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अपने अपने धर्म से ऊबते लोग -आलेख चिंत्तन


धर्म और अध्यात्म दो प्रथक विषय हैं। धर्म ऐसे रीति रिवाजों, कर्मकांडों और पूजा पद्धतियों से मिलकर बनाया गया एक बृहद विषय है जो सांसरिक कार्यों के लिये किसी समूह विशेष से जोड़ता है और जिसे मन चाहे ढंग से बदला भी जा सकता है। उसमें अध्यात्मिक शांति ढूंढना एक निरर्थक प्रयास है।
पहले तो अध्यात्म का मतलब समझ लें। अध्यात्म वह निराकार स्वरूप है जो इस पंच तत्वों से बनी इस देह में स्थित है। मन, बुद्धि और अहंकार तीन ऐसी प्रकृतियां हैं जो इसमें स्वाभाविक रूप से पैदा होकर उसका संचालन करती हैं पर वह अध्यात्म का भाग कतई नहीं है। अध्यात्मिक ज्ञान जीवन के सत्य का ज्ञान है जिसे कभी बदला नहीं जा सकता। हां, यह सच है कि बुद्धि और मन की क्रियाओं से ही अध्यात्म को समझा जा सकता है पर उसके लिये यह आवश्यक है कि कोई ज्ञानी हमारा गुरू बन जाये और इस बात का आभास कराये। वह भी मिल सकता है पर उसके लिये हमें पहले संकल्प करना पड़ता है। अध्यात्म शिक्षा की सबसे बड़ी पुस्तक या कहें इकलौती केवल श्रीगीता ही है जिसमें अध्यात्म ज्ञान पूर्णतः शामिल है। सांसरिक विषयों का ज्ञान तो नहीं दिया गया पर उसके मूल तत्व-जिनको विज्ञान भी कहा जाता है-बताये गये हैं। सीधे कहें तो वह दुनियां की एकमात्र पुस्तक है जिसमें अध्यात्म ज्ञान और सांसरिक विज्ञान एक साथ बताया गया है। अध्यात्मिक ज्ञान का आशय है स्वयं को जानना। स्वयं को जान लिया तो संसार को जान लिया।
धर्म प्रसन्न कर सकता है तो निराश भी। उससे मन को शांति भी मिल सकती है और अशांति भी। कभी उसमें अगर आसक्ति हो सकती है तो विरक्ति भी हो सकती है। एक धर्म से विरक्ति हो तो दूसरे में आसक्ति की मनुष्य तलाश करता है मगर कुछ दिन बात वहां से भी उकता जाता है और कहीं उससे तनाव भी झेलना पड़ता है क्योंकि छोड़ने से पुराना समूह नाराज होता है और विरक्ति का भाव दिखाने से नया। ऐसे में आदमी अकेला पड़ने की वजह से तनाव को झेलता है।
आखिर यह सब क्यों लिखा जा रहा है। आज एक अंग्रेजी ब्लाग देखा जिसमें लेखक अपने धर्म से विरक्ति होकर तमाम तरह की निराशा व्यक्त कर रहा था। वह अपने सर्वशक्तिमान की दरबार में हमेशा जाता था। अपनी पवित्र पुस्तक पढ़ता था। उससे उसका मन कभी नहीं भरा। एक समय उसके अंदर खालीपन आता गया। उसने अपने धार्मिक कर्मकांड छोड़ दिये और अच्छा इंसान बनने के लिये उसने दूसरों की सहायता करने का काम शुरु किया। उसने दुनियां के सभी धर्म को एक मानते हुए उन पर तमाम तरह की निराशा अपने पाठ में व्यक्त की। दूसरे की सहायता कर वह अपने अंदर खुशी अनुभव करता है यह अच्छी बात है पर फिर भी कहीं न कहीं खालीपन दिखाई देता है। अध्यात्म ज्ञान के अभाव में यह भटकाव स्वाभाविक है।

लेखक उसकी बात का जवाब इसलिये नहीं दे पाया क्योंकि एक तो अंग्रेजी नहीं आती। दूसरे यह कि 119 टिप्पणियां प्राप्त उस पाठ में वह लेखक दूसरों की बात का जवाब भी दे रहा था। सीधे कहें तो जीवंत संपर्क बनाये हुए था। उन टिप्पणियों में भी लगभग ऐसे ही सवाल उठाये गये जैसे लेखक ने कही थी। तात्पर्य यह था कि लेखक का पाठ केवल उसके विचारों का ही नहीं वरन् दुनियां के अनेक लोगों की मानसिक हलचल का प्रतिबिंब था। ऐसे में एक अलग से विचार लिखना आवश्यक लगा। आजकल अनुवाद टूलों की उपलब्धता है और हो सकता है कि उस ब्लाग लेखक की दृष्टि से हमारा पाठ भी गुजर जाये और न भी गुजरे तो उस जैसे विचार वालें अन्य लोग इसे पढ़ तो सकते हैं।
इस ब्लाग/पत्रिका का लेखक आखिर क्या कहना चाहता था? यही कि भई, धर्म छोड़ने या पकड़ने की चीज नहीं है। भले ही हम दोनों का धर्म अलग है पर फिर भी यही सलाह दे रहा हूं कि, अपना धर्म छोड़ने की बात मत कहो। चाहे सर्वशक्तिमान की दरबार में जाते हो बंद मत करो। अच्छा काम करना शुरु किया है जारी रखो। बस सुबह उठकर थोड़ा प्राणायम करने के बाद ध्यान आदि करो। अपनी पवित्र पुस्तक पढ़ते हो पढ़ो पर अगर श्रीगीता का अंग्रेजी अनुवाद कहीं मिल जाये तो उसे पढ़ो। नहीं समझ में आये तो हमसे चर्चा करो। गुरू जैसे तो हम नहीं है पर चर्चा कर कुछ समझाने का प्रयास करेंगे। हम हिंदी में लिखेंगे तुम गूगल टूल से अंग्रेजी में अनुवाद कर पढ़ना।’
मगर यह सब नहीं लिखा क्योंकि हमें लगा कि कहीं उसने वार्तालाप प्रारंभ कर दिया तो बहुत कठिन होगा अंग्रेजी में जवाब देना। तब सोचा कि चलो इस विषय पर लिखना आवश्यक है। वजह यह थी कि 119 टिप्पणियों में भी दुनियां के सभी धर्मों को एक मानकर यह बात कही गयी थी। उसमें भारतीय धर्म को मानने वाले केवल एक आदमी की टिप्पणी थी जिसमें केवल वाह वाह की गयी थी। अन्य धर्मों के लोग उसकी बात से सहमत होते नजर आ रहे थे।

यह ब्लाग देखकर लगा कि लोग धर्म से इसलिये ऊब जाते हैं क्योंकि उनमें केवल सांसरिक कर्मकांडों की प्रेरणा से स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग बताया जाता है पर अध्यात्म शांति का कोई उपाय उनमें नहीं है। वैसे तो भारत में उत्पन्न धर्म भी कम उबाऊ नहीं है पर अध्यात्म चर्चा निरंतर होने के कारण लोगों को उसका पता नहीं है चलता फिर हमारे महापुरुषों-भगवान श्रीराम चंद्र जी, श्री कृष्ण जी, श्रीगुरुनानक देवजी ,संत कबीर,कविवर रहीम तथा अन्य-ने जीवन के रहस्यों को उजागर करने के साथ अध्यात्मिक ज्ञान का संदेश भी दिया और नित उनकी चर्चा के कारण लोग अपने मन को प्रसन्न रखने का प्रयास करते हैं। केवल धर्मकांडों में लिप्त रहने से उत्पन्न ऊब उनको अंदर तनाव अधिक पैदा नहीं कर पाती हालांकि नियमित अभ्यास के कारण उनको अनेक बार तनाव से बचने का उपाय नजर नहीं आता।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

अध्यात्मिक केंद्र हैं कि व्यापारिक-आलेख


भारत में अधिकतर लोगों का अध्यात्म के प्रति झुकाव स्वाभाविक कारणों से होता है। मात पिता और अन्य बुजुर्गों की प्रेरणा से अपने देवताओं की तस्वीरों के प्रति उनका आकर्षण इतना रहता है कि बचपने में ही उनके अध्ययने की किताबों और कापियों पर उनकी झाकियां देखी जा सकतीं हैं। मुझे याद है कि बचपन में जब कापियां खरीदने जाता तो भगवान की तस्वीरों की ही खरीदता था। एक बार अपनी मां से पैसे लेकर एक मोटी कापी लेने बाजार गया वहां पर भगवान की तस्वीर वाली कापी तो नहीं मिली हां एक कापी पर ‘ज्ञान संचय’ छपा था वह खरीद ली। वह घर लाया तो ‘ज्ञान’ शब्द ने दिमाग पर ऐसा प्रभाव डाला कि उस कुछ ऐसे ही लिखना शुरू कर दिया। फिर एक छोटी कहानी लिखने का प्रयास किया। तब मैंने सोचा कि इस पर तो मैं कुछ और लिखूंगा और विद्यालय का काम उस पर न करने का विचार किया। इसलिये फिर अपनी मां से दूसरी कापी लेने बाजार गया और अपने मनोमुताबिक भगवान जी की तस्वीर वाली किताब ले आया। वह ज्ञान संचय वाली किताब मुझे लेखक बनाने के काम में आयी।

आशय यह है कि पहले बाजार लोगों की भावनाओं को भुनाता था और ऐसी देवी देवताओं की तस्वीर वाली किताबें और कापियां छापता था जिससे लोग खरीदें। बाजार आज भी यही करता है और मैं उस पर कोई आक्षेप भी नहीं करता क्योंकि उसका यही काम है पर उसके सामने अब दूसरा संकट है कि आज के अनेक अध्यात्मिक संतों ने अपना ठेका समझकर अनेक वस्तुओं का उत्पादन और वितरण अपने हाथ के लिया है जिनका अध्यात्म से कोई संबंध नहीं और इस तरह उसने बाजार में बिकने वाली वस्तुओं की बिक्री में से बहुत बड़ा भाग छीन लिया है। दवायंे, कैलेंडर, पेन, चाबी के छल्ले, डायरी और कापियां भी ऐसे आध्यात्मिक संस्थान बेचने लगे हैं जिन्हें केवल प्रचार का काम करना चाहिए।

उस दिन एक कापी और किताब बेचने वाले मेरे मित्र से मेरी मुलाकात हुई। मैं स्कूटर पर उसकी दुकान पर गया और कोई सामान उसे देने के लिये ले गया। उससे जब मैंने धंधे के बारे में पूछा तो उसने बातचीत में बताया कि अब अगर अध्यात्म लोग पेन, डायरियां और कापियां बेचेंगे तो हमसे कौन लेगा? अब तो संतों के शिष्य अधिक हो गये हैं और वह कापियां और पेन बेचते हैं। अगर कहो तो उनके भक्त घर पर भी दे जाते हैं।

मै सोच में पड़ गया क्योंकि मात्र पंद्रह मिनट पहले ही मुझे मेरे एक साथी ने एक रजिस्टर दिया था और और वह अध्यात्मिक संस्थान द्वारा प्रकाशित था। उस पर अध्यात्मक संत का चित्र भी था। मैनें उससे कई बार ऐसा रजिस्टर लिया है। वह और उस जैसे कई लोग आध्यात्मिक संस्थाओं को उत्पादों को सेवा भाव से ऐसी वस्तुऐं उपलब्ध कराते हैं। देखा जाये तो वह अध्यात्मिक कंपनियों के लिये भक्त लोग मुफ्त में हाकर की भूमिका अपने भक्ति भाव के कारण निभाते हैं। कई जगह इन अध्यात्मिक संस्थानों की बसें अपने उत्पाद बेचने के लिये आतीं हैं। कई संस्थान अपनी मासिक पत्रिकायें निकालते हें लोग पढ़ें या नहीं पर भक्ति भाव के कारण खरीदते हैं। इस तरह जहां घरों में पहले साहित्यक या सामाजिक पत्र पत्रिकाओं की जगह थी वहां इन धार्मिक पत्रिकाओं ने ले ली है। शायद कुछ हंसें पर यह वास्तविकता है कि पहलंे और अब का यह फर्क मेरा बहुत निकट से कई घरों में देखा हुआ है।

अधिक विस्तार से समझाने की आवश्यकता नहीं है कि दवाओं से लेकर चाबी के छल्ले बेचने वाले अध्यात्मिक संस्थानों की वजह से भी हमारे देश के छोटे कामगारों और व्यवसायियों की रोजी रोटी प्रभावित हुई है। हम अक्सर विदेशी और देशी कंपनियों पर लघु उद्योगों को चैपट करने का आरोप लगाते हैं पर देखा जाय तो उत्पादन से लेकर वितरण तक अपने भक्तों की सहायता से काम करने वाले इन अध्यात्मिक संस्थाओं ने भी कोई कम क्षति पहुंचाई होगी ऐसा लगता नहीं है। हमारा यह विचार कि हिंदी के पाठक कम हैं इसलिये पत्र-पत्रिकायें कम पढ़ी जा रही हैं। वस्तुतः उनकी जगह इन पत्रिकाओं ने समाप्त कर दी है। बढ़ती जनसंख्या के साथ जो पाठक बढ़े उन पर इन आध्यात्मिक पत्रिकाओं ने उन पर नियंत्रण कर लिया। इनके प्रचार प्रसार की संख्या का किसी को अनुमान नहीं है पर मैं आंकड़ों के खेल से इसलिये परे रहता हूं क्योंकि जो सामने देख रहा हूं उसके लिये प्रमाण की क्या जरूरत हैं। अधिकतर घरों में मैंने ऐसी आध्यात्मिक पत्रिकायें और अन्य उत्पाद देखे हैं और लगता है कि अगर यह अध्यात्मिक संस्थान उन वस्तुओं के उत्पाद और वितरण से परे रहते तो शायद रोजगार के अवसर समाज में और बढ़ते।

अपने अध्यात्मिक विषयों में मेरी रुचि किसी से छिपी नहीं है मै अंधविश्वास और अंध भक्ति में यकीन नहींे करता और मेरा स्पष्ट मत है कि अध्यात्म के विषयों का अन्य विषयों के कोई संबंध नहीं है। अगर आप ज्ञान और सत्संग का प्रचार कर रहे हैं तो किसी अन्य विषय से संबंध रखकर अपनी विश्वसीनयता गंवा देते हैं। यही वजह है कि आजकल लोग संतों पर भी जमकर आक्षेप कर रहे हैं। मै संतों पर आक्षेप के खिलाफ हूं पर जिस तरह अध्यात्मिक संस्थान अन्य सांसरिक उत्पादों के निर्माण और वितरण का कार्य छोटे लोगों को रोजगार के अवसरों को नष्ट कर रहे हैं उसके चलते किसी को ऐसे आक्षेपों से रोकना भी मुश्किल है। अगर लोगों के किसी कारण रोजगार के अवसर प्रभावित होते हैं तो उस पर आक्षेप करना उनका अधिकार है।

बाजार अगर लोगों की भावनाओं को भुनाता है तो उससे बचने के लिये लोगों को अध्यात्म का ज्ञान कराकर बचाया जा सकता है पर अगर अध्यात्मिक संस्थान ही इसकी आड़ में अपना बाजार चलाने लगें तो फिर उनको अध्यात्म ज्ञान देना भी कठिन क्योंकि उनके चिंतन और अध्ययन की बौद्धिक क्षमता का हरण उनके कथित गुरू अपने उपदेशों से पहले कर चुके हैं।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

उसे ही प्यार करते हैं जो करीब होता है-कविता


यूं तो दिल सभी की देह में होता है
पर खुशनसीब होते हैं वह जिनको
जिंदगी में प्यार नसीब होता है

देखकर पर्दे पर चलचित्र का प्यार
नाचते गाते नायक-नायिका
अपनी जिंदगी में वैसा ही सच देखनें के लिए
कई लोग तरस जाते है
पर जमीन पर न कोई नायक होता न नायिका
यहां बगीचों में जाकर घूमते हुए में भी
पहरेदारों के डंडे बरस जाते है
हीरो बूढ़ा भी हो तो
तो कमसिन मिल जाती है प्यार करने के लिए
पर सच में कोई कोई आंख उठाकर भी देख ले
भला ऐसा भी कहां गरीब होता है

प्यार भरे गाने सुनते हुए बीत गये बरसों
दिल की दिल में रह गयी
इंतजार तो इंतजार ही रहा
शायद कोई सच में नहीं प्यार करे
तो दिल्लगी ही कर ले
आज, कल या परसों
परदे के चलचित्र से परे रहकर
जब देखते हैं अपनी जिंदगी तो
उसे ही प्यार करते हैं
जो शरीर के करीब होता है
फिर भी गीतों में झूम लेते हैं
यही ख्याल करते हुए
गीत-संगीत पर झूम सकते हैं
यह भी किसी किसी का नसीब होता है

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दीपक भारतदीप

गिरने से पहले वह डालियां सीना तानकर खड़ी थीं


हम किसी बड़ी इमारत में ऐसी जगह बैठे हैं जहां दिन में भी बिजली जलाना पड़ती है। इस कारण चारों तरफ रोशनी बिखरी रहती है। खिड़किया खुली हैं और उन पर रंग बिरंगे पर्दे लहलहा रहे हैं। बाहर तेज गर्मी है और लोग अंदर ऐसी और कूलर में आनंद के साथ बैठकर एक दूसरे से बात कर रहे हैं। अचानक आंधी आती है। बहुत जोर की आंधी हमला करती हुई प्रतीत होती है तो सारा दृश्य बदल जाता है। बिजली चली आती है और खिड़कियां से पल्ले आपस में इतने भयानक रूप से लड़ते हैं जैसे भूतों की कोई फिल्म देख रहे है। खिड़किया बंद कर धूल को अंदर रोकने का प्रयास भी भयानक होता है। अचानक कांच टूटकर आदमी के शरीर पर आ गिरने का खतरा दिखाई देता है। बाहर भी अंधेरा अंदर भी अंधेरा। जो मन अभी दूसरों के साथ बैठकर अंदर बाहर प्रकाश की अनुभूति कर रहा था वह भी अंधेरे में बैठा दिखाई देता है। हंसी ठिठोली के साथ बात करते हुए लोग भयभीत हो जाते हैं। अगर कोई घर से बाहर है तो वह मोबाइल से फोन कर अपने परिवार वालों को सूचित करता है कि ‘मै इधर ठीक हूं तुम घर का ख्याल रखना’। बाहर वायु देवता के प्रकोप से उपजी आंधी चल रही है और मन में चिंताओं की चिता जल रही है।

सच मौसम की तरह जीवन है या यूं कहें कि जीवन की तरह मौसम है। कब मौसम बदले और कब जीवन का रूप कौन जानता है।

मैं रास्ते में स्कूटर पर हूं। आंधी से उड़ती धूल मुझ पर आक्रमण कर मेरी आंखों में प्रवेश कर चुकी है। वह धूल जो कई बार मेरे पांव तले रौंदी गयी है वह हवा के सहारे उड़कर मेरा मार्ग अवरुद्ध करती दृष्टिगोचर हो रही है वह शक्ति का प्रदर्शन कर बता रही है कि प्रतिदिन रौंदे जाने का आशय यह कतई नहीं है कि उसकी कोई शक्ति नहीं है। मैं रुकने के लिये इधर उधर देखता हूं। कुछ पेड़ खड़े दिखाई देते हैं। इनके नीचे कई बार वर्षा होने पर मैंने आश्रय लिया है। यह मेरे प्रतिदिन का मार्ग है पर आज अजनबी हो गया लगता है। मैं इन पेड़ों के नीचे आश्रय लेने की सोच भी नहीं सकता। अचानक वर्षा भी शूरू हो जाती है। मैं स्कूटर लेकर आगे बढ़ता जा रहा हूं। मुझे अपने अंदर ही लड़खड़ाहट का अनुभव होता है। आखिर एक बंद दुकान के नीचे रुकने का निर्णय करता हूं। वहां एक अन्य पथिक भी शायद आश्रय लेकर खड़ा है। मैं स्कूटर खड़ा कर वहां खड़ा हो जाता हूं। थोड़ी दूर पर एक बड़ा पेड़ है पर वहां से कोई खतरा नहीं है।

मैं खड़ा होता हूं, मेरे जेब में रखे मोबाइल में हरकत होती लगती है। मैं फोन उठाता हूं। एक मित्र का फोन है। वह कभी मेरा ब्लाग नहीं पढ़ता पर उसे पता है कि मैं लिखता हूं। अन्य पढ़ने वालों ने उसे बताया भी है। उसे यह भी पता है कि लाईट न होने पर कुछ भी लिखना कठिन है-यह बात मैने उसे बताई। वह कई बार मजाक में विषय भी सुझाता है। मैं फोन उठाता हूं वह हंसते हुए पूछता है-‘‘इस समय कहां हो। कहीं बीच रास्ते में तो नहीं हो। आज तुम्हारे ब्लाग का क्या होगा?‘‘

सूरज डूब चुका है और उसे यह पता है कि मैं रात्रि को घर जाने वाला होता हूं। मेरे मन में विद्रुप भाव उत्पन्न होते हैं और मैं शुष्क भाव से कहता हूं-‘‘तुम्हें मेरी फिक्र है या अपनी? हां मैं तुम्हारा कम कर दूंगा। आज रात मैं उससे शायद ही मिल पाऊं। घर पहुंचने में देर हो जायेगी। फिर पता नहीं आज घर से बाहर जाऊं कि नहीं।

उसने कहा-‘चले जाना यार, इस आंधी में लाईट तो अभी कहीं भी नहीं बन पायेगीं। तुम लिख तो पाओगे नहीं। चले जाओगे तो मेरा काम हो जायेगा।’

अचानक आंधी और तेज हो जाती है। मैने उससे कहा-‘‘मुझे अभी कुछ सुनाई नहीं दे रहा। तुम बाद में बात करना।’

मैने फोन बंद कर दिया। मेरे अंदर उस समय अपने बचाव के लिये संघर्ष के विचार घुमड़ रहे हैं। आंधी की गति ने कुछ दूर खड़े पेड़ की डालियां नीचे गिर पड़ीं। आधे धंटे तक आंधी ने अपना रौद्र रूप दिखाया। जैसे प्रकृति मनुष्य का ललकार रही हो और संदेश देती हो‘आ जाओ, मुझसे युद्ध करो।’

हमेशा अहंकार में डूबे मनुष्य दुबके पड़े हैं। आंधी थम गयी है बरसात भी हल्की हो रही है। मै चलने को उद्यत होता हूं। साथ वाला राहगीर कहता है-‘‘देखिये पल भर में क्या हो जाता है। हम मनुष्य कुछ समझते नहीं। प्रकृति की ताकत देखिये। यह पेड़ की डालियां किस तरह सीना तानकर खड़ी थीं और अब किस तरह आंधी ने उनको गिरा दिया। यह पते जो शान लहरा रहे थे कैसे जमीन पर आकर गिरे।’

मै हंस पड़ा फिर उससे कहा-‘‘पर यह डालियां आंधी आने से पहले सीना तानकर खड़ी थीं। यह पत्ते लहरा रहे थे। यह अपना जीवन जी रहे थे और उसे इन्होंने शान से जिया। यह गिरे यह नहीं बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि यह कैसे जिये? यह प्राणवायु का विसर्जन कर मनुष्यों को जीवन प्रदान करते थे। गिर गये हैं तो भी किसी के काम आयेंगे। कहीं अग्नि में जलकर किसी की रोटी का निर्माण भी करेंगे। आप कुछ देर में देख लेना इनको लोग उठाने आयेंगे और वह कोई इनके निकट संबंधी नहीं होंगे।’

वह आदमी हैरानी से मुझे देख रहा था। फिर बोला-‘‘आपने तो बहुत ऊंची बात कह दी।’

मैंने उसके उत्तर का जवाब नहीं दिया। मैंने कुछ देर पहले ही विकराल आंधी को अपने पास से निकलते देखा था और उस उबा देने वाले संघर्ष ने मेरे को व्यथित कर दिया था कि कुछ अधिक सोच भी नहीं सकता था।

सुन्दर शब्द का सृजन, सबके नसीब नहीं होते


शब्द कभी स्वयं कभी बीभत्स नहीं होते
डरा देते हैं उनके भाव, अगर कोई बोले रोते .
जो ख्वाहिशों वास्ते कत्ल करते किसी की आह
उनको जिन्दगी में सुख के पल नसीब नहीं होते.
किताबों में लिखा बहुत सच है, पर पढे तो कोई
पढ़कर अगर नहीं समझे तो शब्द भी व्यर्थ होते .
बेबस और कमजोर की बददुआ में होती है ताकत
रूह से निकले शब्द कभी कमजोर नहीं होते .
कभी भी हो सकता है, कमजोर और बेबस कोई
उसमें गरीब और अमीर के बहुत भेद नहीं होते.
लिख सको कोई सुन्दर शब्द, बहुत बेहतर होगा
सुन्दर शब्द का सृजन, सबके नसीब नहीं होते.
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