Category Archives: योग साधना

मनुष्य बनाने की जरुरत-चिंतन आलेख (charitra aur manushya-chintan alekh)


ऐसा नहीं लगता कि निकट भविष्य में जाति पाति, धर्म, भाषा, और क्षेत्र के आधार पर बने समूहों के आपसी विवाद कोई थम जायेंगें। सच बात तो यह है कि पहले की अपेक्षा यह विवाद बढे़ हैं और इसमें कमी की आशा करना ही व्यर्थ है। समस्या यह है कि लोग देश, समाज, और शहर बनाने की बात तो करते हैं पर व्यक्ति निर्माण की बात कोई नहीं करता। बहसों में इस बात पर चर्चा अधिक होती है कि समाज कैसा है? इस प्रश्न से सभी लोग भागते हैं कि व्यक्ति कैसे हैं?
इन विवादों की जड़ में व्यक्ति के अंदर स्थित असुरक्षा की भावना है जो न चाहते हुए भी अपने समाज का हर विषय पर अंध समर्थन करने को बाध्य करती है। कई बार तो ऐसा होता है कि व्यक्ति सच जानते हुए भी- कि उसके संचालक प्रमुख केवल दिखावे के लिये समूह का हितैषी होने का दावा करते है जिसमें उनका स्वयं का स्वार्थ होता है-अपने समूह का समर्थन करता है। आजादी से पहले या बाद में जानबूझकर समूह बने रहने दिये गये ताकि उनके प्रमुख आपस में मिलकर अपने सदस्यों पर नियंत्रण कर अपना काम चलाते रहें। देश की हालत ऐसी बना दी गयी है कि हर आदमी अपने को असुरक्षित अनुभव करने लगा है और बाध्य होकर विपत्तिकाल में अपने समूह से सहयोग की आशा में उसके प्रमुख के नियंत्रणों को मान लेता है। आधुनिक शिक्षा ने जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र की भावना को समाप्त करने की बजाय बढ़ाया है। पहले अशिक्षित व्यक्ति चुप रहते थे यह सोचकर कि बड़ लोग ही जाने। मगर अब हालत यह है कि शिक्षित व्यक्ति ही अब समूह के समर्थन में ऐसी गतिविधियां करने लगे हैं कि आश्चर्य होता है। नई तकनीकी का उपयोग करने वाले आतंकवादी इस बात का प्रमाण है।

सर्वजन हिताय की बजाय सर्व समाज हिताय करने की नीति ने आम आदमी को बेबस कर दिया है कि वह अपने समूहों से जुड़ा रहे। अगर हम दैहिक जीवन के सत्यों को देखें तो यहां कोई किसी का नहीं है पर समूह प्रमुखों की प्रचार रणनीति यह है कि हम ही वह भगवान हैं जो तुम्हारा भला कर सकते हैं।
देश में सामान्य व्यक्ति के लिये बहुत कठिनता का दौर है। बेरोजगारी के साथ ही शोषण बढ़ रहा है। शोषित और शोषक के बीच भारी आर्थिक अंतर है। गरीब और आदमी के बीच अंतर की मीमांसा करना तो एक तरह से समय खराब करना है। आजादी के बाद देश की व्यवस्था संचालन में मौलिक रूप से बदलाव की बजाय अंग्रेजों की ही पद्धति को अपनाया गया जिनका उद्देश्य ही समाज को बांटकर राज्य करना था। मुश्किल यह है कि लोग इसी व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं बजाय बदलकर व्यवस्था चलाने के। आम आदमी का चिंतन मुखर नहीं होता और जो जो मुखर हैं उनका आम आदमी से कोई लेना देना नहंी है। हर कोई अपना विचार लादना चाहता है पर सुनने को कोई तैयार नहीं।
मुख्य विषय व्यक्ति का निर्माण होना चाहिये जबकि लोग समाज का निर्माण करने की योजना बनाते हैं और उनके लिये व्यक्ति निर्माण उनके लिये गौण हो जाता है। कुछ विद्वान उपभोग की बढ़ती प्रवृत्तियों में कोई दोष नहंी देखते और उनके लिये योग तथा सत्साहित्य एक उपेक्षित विषय है। कभी कभी निराशा होती है पर इसके बावजूद कुछ आशा के केंद्र बिन्दू बन जाते हैं जो उत्साह का संचार करते हैं। इस समय धर्म के नाम पर विवाद अधिक चल रहा है जो कि एकदम प्रायोजित सा लगता है। ऐसे में अगर हम भारतीय धर्म की रक्षा की बात करेें तो बाबा रामदेव जी ने अभी बिटेन में योग केंद्र स्थापित किया है। इसके अलावा भी भारतीय योग संस्थान भी विश्व भर में अपनी शाखायें चला रहा है। ऐसे में एक बात लगती है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान अक्षुण्ण रहेगा और धर्म का विस्तार अपने गुणों के कारण होगा। सच बात तो यह है कि योग साधना और ध्यान ऐसी प्रद्धतियां हैं जो व्यक्ति का निर्माण करती हैं। यह हमारे धर्म का मूल स्त्रोत भी है। वह गैरजरूरी उपभोग की वस्तुओं के प्रति प्रवृत्त होने से रोकती हैं। इस देश की समस्या अब यह नहीं है कि यहां गरीब अधिक हैं बल्कि पैसा अधिक आ गया है जो कि कुछ ही हाथों में बंद हैं। यही हाथ अपनी रक्षा के लिये गरीबों में ऐसे लोगों को धन मुहैया कराकर समाज में वैमनस्य फैला रहे हैं ताकि गरीबों का ध्यान बंटा रहे। हम इधर स्वदेशी की बात करते हैं उधर विदेशी वस्तुओं का उपभोग बढ़ रहा है। व्यक्ति अब वस्तुओं का दास हो रहा है और यहींे से शुरुआत होती आदमी की चिंतन क्षमता के हृास की। धीरे धीरे वह मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है। फिर उसके सामने दूसरो समूहोें का भय भी प्रस्तुत किया जाता है ताकि वह आजादी से सोच न सके।
देखा जाये तो सारे समूह अप्रासंगिक हो चुके हैं। मासूम लोग उनके खंडहरों में अपनी सुरक्षा इसलिये ढूंढ रहे हैं क्योंकि राज्य की सुरक्षा का अभाव उनके सामने प्रस्तुत किया जाता है। जबकि आज के समय व्यक्ति स्वयं सक्षम हो तो राज्य से भी उसे वैसी ही सुरक्षा मिल सकती है पर प्रचार और शिक्षा के माध्यम से शीर्ष पुरुष ही ऐसा वातावरण बनाते हैं कि आदमी समर्थ होने की सोचे भी नहीं। ऐसे में उन्हीं लोगों को ईमानदार माना जा सकता है कि जो व्यक्ति निर्माण की बात करे।
…………………………………………
कवि,लेखक और संपादक, दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
—————————-

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

योग साधना से आता है आत्मविश्वास-आलेख(Confidence comes from yoga, meditation -Hindi articles)


उस दिन हम दोनों पति पत्नी मंडी में सब्जी खरीदने गये। सब्जी मंडी में बाहर फलों के ठेले भी लगते हैं। सब्जी खरीदने के बाद हम एक ठेले वाले से सेव खरीदने पहुंचे। वहां एक सज्जन भी अपनी पत्नी के साथ सेव खरीदने के लिए वहां मौजूद थे। हमने फल वाले से भाव पूछे और उस दो किलो तोलने के लिये कहा।
इधर इन सज्जन ने भी कहा-‘छह किलो तोलना।’
वह सज्जन और उनकी पत्नी फल छांट रहे थे और इधर हम दोनों ने भी यही काम शुरु किया। इस बीच फल वाले ने उन सज्जन से कहा-‘आप क्या कहीं यह फल भेंट वगैरह करेंगे क्या?
उन सज्जन ने कहा-‘नहीं, हम यह सब सेव दोनों ही खायेंगे। अरे, फल खाने से सेहत बनती है और इस में मामले में हम कोई कंप्रोमाइजन (हिंदी में कहें तो समझौता) नहीं करते।’
हम दोनों उनकी तरफ देखने लगे तो वह बोले-‘ऐसा नहीं है कि हमारी 80 (उनकी स्वयं की) और 75 (उनकी पत्नी की) वर्ष की उम्र देखकर कोई सोचे कि हमारी पाचन शक्ति खराब होगी। रोज हम दोनों सुबह डेढ़ घंटे तक योग साधना करते हैं।’
हमने हंसकर कहा-‘हां, योग साधना वाले को फल का सेवन करना चाहिए।’
तब वह बोले-‘‘और क्या? योग साधना से ही बहुत जोरदार शक्ति आती है जिसे करने वाला ही जानता है। हम बाजार का कचड़ा नहीं खाते बल्कि अपने घर का खाना और यह फल ही खाते हैं। मुझे तो जब जरूरत होती है सेव खाता हूं।’
हमने पूछा कि-‘आप कब से योग साधना कर रहे हैं?’
तब वह बोले-‘हम तीस साल से कर रहे हैं जबकि बाबा रामदेव जी ने अभी सिखाना शुरु किया है। उनका यह प्रयास बहुत अच्छा लगता है पर हमें तो बहुत पहले एक योग शिक्षक ने यह सिखाया था
उनका यह आत्मविश्वास देखने लायक था। हम दोनों पति पत्नी भी प्रतिदिन योग साधना करते हैं पर अब पहले से उसकी अवधि कम कर दी है।
जब फल लेकर वहां से हटे तो श्रीमतीजी ने हमसे कहा-‘देखो, इनके अंदर कितना आत्मविश्वास है। हम दोनों को भी अब योगसाधना (आसन और प्राणायम) की अपनी अवधि बढ़ाना चाहिये।’
हमने हंसते हुए कहा-‘पर वह सज्जन व्यवसाय या नौकरी से सेवानिवृत लग रहे हैं इसलिये उनकी दिनचर्या में इतना परिश्रम करना शामिल नहीं होगा जबकि हम दोनों को वह करना पड़ता है। अलबत्ता कुछ अवधि बढ़ाना चाहिये पर यह इस तरह फल खाना थोड़ा हमसे नहीं होगा। खासतौर से जब हम रात को भोजन का त्याग इसी योगसाधना की वजह से कर चुके हैं। जहां तक फलों का सवाल है तो हम तो पहले से यह तय कर चुके हैं कि जो भी मौसमी फल है वह दिन में एक बार जरूर खायेंगे।’
बहरहाल हमें उन दंपत्ति को देखकर बहुत खुशी हुई। ऐसी कौम को ही जिंदा कौम कहा जाता है। योगासन, प्राणायम, और मंत्रोच्चार से मन, विचार, और बुद्धि के जो विकार निकल जाने पर देह में जो हल्कापन अनुभव होता है उसे आप तभी अनुभव कर सकते हैं जब योगसाधना करें। जिस तरह हम अपने सिर पर कोई बोझा उठाते हुए थक जाते हैं और जब उसे निर्धारित स्थान पर उतारते हैं तभी पता लगता है कि कितना वजन उठा रहे थे। जब तक निर्धारित स्थान तक नहीं पहुंचते तब तक वह बोझ हमें अपने साथ जन्म से चिपका हुआ लगता है। यही स्थिति योगसाधना की है। हम अपने साथ पता नहीं कितने प्रकार के तनावों का बोझा उठाये हुए चलते हैं। अपने खान पान से हम अपने अंदर कितना विकार एकत्रित कर चुके हैं इसका पता हमें स्वयं ही नहीं चलता। जब योगसाधना और मंत्रोच्चार के द्वारा हम अपने अंदर से विकार निकालते हैं तब पता लगता है कि कितना बोझ उठाये थे। इतना ही नहीं जीवन में अनेका प्रकार के ऐसे भ्रम भी निकल जाते हैं जिनको लेकर हम चिंतित रहते हैं। देह और मन की हलचलों पर दृष्टि रखने की जो शक्ति प्राप्त होती है उससे हम अन्य के लिये तो नहीं मगर अपने लिए तो सिद्ध हो ही जाते हैं।
आखिरी में उन सज्जन की वह बात बताना जरूरी है जो हम चलते हुए उन्होंने कही थी कि-‘हमने अपनी जिंदगी में कभी डाक्टर के यहां कदम नहीं रखा। हम डाक्टरों को पैसे देने से इसलिये बचे रहे क्योंकि हमने योग साधना की और जो जेब से पैसा निकलना चाहिये वह इन फलों पर खर्च किया। अरे, भई पैसा है तो कहीं तो निकलेगा।’
उन सज्जन की बातचीत से हमारा यह भ्रम टूटा कि ’हम नियमित रूप से योगसाधना करने वाले चंद लोगों में शामिल हैं’, तो इस बात से प्रसन्नता भी हुई कि योग साधना का प्रचार बढ़ रहा है। आखिर कौन नहीं चाहेगा कि उसके आसपास स्वस्थ समाज हो। सच तो यह है कि जब हम योग क्रियाओं को द्वारा अपने विकार निकाल देते हैं पर फिर इस दुनियां में तनाव पूर्ण हालातों में रह रहे लोगों को देखते हैं तब अफसोस होता है कि लोग उससे बचने के लिये योगसाधना का सहारा क्यों नहीं लेते। योग साधना से कोई हमारे हालात नहीं बदलते पर नजरिया बदल जाता है जिन्होंने यह सब किया है वही इसका प्रमाण दे सकते हैं। अनेक विचारक इस देश की कौम को मुर्दा कौम कहते हुए नहीं चूकते और जिंदा कौम बनाने का एक रास्ता है योगसाधना
……………………………
यह आलेख/कविता पाठ इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्द- पत्रिका ’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
इस लेखक के अन्य संबद्ध ब्लाग इस प्रकार हैं
1.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की हिंदी एक्सप्रेस पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
4.दीपक भारतदीप का चिंतन
5.दीपक भारतदीप की अनंत शब्द योग पत्रिका

श्रीगीता संदेश -दूसरे धर्म का परिणाम सदैव भयावह रहता है


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि अपने धर्म से पराया धर्म श्रेष्ठ लगता है तब उसको कभी श्रेय न प्रदान करें। अपना धर्म संपन्न नहीं दिखता पर दूसरे का धर्म तो हमेशा भयावह परिणाम देने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग धर्म को लेकर बहस करते हैं पर उसका मतलब नहीं समझते। हर टीवी चैनल, अखबार और पत्रिका को उठाकर देख लें धर्म को लेकर तमाम सतही बातें लिखी मिल जायेंगी जिनका सार तो विषय सामग्री प्रस्तुत करने वाले स्वयं नहीं जानते न ही पाठक या दर्शक समझने का प्रयास करते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि धर्म बिकने, खरीदने, और लाभ हानि वाली व्यापारिक वस्तु हो गयी है। अनेक प्रचार माध्यम बकायदा धर्मपरिवर्तित कर जिंदगी में भौतिक उपलब्धि प्राप्त करने वाले लोगों का प्रचार करते हैं। इतना ही नहीं धर्म परिवर्तित कर विवाह करने पर लड़कियों को वीरांगना करार दिया जाता है। यह केवल प्रचार है जिससे बुद्धिमान भारतीय तत्व ज्ञान से दिखने वाले कटु सत्यों से भागते हुए करते हैं क्योंकि भारतीय अध्यात्म ज्ञान जीवन के ऐसे रहस्यों को उद्घाटित करने के सत्यों से भरा पड़ा है जिसको जानने वाला धर्म न पकड़ता है न छोड़ता है।
हमारे भारतीय अध्यात्म में स्पष्ट रूप से धर्म को कर्म से जोड़ा गया न कि कर्मकांडों से। कर्मकांडों और रूढ़ियों को लेकर भारतीय धर्मों की आलोचना करने वाले मायावी लोग उस तत्व ज्ञान को जानते नहीं है पर उनको यह पता है कि अगर उसका प्रचार हो गया तो फिर उनकी माया धरी की धरी रह जायेगी।
एक मजे की बात है कि धर्म परिवर्तित दूसरा धर्म अपनाने वाली युवतियां विवाह कर लेती हैं इसमें बुराई नहीं है पर उसके बाद उनको जब दूसरे धर्म के संस्कार अपनाने पड़ते हैं तब उन पर क्या गुजरती है इस पर कोई प्रकाश नहीं डालता। दरअसल फिल्मों की कहानियों को केवल विवाह तक ही सीमित देखने वाले बुद्धिजीवी उससे आगे कभी सोच ही नहीं पाते। यही कारण है कि विवाह के बाद जब पराये धर्म के कर्मकांडों को मन मारकर अपनाना पड़ता है तब उन युवतियों की क्या कहानी होती है इस पर कोई भी आज का महापुरुष नहीं लिखता।
दरअसल धर्म दिखाने या छूने की वस्तु नहीं बल्कि हृदय में की जाने वाली अनुभूति है। बचपन से जिस धर्म के संस्कार पड़ गये उनसे पीछा नहीं छूटता विवाह या अन्य किसी भौतिक प्राप्ति के लिये धर्म परिवर्तन तो लोग कर लेते हैं उसके बाद जो उनपर तनाव आता है उसकी चर्चा भी गाहे बगाहे करते हैं। एक मजे की बात है कि कथित आधुनिक लोग धर्म परिवर्तन करते हैं पर उसके साथ अपना नाम और इष्ट भी परिवर्तित कर लेते हैं। मतलब वह दूसरे धर्म के के बंधन को ओढ़ते है और दावा आजादी का करते हैं। सच बात तो यह है कि धर्म का आशय सही मायने में भारतीय अध्यात्म में ही है जिसका आशय है कि बिना लोभ लालच और कामना के भगवान की भक्ति करते हुए जीवन व्यतीत करना न कि उनके वशीभूत होकर धर्म मानना। दूसरी बात यह है कि धर्म परिवर्तित करने वाले अपनी पहचान गुम होने के भय से अपना पुराना नाम भी साथ लगाते हैं। दूसरे के धर्म के क्या कर्मकांड हैं किसी को पता नहीं होता? इसलिये उस धर्म के लोग मजाक उड़ाते हैं जिसे अपनाया गया है।

संत कबीरदास और चाणक्य भी कहते हैं कि दूसरे धर्म या समुदाय का आसरा लेना हमेशा दुःख का कारण होता है। किसी भी व्यक्ति या समाज को बाहर से देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उसका धर्म कैसा है या वह उसे कितना मानता है। वह तो जब कोई नया आदमी धर्म परिवर्तन कर उस धर्म में जाता है तब उसे पता लगता है कि सच क्या है? इसके बावजूद यह सच है कि दूसरा धर्म नहीं अपनाना चाहिये क्योंकि उससे तनाव बढ़ता है। हालांकि आजकल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षा लाभों के लिये अनेक लोग धर्म बदल लेते हैं। वह भले ही दावा करें कि उनको ज्ञान प्राप्त हुआ है पर यह झूठ है। जिसे ज्ञान प्राप्त होता है वह धर्म से परे होकर योग साधना, ध्यान और भक्ति में रहते हुए निष्काम कर्म और निष्प्रयोजन दया करता है न कि धर्म छोड़ने या पकड़ने के चक्कर में पड़ता है।
हां एक बात महत्वपूर्ण है कि भारतीय धर्म व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं क्योंकि इसमें किसी प्रकार की भाषा या उस पर आधारित नाम या कर्मकांड की बाध्यता नहीं होती। हमारा श्रीगीता ग्रंथ दुनिया का अकेला ऐसा धर्म ग्रंथ है जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की भी चर्चा है। इसमें निरंकार परमात्मा की निष्काम भक्ति के साथ ही अन्य जीवों पर निष्प्रयोजन दया करने का भी संदेश है। यह मनुष्य को विकास की तरफ जाने के लिये प्रेरित करने के साथ विनाश से भी रोकता है।
…………………………………………………….

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। मेरे अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्द योग
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

अध्यात्मिक केंद्र हैं कि व्यापारिक-आलेख


भारत में अधिकतर लोगों का अध्यात्म के प्रति झुकाव स्वाभाविक कारणों से होता है। मात पिता और अन्य बुजुर्गों की प्रेरणा से अपने देवताओं की तस्वीरों के प्रति उनका आकर्षण इतना रहता है कि बचपने में ही उनके अध्ययने की किताबों और कापियों पर उनकी झाकियां देखी जा सकतीं हैं। मुझे याद है कि बचपन में जब कापियां खरीदने जाता तो भगवान की तस्वीरों की ही खरीदता था। एक बार अपनी मां से पैसे लेकर एक मोटी कापी लेने बाजार गया वहां पर भगवान की तस्वीर वाली कापी तो नहीं मिली हां एक कापी पर ‘ज्ञान संचय’ छपा था वह खरीद ली। वह घर लाया तो ‘ज्ञान’ शब्द ने दिमाग पर ऐसा प्रभाव डाला कि उस कुछ ऐसे ही लिखना शुरू कर दिया। फिर एक छोटी कहानी लिखने का प्रयास किया। तब मैंने सोचा कि इस पर तो मैं कुछ और लिखूंगा और विद्यालय का काम उस पर न करने का विचार किया। इसलिये फिर अपनी मां से दूसरी कापी लेने बाजार गया और अपने मनोमुताबिक भगवान जी की तस्वीर वाली किताब ले आया। वह ज्ञान संचय वाली किताब मुझे लेखक बनाने के काम में आयी।

आशय यह है कि पहले बाजार लोगों की भावनाओं को भुनाता था और ऐसी देवी देवताओं की तस्वीर वाली किताबें और कापियां छापता था जिससे लोग खरीदें। बाजार आज भी यही करता है और मैं उस पर कोई आक्षेप भी नहीं करता क्योंकि उसका यही काम है पर उसके सामने अब दूसरा संकट है कि आज के अनेक अध्यात्मिक संतों ने अपना ठेका समझकर अनेक वस्तुओं का उत्पादन और वितरण अपने हाथ के लिया है जिनका अध्यात्म से कोई संबंध नहीं और इस तरह उसने बाजार में बिकने वाली वस्तुओं की बिक्री में से बहुत बड़ा भाग छीन लिया है। दवायंे, कैलेंडर, पेन, चाबी के छल्ले, डायरी और कापियां भी ऐसे आध्यात्मिक संस्थान बेचने लगे हैं जिन्हें केवल प्रचार का काम करना चाहिए।

उस दिन एक कापी और किताब बेचने वाले मेरे मित्र से मेरी मुलाकात हुई। मैं स्कूटर पर उसकी दुकान पर गया और कोई सामान उसे देने के लिये ले गया। उससे जब मैंने धंधे के बारे में पूछा तो उसने बातचीत में बताया कि अब अगर अध्यात्म लोग पेन, डायरियां और कापियां बेचेंगे तो हमसे कौन लेगा? अब तो संतों के शिष्य अधिक हो गये हैं और वह कापियां और पेन बेचते हैं। अगर कहो तो उनके भक्त घर पर भी दे जाते हैं।

मै सोच में पड़ गया क्योंकि मात्र पंद्रह मिनट पहले ही मुझे मेरे एक साथी ने एक रजिस्टर दिया था और और वह अध्यात्मिक संस्थान द्वारा प्रकाशित था। उस पर अध्यात्मक संत का चित्र भी था। मैनें उससे कई बार ऐसा रजिस्टर लिया है। वह और उस जैसे कई लोग आध्यात्मिक संस्थाओं को उत्पादों को सेवा भाव से ऐसी वस्तुऐं उपलब्ध कराते हैं। देखा जाये तो वह अध्यात्मिक कंपनियों के लिये भक्त लोग मुफ्त में हाकर की भूमिका अपने भक्ति भाव के कारण निभाते हैं। कई जगह इन अध्यात्मिक संस्थानों की बसें अपने उत्पाद बेचने के लिये आतीं हैं। कई संस्थान अपनी मासिक पत्रिकायें निकालते हें लोग पढ़ें या नहीं पर भक्ति भाव के कारण खरीदते हैं। इस तरह जहां घरों में पहले साहित्यक या सामाजिक पत्र पत्रिकाओं की जगह थी वहां इन धार्मिक पत्रिकाओं ने ले ली है। शायद कुछ हंसें पर यह वास्तविकता है कि पहलंे और अब का यह फर्क मेरा बहुत निकट से कई घरों में देखा हुआ है।

अधिक विस्तार से समझाने की आवश्यकता नहीं है कि दवाओं से लेकर चाबी के छल्ले बेचने वाले अध्यात्मिक संस्थानों की वजह से भी हमारे देश के छोटे कामगारों और व्यवसायियों की रोजी रोटी प्रभावित हुई है। हम अक्सर विदेशी और देशी कंपनियों पर लघु उद्योगों को चैपट करने का आरोप लगाते हैं पर देखा जाय तो उत्पादन से लेकर वितरण तक अपने भक्तों की सहायता से काम करने वाले इन अध्यात्मिक संस्थाओं ने भी कोई कम क्षति पहुंचाई होगी ऐसा लगता नहीं है। हमारा यह विचार कि हिंदी के पाठक कम हैं इसलिये पत्र-पत्रिकायें कम पढ़ी जा रही हैं। वस्तुतः उनकी जगह इन पत्रिकाओं ने समाप्त कर दी है। बढ़ती जनसंख्या के साथ जो पाठक बढ़े उन पर इन आध्यात्मिक पत्रिकाओं ने उन पर नियंत्रण कर लिया। इनके प्रचार प्रसार की संख्या का किसी को अनुमान नहीं है पर मैं आंकड़ों के खेल से इसलिये परे रहता हूं क्योंकि जो सामने देख रहा हूं उसके लिये प्रमाण की क्या जरूरत हैं। अधिकतर घरों में मैंने ऐसी आध्यात्मिक पत्रिकायें और अन्य उत्पाद देखे हैं और लगता है कि अगर यह अध्यात्मिक संस्थान उन वस्तुओं के उत्पाद और वितरण से परे रहते तो शायद रोजगार के अवसर समाज में और बढ़ते।

अपने अध्यात्मिक विषयों में मेरी रुचि किसी से छिपी नहीं है मै अंधविश्वास और अंध भक्ति में यकीन नहींे करता और मेरा स्पष्ट मत है कि अध्यात्म के विषयों का अन्य विषयों के कोई संबंध नहीं है। अगर आप ज्ञान और सत्संग का प्रचार कर रहे हैं तो किसी अन्य विषय से संबंध रखकर अपनी विश्वसीनयता गंवा देते हैं। यही वजह है कि आजकल लोग संतों पर भी जमकर आक्षेप कर रहे हैं। मै संतों पर आक्षेप के खिलाफ हूं पर जिस तरह अध्यात्मिक संस्थान अन्य सांसरिक उत्पादों के निर्माण और वितरण का कार्य छोटे लोगों को रोजगार के अवसरों को नष्ट कर रहे हैं उसके चलते किसी को ऐसे आक्षेपों से रोकना भी मुश्किल है। अगर लोगों के किसी कारण रोजगार के अवसर प्रभावित होते हैं तो उस पर आक्षेप करना उनका अधिकार है।

बाजार अगर लोगों की भावनाओं को भुनाता है तो उससे बचने के लिये लोगों को अध्यात्म का ज्ञान कराकर बचाया जा सकता है पर अगर अध्यात्मिक संस्थान ही इसकी आड़ में अपना बाजार चलाने लगें तो फिर उनको अध्यात्म ज्ञान देना भी कठिन क्योंकि उनके चिंतन और अध्ययन की बौद्धिक क्षमता का हरण उनके कथित गुरू अपने उपदेशों से पहले कर चुके हैं।

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.राजलेख हिन्दी पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

चमत्कार को नमस्कार, सहजता से कोई नहीं सरोकार-आलेख


इस प्रथ्वी पर जीवन अपनी सहज धारा से बहता जाता है। अनेक आपदायें इस प्रथ्वी पर आती हैं पर फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। यहां सांस लेने वाला प्रत्येक जीव भी अपने जीवन में उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरता हुआ अपन जीवन सहजता से व्यतीत करता है। प्रथ्वी पर सभी प्राणी-जिसमे पेड़-पौद्ये, पशु-पक्षी और मनुष्य अपने जीवन में दुःख-सुख और आशा और निराशा के दौर से गुजरते है। बस फर्क इस बात का है कि इंसान उसे बयान कर सकता है दूसरे उसे सुन सकते हैं पर अगर दूसरे बयान करें तो इंसान उसे सुन नहीं सकता पर जिसमें चेतना है वह उसे महसूस कर सकता है।
कुल मिलाकर जीवन दुःख-सुख और आशा निराशा इसी सहज जीवन का हिस्सा है पर मनुष्य जो सब प्राणियो में विवेकवान है उसमें हर बुरी बात को त्रासदी और अच्छी बात को चमत्कार कहता है।

मनुष्य के मन में फैली इसी धारणा पर अनेक चालाक लोग अपनी रोटी सैंकते हैं। कभी किसी बाबा के नाम तो कभी किसी फकीर के नाम पर तो कभी किसी धार्मिक स्थान के निर्माण के नाम पर चमत्कार का भ्रमजाल फैलाते हैं। किसी घटना पर चमत्कार का रंग चढ़ाकर उसका प्रचार इस तरह करते हैं कि अपनी हालातों से परेशान लोग उस प्रतीक की तरफ आकर्षित हो जो उसके पीछे है।

14 वर्ष की एक लड़की का अपने ही घर में कत्ल हो गया। कत्ल होते ही जांचकर्ताओं ने माना कि कातिल कोई घर का आदमी है। पहले एक नौकर पर शक गया और उसकी तलाश शुरू की गयी। लड़की की देह पंचतत्वों मेंं विलीन अभी हुई थी कि उसी आरोपी नौकर का शव उसी घर की छत पर मिला जहां उस लड़की का कत्ल हुआ था। मामला उलझ गया। मृतक लड़की के बदहवास माता पिता क्या बतायें और क्या बोलें? सवाल पर सवाल दागे जा रहे थे जैसे सरेआम मुकदमा चल रहा हो। टीवी चैनल सीधे प्रसारण कर रहे थे। बताओ कातिल कौन है? धीरे-धीरे कत्ल की सुई पिता की तरफ घुमाई गयी। उस तमाम तरह के आरोप लगाते हुए कहानियां गढ़ी गयी। उसके मित्रों पर संदेह किया गया। एक तरह से फैसला दिया गया कि पिता ही अपने पुत्री के कत्ल के लिये जिम्मेदार है। उसके पिता को गिरफ्तार कर लिया गया।

जांच आगे बढ़ी। अब तीन अन्य नौकरों को घेरा गया। जांच पूरे पचास दिन चली। मृत लड़की का पिता जेल में था तो तीन अन्य नौकर भी इसी आरोप में धरे गये। जांच चलती रही। प्रचार माध्यम उस मृत लड़की की हत्या के समाचारों को बेचते रहे और तो और इतना भी भूल गये कि किसी मृतक के चरित्र पर सार्वजनिक आक्षेप करना तो दूर एकांत में भी लोग ऐसा करना अनुचित मानते हैं। सारी संस्कृति और संस्कारों का मखौल उड़ाते हुए एक 14 साल के मृत लड़की के बारे में जो बातें कहीं गयी उनको सुनकर ऐसा लगा जैसे कि किसी ने कानों में गरम सीसा डाल दिया।
आखिर जांचकर्ताओं ने अदालत में माना कि मृत लड़की के पिता के विरुद्ध लगाये गये आरोप के संबंध में उसके पास कोई साक्ष्य नहीं है। अदालत ने उसे जमानत पर रिहा कर दिया। पिता जेल से बाहर आ गया। यह कहानी है पर सब घटनायें समाज और देश के नियमों को अनुसार घटित हुईं। परेशान पिता जेल से छूटा तो अपनी पत्नी के साथ सांईबाबा के मंदिर गया।

बस प्रचार माध्यमों को अवसर मिल गया कि यह तो उनके चमत्कार की वजह से रिहा हुआ है। इस पर कई कार्यक्रम दिखाये और उसकी प्रष्ठभूमि में सांईबाबा के भजन बजाये। वैसे सांईबाबा के चमत्कारों के बारे में आजकल सभी चैनल जमकर प्रसारण कर रहे थे। यह उनके प्रति भक्ति भाव का नहीं बल्कि अपनी व्यवसायिक प्रतिबद्धताओं के कारण कर रहे है। लोग चमत्कार एक कार्यक्रम के रूप में देखें और उसे खरीदें-यही भाव उनके मन में रहता है।
उपरोक्त हत्याकांड की जांच में अनेक विशेषज्ञ जांचकर्ता लगे। उन्होंने उसके हर पहलू का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया। उन्होंने समय लिया पर हत्याकांड की स्थिति को देखते हुये यह कोई बड़ी बात नहीं थी। जांचकर्ता तमाम तरह की शैक्षणिक उपाधियों के साथ अपने कार्य का अनुभव लिये हुए थे। उसी आधार पर उन्होंने अपनी बात अदालत में रखी। अदालत ने भी सब देखा और जमानत दी। यह एक सहज और सामान्य प्रक्रिया है।
मगर प्रचार माध्यमों को इसमें कुछ ऐसा चाहिये था जिसे वह बेच सकें और इसे चमत्कार का तत्व उनको मिल गया। अपनी लड़की की पहले मौत और फिर उसकी हत्या का आरोप अपने ऊपर लेने वाले पिता के लिये पूरा समय संघर्षपूर्ण था और उस दौरान उसके पास न तो हादसे पर रोने का समय था और न किसी चमत्कार की उम्मीद करने का। रिहा होने के बाद वह सांईबाबा के मंदिर गया इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। अपने देश में कई ऐसे लोग हैं जो ऐसे अवसरों पर मंदिर जाते हैं। अनेक लड़के और लड़कियों को परीक्षा परिणाम में उत्तीर्ण होने पर मंदिर जाते देखा जा सकता है। किसी को लड़का हुआ है पत्नी अस्पताल में है तो पति पहले अपने इष्ट के मंदिर जाता है। कई लोग अकारण भी जाते हैं। मजे की बात यह है कि सांईबाबा के मंदिर जाने के बावजूद उस पिता ने किसी से नहीं कहा कि ‘कोई चमत्कार हुआ है’, पर प्रचार माध्यम अपनी तरफ से अनेक बातें जैसे पहले जोड़ रहे थे अब भी जोड़ रहे हैं।

सांई बाबा के इस देश में करोड़ों भक्त हैं। इन पंक्तियों का लेखक हर गुरूवार को सांईबाबा के मंदिर जाकर ध्यान लगाता है। उनका मूल संदेश यही है कि ‘श्रद्धा और सब्र रखो जीवन में सारे काम होंगे।’ आशय यही है कि अपने अंदर परमात्मा के प्रति श्रद्धा रखते हुए उसका ध्यान करते हुए धीरज रखो सारे सांसरिक कार्य सहजता से हो जायेंगे। इसके बावजूद कुछ लोग उनके नाम पर चमत्कारों का प्रचार कर असहजता का वातावरण फैलाते हैं। सांईबाबा कहते हैं कि जीवन में धीरज रखो पर उनकी भक्ति का व्यवसायिक दोहन करने वाले कहते हैं कि आप दौड़ो उनके पीछे तो चमत्कार हो जायेगा। सांईबाबा के मंदिर में जाकर मैं जिस तरह के दृश्य देखता हूं तो मुझे अचंभा होता है कि लोग किस तरह उनके द्वारा दिये गये सहज रहने के संदेश की अवहेलना करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो सांईबाबा के श्रद्धा और सब्र के संदेश के मार्ग पर चलेगा वह आनंद से जीवन व्यतीत करेगा पर यह चमत्कार नहीं है बल्कि उनके संदेश के अनुसार अपने जीवन को सहजता से जीने का सहज परिणाम है। चमत्कार शब्द तो असहजता का भाव पैदा करते हैं।

यह तो केवल एक घटना का उल्लेख भर किया गया है पर अनेक घटनायें ऐसी हैं जिनमें प्रचार माध्यम चमत्कार बनाकर अपने कार्यक्रमों को बेचते हैं। इस देश में ही श्रीगीता में निष्काम भाव से कार्य करने का संदेश दिया गया और यही वह देश है जिसमें सांसरिक कार्यों में सफलता के लिये चमत्कारों का प्रचार किया जाता है। ऐसा विरोधाभास शायद ही कहीं देखने को मिले। चमत्कारों को नमस्कार करते हुए सहज भाव का तिरस्कार करते हैं।
………………….

दीपक भारतदीप