंधे समाज को भला क्या दिखायेगा।
मुझे गर्व होगा तब भी जब
आतंकवादी की तरह प्रसिद्ध न होकर
अज्ञात श्रमजीवी की सूची में अपना नाम लिखायेगा।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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हिन्दी लेखन में अध्यात्मिकता का पुट होना आवश्यक-हिन्दी चिन्तन


हिंदी भाषा की चर्चा अक्सर विवादों के कारण अधिक होती है। विवाद यही कि हिंदी थोपी जा रही है या हिंदी वाले दूसरी भाषाओं को कमतर मानते हैं। ऐसे बहुत सारे विवाद हैं जो बरसों से थम नहीं रहे। होता यह है कि कोई शख्स उस विवाद को ढोते हुए बूढ़ा हो जाता है तो लगता है कि विवाद थम गया पर फिर कोई उसका वारिस उठ खड़ा होता है तो लगता है कि विवाद फिर नये रूप में आ गया है। ऐसे केवल भाषा के साथ ही नहीं बल्कि हर प्रकार के विवाद से है जो शायद खड़े ही इसलिये किये जाते हैं कि उनका कभी निराकरण ही न हो। हिंदी के विवाद का भी कोई निपटारा आगे बीस साल तक नहीं होना है। इसलिये हिंदी का चाल, चरित्र और चेहरा फिर से देखना जरूरी है जिसे बहुत कम लोग समझ पाते हैं।
हिंदी संस्कृत के बाद विश्व की दूसरी आध्यात्मिक भाषा है। इसका मतलब सीधा यही है कि जैसे जैसे लोगों की अध्यात्मिक ज्ञानपिपासा बढ़ेगी हिंदी का प्रभाव स्वतः बढ़ेगा। फिर संकट कहां हैं?
जो लोग अंतर्जाल पर सक्रिय नहीं है उनका क्या कहें जो सक्रिय है वह भी नहीं समझ पा रहे कि हिंदी अब सांगठनिक ढांचों के दायरे’-टीवी, किताब, फिल्म तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं-से बाहर निकल कर अनियंित्रत गति से अंतर्जाल पर बढ़ रही है। गूगल के प्रयासों को तो आप जानते हैं। इधर हिंदी में ही वेबसाईटों के पते होने की बात भी चल रही है। ऐसे में सांगठिनक ढांचों में सक्रिय खास वर्ग में चिंता फैली हुई है और हिंदी पर उठ रहे विवाद उसका एक प्रमाण हैं। घबड़ाहट हो रही है कि हिन्दी कहीं अंतर्जाल पर अंग्रेजी के समकक्ष न स्थापित हो जाये। अगर स्थापित हो तो फिर उस नियंत्रण अपना नियंत्रण रहे इसके लिये प्रयत्नशील हिंदी के विवादों पर अधिक बोल और लिख रहे हैं।
बात अधिक न करते हुए यह समझाना जरूरी है कि हिंदी के ठेकेदारी भले ही दिखावे के लिये कई लोग करते हैं पर हिंदी ऐसी अध्यात्मिक भाषा है जो साफ सुथरे चरित्र के साथ ही कथनी और करनी के भेद से परे रहने की शर्त रखती है। आप चाहे हिंदी में कितने भी उपन्यास, कहानियां, व्यंग्य या अन्य रचनायें लिखे आम हिंदी भाषी का यह स्वभाव है कि वह आपके चरित्र को देखता है। आप हिंदी के विकास का नारा लगायें खूब प्रचार मिलेगा पर हिंदी भाषियों का यह स्वभाव है कि जब तक आपकी रचनाओं के आध्यात्मिक ज्ञान और चरित्र में देवत्व का बोध नहीं होगा वह आपको हृदय से सम्मान नहीं देगा। हिंदी में यह भाव संस्कृत से ही आया है। सच बात तो यह है कि संस्कृत कभी की लुप्त हो गयी होती अगर उसमें अध्यात्मिक रचनाओं का खजाना नहीं होता।
कई लोगों को यह अजीब लगे पर जरा वह स्वयं अपने अंदर झांकें। भक्ति काल के कबीर, तुलसी, सूर, मीरा तथा अन्य कवियों को नाम जन जन में छाया हुआ मिलेगा भले ही उनकी रचनायें हिंदी में अनुवाद कर पढ़ी और सुनाई जाती हैं। इसके बाद भी इतने सारे कवि लेखक और चिंतक हुए पर उनको वही लोग जानते हैं जो अधिक शिक्षित हैं। भक्ति काल के कवियों का नाम गांव गांव में जाना जाता है मगर यह बात आप उसके बाद के कवियों और लेखकों के बारे में नहीं कह सकते। इससे यह स्पष्ट होता है कि हिंदी भाषी लोग ऐसी रचनायें देखना चाहते हैं जिनसे कुछ जीवन में सीखने का अवसर मिले। साथ ही कवि या लेखक का चरित्र भी उनके लिये प्रेरक होना चाहिये। संस्कृत में वाल्मीकि, वेदव्यास तथा महर्षि शुक का नाम लेखक के रूप में नहीं बल्कि देवता की तरह लिया जाता है। अगर आप अपने जीवन में केवल लिखने के लिये ही लिखते हैं और यह बात प्रमाणित नहीं होती कि आपका चरित्र वैसा ही है तो हिंदी में आपको अधिक सम्मान नहीं मिलेगा भले ही आप कितनी भी संस्थाओं से पुरुस्कार जीत लें। समाज के आपसी समझौतों और द्वंद्वों के बीच में सामग्री ढूंढकर उस पर गद्य या पद्य लिखने से केवल आप सम्मानीय नहीं हो जायेंगे बल्कि उसमेें ऐसे निष्कर्ष भी रखने पड़ेंगे जिनमें अध्यात्मिकता का बोध होता हो।
यहां अध्यात्म से आशय भी स्पष्ट कर दें। श्रीमद्भागवत गीता में अध्यात्म हमारी देह के अंदर मौजूद वह तत्व है जो परमात्मा का अंश है। इसी को जानने समझने की प्रक्रिया का नाम अध्यात्मिकता है। इस प्रक्रिया से निकले संदेश को ही अध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है। देह से संबंधित सारे ज्ञान सांसरिक होते हैं जिनको आप विज्ञान भी कह सकते हैं। आप अपनी रचनाओं में सांसरिक बातों पर लिखकर खूब नाम और नामा कमा सकते हैं पर सामान्य हिंदी भाषी-यह नियम क्षेत्रीय भाषाओं पर भी लागू है-आपको देव लेखक नहीं मानेगा। इतना ही नहीं अगर आप हिंदी का विरोध भी करते हैं तो बहुत कम लोग उस पर विचलित होंगे। वजह हिंदी के स्वाभाविक अध्यात्मिक भाव से ओतप्रोत लोग यह जानते हैं कि जिसके पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं है वही ऐसा करता है।
इसलिये हिंदी के समर्थक और विरोधियों को सामान्य हिन्दी भाषी से यह अपेक्षा बिल्कुल नहीं करना चाहिए कि वह उनके द्वंद्वों को देखकर उनको अनुग्रहीत करने वाला है। केवल हिन्दी भाषा ही नहीं बल्कि किसी भी भारतीय भाषा का भी यही स्वभाव है और हिन्दी का विरोध किसी भी भाषा का आम आदमी नहीं करेगा। आखिर इसमें भी उन्हीं पवित्र नामों का समावेश है-यथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक देव, शिवाजी, समर्थ रामदास, कबीर, तुलसी, रहीम, सूरदास, तथा सुब्रह्मण्यम भारती-जो कि अन्य भाषाओं में है। लोगों की भाषा अलग है पर उनके मन में बसे नाम वैसे ही हिंदी में है तो भला आम आदमी इसका क्यों अपमान करना चाहेगा?
इसलिये हिंदी के समर्थक अगर यह सोचते हों कि हिंदी बचाने के नारे पर सब उनके साथ आकर खड़े हों तो उनको अपने चरित्र में देवत्व का प्रमाण देना होगा। उसी तरह हिंदी के विरोध करने वालों को भी यह प्रमाणित करना होगा कि वह प्राचीन काल के देवताओं और दैत्यों से अधिक शक्तिशाली हैं। यह हिन्दी अध्यात्म की भाषा है जो बिना शब्द बोले भी गेय होती है-अरे, आपने देवताओं के नाम सुने तो होंगे उनके फोटो देखकर कोई भी पहचान जाता है कि यह किसका नाम है भले ही उस पर नाम न लिखा हो। उसी तरह मंदिर में जाकर कोई गैर हिंदी भाषी आदमी हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम करता है तो उसके पास खड़ा गैर हिन्दी भाषी यह जानते हैं कि वह भगवान को सादर प्रणाम कर रहा है। इस क्रिया को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जाता पर हाथ पांव उसकी अनुभूति करा देते हैं अगर आपको इस पर शक हो तो वृंदावन या हरिद्वार में जाकर ऐसे स्थानों-यथा बांके बिहारी मंदिर और हर की पौड़ी-पर जाकर देखें जहां अनेक लोग ऐसे आते हैं जिनको हिन्दी नहीं आती पर वह अपने लोगों के साथ वहां आकर अपने मन को प्रफुल्लित करते हैं। वहां हिन्दी अव्यक्त है पर उसका भाव सभी के मन में है।
अधिक क्या लिखें? सभी भारतीय भाषाऐं अध्यात्मिक ज्ञान से संपन्न हैं इसलिये उनके आपसी विरोध संभव नहीं है। हमें तो लगता है कि यह विवाद वह लोग योजनाबद्ध ढंग से जीवित रखना चाहते हैं जो हिन्दी या भारतीय भाषा बोलते हैं पर उसके अध्यात्मिक ज्ञान का उनमें अभाव है। यह हमारा मत है। हम कोई सिद्ध नहीं है। जो एक आम आदमी के रूप में आता है लिख देते हैं। कोई गल्ती हो उससे पीछे हटने में हमें संकोच नहीं होता क्योंकि अध्यात्मिक ज्ञान पढ़ते हुए हमने यही सीखा है।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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अपने अपने धर्म से ऊबते लोग -आलेख चिंत्तन


धर्म और अध्यात्म दो प्रथक विषय हैं। धर्म ऐसे रीति रिवाजों, कर्मकांडों और पूजा पद्धतियों से मिलकर बनाया गया एक बृहद विषय है जो सांसरिक कार्यों के लिये किसी समूह विशेष से जोड़ता है और जिसे मन चाहे ढंग से बदला भी जा सकता है। उसमें अध्यात्मिक शांति ढूंढना एक निरर्थक प्रयास है।
पहले तो अध्यात्म का मतलब समझ लें। अध्यात्म वह निराकार स्वरूप है जो इस पंच तत्वों से बनी इस देह में स्थित है। मन, बुद्धि और अहंकार तीन ऐसी प्रकृतियां हैं जो इसमें स्वाभाविक रूप से पैदा होकर उसका संचालन करती हैं पर वह अध्यात्म का भाग कतई नहीं है। अध्यात्मिक ज्ञान जीवन के सत्य का ज्ञान है जिसे कभी बदला नहीं जा सकता। हां, यह सच है कि बुद्धि और मन की क्रियाओं से ही अध्यात्म को समझा जा सकता है पर उसके लिये यह आवश्यक है कि कोई ज्ञानी हमारा गुरू बन जाये और इस बात का आभास कराये। वह भी मिल सकता है पर उसके लिये हमें पहले संकल्प करना पड़ता है। अध्यात्म शिक्षा की सबसे बड़ी पुस्तक या कहें इकलौती केवल श्रीगीता ही है जिसमें अध्यात्म ज्ञान पूर्णतः शामिल है। सांसरिक विषयों का ज्ञान तो नहीं दिया गया पर उसके मूल तत्व-जिनको विज्ञान भी कहा जाता है-बताये गये हैं। सीधे कहें तो वह दुनियां की एकमात्र पुस्तक है जिसमें अध्यात्म ज्ञान और सांसरिक विज्ञान एक साथ बताया गया है। अध्यात्मिक ज्ञान का आशय है स्वयं को जानना। स्वयं को जान लिया तो संसार को जान लिया।
धर्म प्रसन्न कर सकता है तो निराश भी। उससे मन को शांति भी मिल सकती है और अशांति भी। कभी उसमें अगर आसक्ति हो सकती है तो विरक्ति भी हो सकती है। एक धर्म से विरक्ति हो तो दूसरे में आसक्ति की मनुष्य तलाश करता है मगर कुछ दिन बात वहां से भी उकता जाता है और कहीं उससे तनाव भी झेलना पड़ता है क्योंकि छोड़ने से पुराना समूह नाराज होता है और विरक्ति का भाव दिखाने से नया। ऐसे में आदमी अकेला पड़ने की वजह से तनाव को झेलता है।
आखिर यह सब क्यों लिखा जा रहा है। आज एक अंग्रेजी ब्लाग देखा जिसमें लेखक अपने धर्म से विरक्ति होकर तमाम तरह की निराशा व्यक्त कर रहा था। वह अपने सर्वशक्तिमान की दरबार में हमेशा जाता था। अपनी पवित्र पुस्तक पढ़ता था। उससे उसका मन कभी नहीं भरा। एक समय उसके अंदर खालीपन आता गया। उसने अपने धार्मिक कर्मकांड छोड़ दिये और अच्छा इंसान बनने के लिये उसने दूसरों की सहायता करने का काम शुरु किया। उसने दुनियां के सभी धर्म को एक मानते हुए उन पर तमाम तरह की निराशा अपने पाठ में व्यक्त की। दूसरे की सहायता कर वह अपने अंदर खुशी अनुभव करता है यह अच्छी बात है पर फिर भी कहीं न कहीं खालीपन दिखाई देता है। अध्यात्म ज्ञान के अभाव में यह भटकाव स्वाभाविक है।

लेखक उसकी बात का जवाब इसलिये नहीं दे पाया क्योंकि एक तो अंग्रेजी नहीं आती। दूसरे यह कि 119 टिप्पणियां प्राप्त उस पाठ में वह लेखक दूसरों की बात का जवाब भी दे रहा था। सीधे कहें तो जीवंत संपर्क बनाये हुए था। उन टिप्पणियों में भी लगभग ऐसे ही सवाल उठाये गये जैसे लेखक ने कही थी। तात्पर्य यह था कि लेखक का पाठ केवल उसके विचारों का ही नहीं वरन् दुनियां के अनेक लोगों की मानसिक हलचल का प्रतिबिंब था। ऐसे में एक अलग से विचार लिखना आवश्यक लगा। आजकल अनुवाद टूलों की उपलब्धता है और हो सकता है कि उस ब्लाग लेखक की दृष्टि से हमारा पाठ भी गुजर जाये और न भी गुजरे तो उस जैसे विचार वालें अन्य लोग इसे पढ़ तो सकते हैं।
इस ब्लाग/पत्रिका का लेखक आखिर क्या कहना चाहता था? यही कि भई, धर्म छोड़ने या पकड़ने की चीज नहीं है। भले ही हम दोनों का धर्म अलग है पर फिर भी यही सलाह दे रहा हूं कि, अपना धर्म छोड़ने की बात मत कहो। चाहे सर्वशक्तिमान की दरबार में जाते हो बंद मत करो। अच्छा काम करना शुरु किया है जारी रखो। बस सुबह उठकर थोड़ा प्राणायम करने के बाद ध्यान आदि करो। अपनी पवित्र पुस्तक पढ़ते हो पढ़ो पर अगर श्रीगीता का अंग्रेजी अनुवाद कहीं मिल जाये तो उसे पढ़ो। नहीं समझ में आये तो हमसे चर्चा करो। गुरू जैसे तो हम नहीं है पर चर्चा कर कुछ समझाने का प्रयास करेंगे। हम हिंदी में लिखेंगे तुम गूगल टूल से अंग्रेजी में अनुवाद कर पढ़ना।’
मगर यह सब नहीं लिखा क्योंकि हमें लगा कि कहीं उसने वार्तालाप प्रारंभ कर दिया तो बहुत कठिन होगा अंग्रेजी में जवाब देना। तब सोचा कि चलो इस विषय पर लिखना आवश्यक है। वजह यह थी कि 119 टिप्पणियों में भी दुनियां के सभी धर्मों को एक मानकर यह बात कही गयी थी। उसमें भारतीय धर्म को मानने वाले केवल एक आदमी की टिप्पणी थी जिसमें केवल वाह वाह की गयी थी। अन्य धर्मों के लोग उसकी बात से सहमत होते नजर आ रहे थे।

यह ब्लाग देखकर लगा कि लोग धर्म से इसलिये ऊब जाते हैं क्योंकि उनमें केवल सांसरिक कर्मकांडों की प्रेरणा से स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग बताया जाता है पर अध्यात्म शांति का कोई उपाय उनमें नहीं है। वैसे तो भारत में उत्पन्न धर्म भी कम उबाऊ नहीं है पर अध्यात्म चर्चा निरंतर होने के कारण लोगों को उसका पता नहीं है चलता फिर हमारे महापुरुषों-भगवान श्रीराम चंद्र जी, श्री कृष्ण जी, श्रीगुरुनानक देवजी ,संत कबीर,कविवर रहीम तथा अन्य-ने जीवन के रहस्यों को उजागर करने के साथ अध्यात्मिक ज्ञान का संदेश भी दिया और नित उनकी चर्चा के कारण लोग अपने मन को प्रसन्न रखने का प्रयास करते हैं। केवल धर्मकांडों में लिप्त रहने से उत्पन्न ऊब उनको अंदर तनाव अधिक पैदा नहीं कर पाती हालांकि नियमित अभ्यास के कारण उनको अनेक बार तनाव से बचने का उपाय नजर नहीं आता।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सट्टा खेलने वालों को समाज सम्मान से नहीं देखता-आलेख


सच बात तो यह है कि सट्टा एक विषय है जिस पर अर्थशास्त्र में विचार नहीं किया जाता। पश्चिमी अर्थशास्त्र अपराधियों, पागलों और सन्यासियों को अपने दायरे से बाहर मानकर ही अपनी बात कहता है। यही कारण है कि क्रिकेट पर लगने वाले सट्टे पर यहां कभी आधिकारिक रूप से विचार नहीं किया जाता जबकि वास्तविकता यह है कि इससे कहीं कहीं देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिति प्रभावित हो रही है।
पहले सट्टा लगाने वाले आमतौर से मजदूर लोग हुआ करते थे। अनेक जगह पर सट्टे का नंबर लिखा होता था। सार्वजनिक स्थानों-खासतौर से पेशाबघरों- पर सट्टे के नंबर लिखे होते थे। सट्टा लगाने वाले बहुत बदनाम होते थे और उनके चेहरे से पता लग जाता था कि उस दिन उनका नंबर आया है कि नहीं। उनकी वह लोग मजाक उड़ाते थे जो नहीं लगाते थे और कहते-‘क्यों आज कौनसा नंबर आया। तुम्हारा लगा कि नहीं।’
कहने का तात्पर्य यह है कि सट्टा खेलने वाले को निम्नकोटि का माना जाता था। चूंकि वह लोग मजदूर और अल्प आय वाले होते थे इसलिये अपनी इतनी ही रकम लगाते थे जिससे उनके घर परिवार पर उसका कोई आर्थिक प्रभाव नहीं पड़े।

अब हालात बदल गये हैं। दिन ब दिन ऐसी घटनायें हो रही हैं जिसमें सट्टा लगाकर बरबाद हुए लोग अपराध या आत्महत्या जैसे जघन्य कार्यों की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। इतना ही नहीं कई जगह तो ऐसे सट्टे से टूटे लोग अपने ही परिवार के लोगों पर आक्रमण कर देते हैं। केवल एक ही नहीं अनेक घटनायें सामने आयी हैं जिसमें सट्टे में बरबाद हुए लोगों ने आत्मघाती अपराध किये। होता यह है कि यह खबरें आती हैं तो सनसनी कुछ यूं फैलायी जाती है जिसमें रिश्तों के खून होने की बात कही जाती है। कहा जाता है कि ‘अमुक ने अपने माता पिता को मार डाला’, अमुक ने अपनी पत्नी और बच्चों सहित जहर खा लिया’, ‘अमुक ने अपनी बहन या भाई के के घर डाका डाला’ या ‘अमुक ने अपने रिश्ते के बच्चे का अपहरण किया’। उस समय प्रचार माध्यम सनसनी फैलाते हुए उस अपराधी की पृष्ठभूमि नहीं जानते पर जब पता लगता है कि उसने सट्टे के कारण ऐसा काम किया तो यह नहीं बताते कि वह सट्टा आखिर खेलता किस पर था।’
सच बात तो यह है कि सट्टे में इतनी बरबादी अंको वाले खेल में नहीं होती। फिर सट्टे में बरबाद यह लोग शिक्षित होते हैं और वह पुराने अंकों वाले सट्टे पर शायद ही सट्टा खेलते हों। अगर खेलते भी हों तो उसमें इतनी बरबादी नहीं होती। बहुत बड़ी रकम पर सट्टा संभवतः क्रिकेट पर ही खेला जाता है। प्रचार माध्यम इस बात तो जानकर छिपाते हैं यह अनजाने में पता नहीं। हो सकता है कि इसके अलावा भी कोई अन्य प्रकार का सट्टा खेला जाता हो पर प्रचार माध्यमों में जिस तरह क्रिकेट पर सट्टा खेलने वाले पकड़े जाते हैं उससे तो लगता है कि अधिकतर बरबाद लोग इसी पर ही सट्टा खेलते होंगे।
अनेक लोग क्रिकेट खेलते हैं और उनसे जब यह पूछा गया कि उनके आसपास क्या कुछ लोग क्रिकेट पर सट्टा खेलते है तो वह मानते हैं कि ‘ऐसा तो बहुत हो रहा है।’
सट्टे पर बरबाद होने वालों की दास्तान बताते हुए प्रचार माध्यम इस बात को नहीं बताते कि आखिर वह किस पर खेलता था पर अधिकतर संभावना यही बनती है कि वह क्रिकेट पर ही खेलता होगा। लोग भी सट्टे से अधिक कुछ जानना नहीं चाहते पर सच बात तो यह है कि क्रिकेट पर सट्टा खेलना अपने आप में बेवकूफी भरा कदम है। सट्टा खेलने वालों को निम्न श्रेणी का आदमी माना जाता है भले ही वह कितने बड़े परिवार का हो। सट्टा खेलने वालों की मानसिकता सबसे गंदी होती है। उनके दिमाग में चैबीसों घंटे केवल वही घूमता है। देखा यह गया है कि सट्टा खेलने वाले कहीं से भी पैसा हासिल कर सट्टा खेलते हैं और उसके लिये अपने माता पिता और भाई बहिन को धोखा देने में उनको कोई संकोच नहीं होता। इतना ही नहीं वह बार बार मरने की धमकी देकर अपने ही पालकों से पैसा एैंठते हैं। कहा जाता है कि पूत अगर सपूत हो तो धन का संचय क्यों किया जाये और कपूत हो तो क्यों किया जाये? अगर धन नहीं है तो पूत ठीक हो तो धन कमा लेगा इसलिये संचय आवश्यक नहीं है और कपूत है तो बाद में डांवाडोल कर देगा पर अगर सट्टेबाज हुआ तो जीते जी मरने वाले हालत कर देता है।
देखा जाये तो कोई आदमी हत्या, चोरी, डकैती के आरोप में जेल जा चुका हो उससे मिलें पर निकटता स्थापित नहीं करे पर अगर कोई सट्टेबाज हो तो उसे तो मिलना ही व्यर्थ है क्योंकि इस धरती पर वह एक नारकीय जीव होता है। एक जो सबसे बड़ी बात यह है कि क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा अनेक बड़े चंगे परिवारों का नाश कर चुका है और यकीनन कहीं न कहीं इससे देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है। देश से बाहर हो या अंदर लोग क्रिकेट पर सट्टा लगाते हैं और कुछ लोगों को संदेह है कि जिन मैचों पर देश का सम्मान दांव पर नहीं होता उनके निर्णय पर सट्टेबाजों का प्रभाव हो सकता है। शायद यही कारण है कि देश की इज्जत के साथ खेलकर सट्टेबाजों के साथ निभाने से खिलाड़ियों के लिये जोखिम भरा था।
इसलिये अंतर्राष्ट्रीय मैचों के स्थान पर क्लब स्तर के मैचों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। क्लब स्तर की टीमों मे देश के सम्मान का प्रश्न नहीं होता। सच क्या है कोई नहीं जानता पर इतना तय है कि क्रिकेट पर लगने वाला सट्टा देश को खोखला कर रहा है। जो लोग सट्टा खेलते हैं उन्हें आत्म मंथन करना चाहिये। वैसे तो पूरी दुनियां के लोग भ्रम में जी रही है पर सट्टा खेलने वाले तो उससे भी बदतर हैं क्योंकि वह इंसानों के भेष में कीड़े मकौड़ों की तरह जीवन जीने वाले होते हैं और केवल उसी सोच के इर्दगिर्द घूमते हैं और तथा जिनकी बच्चे, बूढे, और जवान सभी मजाक उड़ाते हैं।
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