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बाबा रामदेव समाज में चेतना लाये बिना सफल नहीं हो सकते-हिन्दी लेख (baba ramdev,bharshtachar aur samajik chetna-hindi lekh


भ्रष्टाचार के विरुद्ध स्वामी रामदेव का अभियान अब देश में चर्चा का विषय बन चुका है। बाबा रामदेव अब खुलकर अपने योग मंच का उपयोग भ्रष्टाचार तथा काले धन के विरुद्ध शब्द योद्धा की तरह कर रहे हैं। हम यह भी देख रहे हैं कि देश की हर समस्या की जड़ में भ्रष्टाचार को जानने वाले जागरुक लोग बाबा रामदेव की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। कुछ लोगों को तसल्ली हो गयी है कि अब कोई नया अवतार उनके उद्धार के लिये आ गया है। हम यहां बाबा रामदेव की अभियान पर कोई विपरीत टिप्पणी नहीं कर रहे क्योंकि यह अब एक राजनीतिक विषय बन चुका है और वह अपना राजनीतिक दल बनाने की घोषणा भी कर चुके हैं। हां, यह सवाल पूछ रहे हैं कि अगर देश की दुर्दशा के लिये भ्रष्टाचार जिम्मेदार हैं तो फिर भ्रष्टाचार के लिये कौन जिम्मेदार हैं? क्या इसकी पहचान कर ली गयी है?
एक बात यहां हम बता दें कि यह लेखक निजी रूप से बाबा रामदेव को नहीं जानता पर टीवी पर उनकी योग शिक्षा की सराहना करता है और उनके वक्तव्यों को समझने का प्रयास भी करता है। दूसरी बात यह भी बता दें कि श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों का अध्ययन भी किया है और उनके परिप्रेक्ष्य में बाबा की सभी प्रकार की गतिविधियों को देखने का प्रयास यह लेखक करता है। बाबा रामदेव अब आक्रामक ढंग से राष्ट्रधर्म के निर्वाह के लिये तत्पर दिखते हैं, यह अच्छी बात है पर एक बात यह भी समझना चाहिए कि राजनीतिक क्रांतियां तो विश्व के अनेक देशों में समय समय पर होती रही हैं पर वहां के समाजों को इसका क्या परिणाम मिला इसकी व्यापक चर्चा कोई नहंी करता। इसका कारण यह है कि राष्ट्रधर्म निर्वाह करने वाले लोग अपने देश की समस्याओं का मूल रूप नहीं समझतें।
भारत में भ्रष्टाचार समस्या नहीं बल्कि अनेक प्रकार की सामाजिक, धार्मिक तथा पारिवारिक रूढ़िवादी परंपराओं की वजह से आम आदमी में दूसरे से अधिक धन कमाकर खर्च कर समाज में सम्मान पाने की इच्छा का परिणाम है।
बाबा रामदेव बाबा समाज के शिखर पुरुषों को ही इसके लिये जिम्मेदार मानते हैं पर सच यह है कि इस देश में ईमानदार वही है जिसे बेईमान होने का अवसर नहीं मिलता।
भारत का अध्यात्मिक ज्ञान विश्व में शायद इसलिये ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि सर्वाधिक मूढ़ता यही पाई जाती है जिसे हम भोलेपन और सादगी कहकर आत्ममुग्ध भी हो सकते हैं। हमारे ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने समाज के इसी चरित्र की कमियों को देखते हुए सत्य की खोज करते हुए तत्वज्ञान का सृजन किया। शादी, गमी, जन्मदिन और अन्य तरह के सामूहिक कार्यक्रमों में खर्च करते हुए सामान्य लोग फूले नहीं समाते। लोगों को यही नहीं मालुम कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है? भ्रष्टाचार को समाज ने एक तरह से शिष्टाचार मान लिया है? क्या आपने कभी सुना है कि किसी रिश्वत लेने वाले अधिकारी याद कर्मचारी को उसके मित्र या परिचित सामने रिश्वतखोर कहने का साहस कर पाते हैं। इतना ही नहीं सभी जानते हैं कि अमुक आदमी रिश्वत लेता है पर उसकी दावतों में लोग खुशी से जाते हैं। समाज में चेतना नाम की भी नहीं है। इसका सीधा मतलब यह कि समाज स्वयं कुछ नहीं करता बल्कि किसी के रिश्वत में पकड़े जाने पर वाह वाह करता है। उसकी जमकर सामूहिक निंदा होती है और इसमें वह लोग भी शामिल होते हैं जो बेईमान हैं पर पकड़े नहीं गये। आज यह स्थिति यह है कि जो पकड़ा गया वही चोर है वरना तो सभी ईमानदार हैं।
आखिर यह भ्रष्टाचार पनपा कैसे? आप यकीन नहीं करेंगे कि अगर देश के सभी बड़े शहरों में अतिक्रमण विरोधी अभियान चल जाये तो पता लगेगा कि वहां चमकती हुए अनेक इमारतें ही खंडहर बन जायेंगी। नई नई कालोनियों में शायद ही कोई ऐसा मकान मिले जो अतिक्रमण न मिले। सभी लोग अपने सामर्थ्य अनुसार भूखंड लेते हैं पर जब मकान बनता है तो इस प्रयास में लग जाते हैं कि उसका विस्तार कैसे हो। पहली मंजिल पर अपनी छत बाहर इस उद्देश्य से निकाल देते हैं कि ऊपर अच्छी जगह मिल जायेगी। बड़े बड़े भूखंड है पर चार पांच फुट उनको अधिक चाहिये वह भी मुफ्त में। यह मुफ्त का मोह कालांतर में भ्रष्टाचार का कारण बनता है। जितना भूखंड है उसमें अगर चैन से रहा जाये तो भी बहुत उन लोगों के लिये बड़ा है पर मन है कि मानता नहीं।
विवाह नाम की परंपरा तो भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा कारण है। बेटे को दुधारु बैल समझकर ं हर परिवार चाहता है कि उसके लिये अच्छा दहेज मिले। लड़की को बेचारी गऊ मानकर उसे धन देकर घर से धकेला जाता है। शादी के अवसर पर शराब आदि का सेवन अब परंपरा बन गयी है। स्थिति यह है कि अधिक से अधिक दिखावा करना, पाखंड करते हुंए धार्मिक कार्यक्रम करना और दूसरों से अधिक धनी दिखने के मोह ने पूरे समाज को अंधा कर दिया है। बाबा रामदेव ने स्वयं ही एक बार बताया था कि जब तक मुफ्त में योग सिखाते थे तब कम संख्या में लोग आते थे। जब धन लेना शुरु किया तो उनके शिष्य और लोकप्रियता दोनों ही गुणात्मक रूप से बढ़े। सीधी सी बात है कि समाज पैसा खर्च करने और कमाने वाले पर ही विश्वास करता है। अज्ञान में भटकते इस समाज को संभालने का काम संत इतिहास में करते रहे हैं पर आज तो पंच सितारे आश्रमों में प्रवचन और दीक्षा का कार्यक्रम होता है। आज भी कोई ऐसा प्रसिद्ध संत कोई बता दे जो कबीर दास और रविदास की तरह फक्कड़ हो तो मान जायें। हम यहां बाबा रामदेव की संपत्ति का मामला नहीं उठाना चाहते पर पतंजलि योग पीठ की भव्यता उनसे जुड़े लोगों की वजह से है यह तो वह भी मानते हैं। हम यहां स्पष्ट करना चाहेंगे कि पतंजलि योग पीठ की भव्य इमारत वह नहीं बनाते तो भी उनका सम्मान आम आदमी में कम नहीं होता। जिस तरह धन आने पर उन्होंने भव्य आश्रम बनाया वैसे ही देश के दूसरी धनी भी यही करते हैं। वह सड़क पर फुटपाथ पर कब्जा कर लेते हैं। फिर उससे ऊपर आगे अपनी इमारत ले जाकर सड़के के मध्य तक पहुंच जाते हैं। धन आने पर अनेक लोगों की मति इतनी भ्रष्ट हो जाती है कि उनको पता ही नहीं चलता कि अतिक्रमण होता क्या है? जमीन से ऊपर उठे तो उनको लगता है कि आकाश तो भगवान की देन है।
मुख्य बात यह है कि अंततः धन माया का रूप है जो अपना खेल दिखाती है। इसके लिये जरूरी था कि धार्मिक संत सामाजिक चेतना का रथ निरंतर चलाते रहें पर हुआ यह कि संतों के चोले व्यापारियों ने पहन लिये और अपने महलों और होटलों को आश्रम का नाम दे दिया। बाबा रामदेव पर अधिक टिप्पणियां करने का हमारा इरादा नहीं है पर यह बता दें कि जब तक समाज में चेतना नहीं होगी तब भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता। एक जायेगा दूसरा आयेगा। मायावी लोगों का समूह ताकतवर है और उसे अपना व्यापार चलाने और बढ़ाने के लिये बाबा रामदेव को भी मुखौटा बनाने में झिझक नहीं होगी। अगर समाज स्वयं जागरुक नहीं है तो फिर कोई भी प्रयास सफल नहीं हो सकता। यह तभी संभव है कि योग शिक्षा के साथ अध्यात्मिक ज्ञान भी हो। बाबा रामदेव जब अपने विषय में की गयी प्रतिकूल टिप्पणियों को उत्तेजित होकर बयान दे रहे थे तब वह एक तत्वज्ञानी योगी नहीं लगे। उनके चेहरे पर जो भाव थे वह उनके मन की असहजता को प्रदर्शित कर रहे थे। हम यह नहीं कहते कि उत्तेजित होना अज्ञान का प्रमाण है पर कम से उनका स्थिरप्रज्ञ न होना तो दिखता ही है। वह केवल शिखर पुरुषों को कोसते हैं और समाज में व्याप्त मूढ़तापूर्ण स्थिति पर कुछ नहीं कहते। ऐसे में उनसे यह अपेक्षा भी की जा सकती है कि वह समाज को अपने अंदर की व्यवस्था के बारे में मार्गदर्शन दें।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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इन्टरनेट के प्रयोग से होने वाले दोषों से बचाती है योग साधना-हिंदी आलेख


कुछ समाचारों के अनुसार इंटरनेट पर अधिक काम करना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। इंटरनेट का संबंध कंप्यूटर से ही है जिसके उपयोग से वैसे भी अनेक बीमारियां पैदा होती हैं। एक खबर के अनुसार कंप्यूटर पर काम करने वालों में विटामिन डी की कमी हो जाती है इसलिये लोगों को धूप का सेवन अवश्य करना चाहिये। अगर इन खबरों का विश्लेषण करें तो उनसे यही निष्कर्ष निकलता है कि कंप्यूटर और इंटरनेट के अधिक प्रयोग से ही शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। इसके अलावा इनके उपयोग के समय अपने आपको अनावश्यक रूप से थकाने के साथ ही अपनी शारीरिक तथामानसिक स्थिति पर पर्याप्त ध्यान न देना बहुत तकलीफदेह यह होता है। सच बात तो यह है कि इंटरनेट तथा कंप्यूटर पर काम करने वालों के पास उससे होने वाली शारीरिक और मानसिक व्याधियों से बचने का एकमात्र उपाय योग साधना के अलावा अन्य कोई उपाय नज़र नहीं आता।
दरअसल कंप्यूटर के साथ अन्य प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक सावधानियां रखने के नुस्खे पहले बहुत पढ़ने को मिलते थे पर आजकल कहीं दिखाई नहीं देते । कुछ हमारी स्मृति में हैें, जो इस प्रकार हैं-
कंप्यूटर पर बीस मिनट काम करने के बाद विश्राम लें। पानी अवश्य पीते रहें। खाने में नियमित रूप से आहार लेते रहें। पानी पीते हुए मुंह में भरकर आंखों पर पानी के छींटे अवश्य मारें। अगर कंप्यूटर कक्ष से बाहर नहीं आ सकें तो हर बीस मिनट बार अपनी कुर्सी पर ही दो मिनट आंख बंद कर बैठ जायें-इसे आप ध्यान भी कह सकते हैं। काम खत्म करने पर बाहर आकर आकाश की तरफ जरूर अपनी आंखें केंद्रित करें ताकि संकीर्ण दायरे में काम कर रही आंखें व्यापक दृश्य देख सकें।
दरअसल हम भारतीयों में अधिकतर नयी आधुनिक वस्तुओं के उपयोग की भावना इतनी प्रबल रहती है कि हम अपने शरीर की सावधनी रखना फालतु का विषय समझते हैं। जहां तक बीमारियों का सवाल है तो वह शराब, सिगरेट और मांस के सेवन से भी पैदा होती हैं इसलिये इंटरनेटर और कंप्यूटर की बीमारियों से इतना भय खाने की आवश्यकता नहीं है मगर पर्याप्त सावधानी जरूर रखना चाहिए।
इंटरनेट और कंप्यूटर पर काम करने वाले हमारे देश में दो तरह लोग हैं। एक तो वह है जो शौकिया इससे जुड़े हैं और दूसरे जिनको इससे व्यवसायिक बाध्यता ने पकड़ा है। जो शौकिया है उनके लिये तो यह संभव है कि वह सावधानी रखते हुए काम करें-हालांकि उनके मनोरंजन की प्यास इतनी गहरी होती है कि वह इसे समझेंगे नहीं-पर जिनको नौकरी या व्यवसाय के कारण कंप्यूटर या इंटरनेट चलाना है उनके स्थिति बहुत दयनीय होती है। दरअसल इंटरनेट और कंप्यूटर पर काम करते हुए आदमी की आंखें और दिमाग बुरी तरह थक जाती हैं। यह तकनीकी काम है पर इसमें काम करने वालों के साथ एक आम कर्मचारी की तरह व्यवहार किया जाता है। जहां कंप्यूटर या इंटरनेट पर काम करते एक लक्ष्य दिया जाता है वहां काम करने वालों के लिये यह भारी तनाव का कारण बनता है। दरअसल हमारे देश में जिनको कलम से अपने कर्मचारियेां को नियंत्रित करने की ताकत मिली है वह स्वयं कंप्यूटर पर काम करना अपने लिये वैसे ही हेय समझते हैं जैसे लिपिकीय कार्य को। वह जमीन गड़ढा खोदने वाले मजदूरो की तरह अपने आपरेटरों से व्यवहार करते हैं। शारीरिक श्रम करने वाले की बुद्धि सदैव सक्रिय रहती है इसलिये वह अपने साथ होने वाले अनाचार या बेईमानी का मुकाबला कर सकता है। हालांकि यह एक संभावना ही है कि उसमें साहस आ सकता है पर कंप्यूटर पर काम करने वाले के लिये दिमागी थकावट इतनी गहरी होती है कि उसकी प्रतिरोधक क्षमता काम के तत्काल बाद समाप्त ही हो जाती है। इसलिये जो लोग शौकिया कंप्यूटर और इंटरनेट से जुड़े हैं वह अपने घर या व्यवसाय में परेशानी होने पर इससे एकदम दूर हो जायें। जिनका यह व्यवसाय है वह भी अपने साइबर कैफे बंद कर घर बैठे या किसी निजी संस्थान में कार्यरत हैं तो पहले अवकाश लें और फिर तभी लौटें जब स्थिति सामान्य हो या उसका आश्वासन मिले। जब आपको लगता हो कि अब आपको दिमागी रूप से संघर्ष करना है तो तुरंत कीबोर्ड से हट जायें। घर, व्यवसाय या संस्थान में अपने विरोधी तत्वों के साथ जब तक अमन का यकीन न हो तब कंप्यूटर से दूर ही रहें ताकि आपके अंदर स्वाभाविक मस्तिष्कीय ऊर्जा बनी रहे।
कंप्यूटर पर लगातार माउस से काम करना भी अधिक थकाने वाला है। जिन लोगों को लेखन कार्य करना है अगर वह पहले कहीं कागज पर अपनी रचना लिखे और फिर इसे टाईप करें। इससे कंप्यूटर से भी दूरी बनी रहेगी दूसरे टाईप करते हुए आंखें कंप्यूटर पर अधिक देर नहंी रहेंगी। जो लेाग सीधे टाईप करते हैं वह आंखें बंद कर अपने दिमाग में विचार करते हुए टंकित करें।
वैसे गूगल के फायरफाक्स में बिना माउस के कंप्यूटर चलाया जा चलाया जा सकता है। जहां तक हो सके माउस का उपयोग कम से कम करें। वैसे भी बेहतर कंप्यूटर आपरेटर वही माना जाता है जो माउस का उपयोग कम से कम करता है।
कुछ लोगों का कहना है कि कंप्यूटर पर काम करने से आदमी का पेट बाहर निकल आता है क्योंकि उसमें से कुछ ऐसी किरणें निकलती हैं जिससे आपरेटर की चर्बी बढती है। इस पर थोड़ा कम यकीन आता है। दरअसल आदमी जब कंप्यूटर पर काम करता है तो वह घूमना फिरना कम कर देता है जिसकी वजह से उसकी चर्बी बढ़ने लगती है। अगर सुबह कोई नियमित रूप से घूमें तो उसकी चर्बी नही बढ़ेगी। यह अनुभव किया गया है कि कुछ लोगों को पेट कंप्यूटर पर काम करते हुए बढ़ गया पर अनेक लोग ऐसे हैं जो निरंतर काम करते हुए पतले बने हुए हैं।
आखिरी बात यह है कि कंप्यूटर पर काम करने वाले योगसाधना जरूर करें। प्राणायाम करते हुए उन्हेंइस बात की अनुभूति अवश्य होगी कि हमारे दिमाग की तरफ एक ठंडी हवा का प्रवाह हो रहा हैं। सुबह प्राणायाम करने से पूर्व तो कदापि कंप्यूटर पर न आयें। रात को कंप्यूटर पर अधिक देर काम करना अपनी देह के साथ खिलवाड़ करना ही है। सुबह जल्दी उठकर पहले जरूर पानी जमकर पियें और उसके बाद अनुलोम विलोम प्राणायाम निरंतर करंें। इससे पांव से लेकर सिर तक वायु और जल प्रवाहित होगा उससे अनेक प्रकार के विकार बाहर निकल आयेंगे। जब आप करेंगे तो आपको यह लगने लगेगा कि आपने एक दिन पूर्व जो हानि उठाई थी उसकी भरपाई हो गयी। यह नवीनता का अनुभव प्रतिदिन करेंगे। वैसे कंप्यूटर पर काम करते समय बीच बीच में आंखें बंद कर ध्यान अपनी भृकुटि पर केद्रित करें तो अनुभव होगा कि शरीर में राहत मिल रही है। अपने साथ काम करने वालों को यह बता दें कि यह आप अपने स्वास्थ्य के लिये कर रहे हैं वरना लोग हंसेंगे या सोचेंगे कि आप सो रहे हैं।
किसी की परवाह न करें क्योंकि सबसे बड़ी बात तो यह है कि जान है तो जहान हैं। भले ही इस लेख की बातें कुछ लोगों को हास्यप्रद लगें पर जब योगासन, ध्यान, प्राणायाम तथा मंत्रोच्चार-गायत्री मंत्र तथा शांति पाठ के सा ओम का जाप- करेंगे और प्रतिदिन नवीनता के बोध के साथ इंटरनेट या कंप्यूटर से खेलें्रगे तक इसकी गंभीरता का अनुभव होगा।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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भूत भभूत-हिन्दी व्यंग


एक विशेषज्ञ का मानना है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी हमले में बिन लादेन बहुत पहले ही मारा जा चुका है पर अमेरिका के रणनीतिकार युद्ध जारी रखने के लिये उसका भूत बनाये रखना चाहते हैं ताकि वहां की खनिज, कृषि और तेल संपदा पर कब्जा बना रहे। ऐसा लगता है कि अमेरिकन लोग भले ही भूत प्रेत को न मानते हों पर एशियाई देशों से उनकी मान्यता को लेकर उसका उपयोग करना सीख गये हैं। इसलिये वह रोज नयी भभूत बनाकर लादेनी भूत को निपटाने का काम करते हैं।
याद आता है जब बचपन में कई सिद्ध लोगों के पास जाते थे तब वह भूतों को भगाने के लिये भभूत दिया करते थे कि अगर जो शायद उनके यहां के यज्ञों की राख वगैरह हुआ करती थी। अब तो लगता है कि जैसे अगर किसी को बाबा बनना है तो उसे भूतों की सवारी तो करनी पड़ेगी। अपने देश के इतिहास में बहुत सारे बाबा हुए हैं। उनके नाम से चमत्कारों का प्रचार ऐसा चला कि उनके नाम पर अभी भी धंधे चल रहे हैं।
उस विशेषज्ञ की बात पर विश्वास करने के बहुत सारे कारण है। उस युद्ध के बाद फिर कभी लादेन का वीडियो नहीं आया। कुछ समय तक उसके घनिष्ट सहयोगी अल जवाहरी का वीडियो आता रहा पर फिर वह भी बंद हो गया। हालांकि विशेषज्ञ का कहना है कि लादेन बीमार भी हो सकता है पर जो हालात लगते हैं उससे तो यह लगता है कि उनका पहला ही दावा अधिक सही है कि लादेन अब केवल एक भूत का नाम है।
किसी को सिद्ध बनना या बनाना है तो वह पहले भूतों की पहचान करे। अमेरिका ने बिन लादेन नाम का एक भूत बना लिया है। दरअसल कभी कभी तो यह लगता है कि कहीं लादेन वाकई भूत तो नहीं था जिसे इंसानी शक्ल के रूप में प्रस्तुत किया गया। एक बात याद रखें अमेरिका पूरे विश्व में हथियारों का सौदागर है। वह उनका निर्माण कर फिर प्रदर्शन कर उनको बेचता है। जिस तरह कोई वाशिंग, मशीन तथा टीवी जैसी चीजें पहले चलाकर दिखाने के बाद बेची जाती हैं तो हथियारेां के लिये भी तो यही करना पड़ेगा तभी तो वह बिकेंगे। आरोप लगाने वाले तो यह भी कहते हैं कि अमेरिका दुनियां भर में युद्ध थोपता ही इसलिये है कि उसे अपने हथियारों का प्रदर्शन करना है ताकि अन्य देश उससे प्रभावित होकर अपने देश की गरीब जनता का पैसा देकर उसका खजाना भरे। आजकल आपने सुना होगा एक ‘ड्रोन’ नाम का एक हवाई जहाज है जो स्वयं ही निशाने चुनता है। उसे चलाने के लिये उसमें पायलट का होना जरूरी नहीं है। अनेक बार ऐसी खबरे आती हैं कि ‘ड्रोन’ ने लादेन के शक में अमुक वह भी जगह ‘अचूक बमबारी’ की। इससे पहले अफगानिस्तान युद्ध में भी अमेरिका के अनेक हथियारों तथा विमानों का प्रचार हुआ था।
हमारे देश में भूतों पर खूब यकीन किया जाता है। इसी कारण बाबाओं का खूब धंधा चलता है। एक आदमी ने बड़े मजे की बात कही थी। उससे उसके मित्र ने पूछा कि ‘एक बात बताओ कि तुम भूत वगैरह की बात करते हो? तुम्हें पता है कि पश्चिमी राष्ट्र हमसे अधिक प्रगति कर गये हैं वहां तो ऐसी बातों पर कोई यकीन नहीं करता। क्या वहां लोग मरते नहीं है? देखों हम लोग ऐसी फालतू बातों पर यकीन करते हैं इसलिये पिछड़ हुऐ हैं जबकि जो भूतों पर यकीन नहीं करते वह मजे कर रहे हैं। ’
उस आदमी ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि ‘वहां तो सभी कुछ आदमी को मिल जाता है। बंगला, गाड़ी, पैसा मिलने के साथ अन्य जरूरतें पूरी हो जाती है। वहां मरने वाले आदमी की कोई कोई ख्वाहिश नहीं रह जाती। यहां गरीबी के कारण लोग अनेक इच्छायें मन में दबाकर मर जाते हैं इसलिये उनको भूत की यौनि मिलती है। यही सोचकर यकीन करना पड़ता है।’

अमेरिका ने सारे झगड़े एशिया में ही किये हैं। उसका सबसे बड़ा शत्रु क्यूबा का फिदेल कास्त्रो उसके पास में ही रहता है पर कभी उस पर हमला नहीं किया। वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान में उसके हमले चर्चित रहे हैं जो कि एशिया में ही है। एशिया में ही लोग भूत बनते हैं और इसलिये वह अपने ही लोग यहां भेजकर उनका भूत यहां रचता है।

वैसे इसमें कोई संदेह नहीं है कि भूत रचकर अपनी ताकत दिखाने की तकनीकी उसने भारत या एशिया से ही सीखा होगा। सीधी सी बात है कि ऊनी सामान बेचने वाला सर्दी का, धर्म बेचने वाला अधर्म का, शराब बेचने वाला गमों का और ऋण देने वाले पैसा देकर फिर उसे बेदर्दी से वसूलने से पहले जरूरतों का भूत नहीं खड़ा करेगा तो फिर उसका काम कैसे चलेगा? अमेरिका ने लादेन नाम के भूत से अरबों डालरों की कमाई की होगी। लादेन के मरने का मतलब है कि उसे युद्ध छोड़ना पड़ेगा। युद्ध छोड़ा तो प्रयोग कैसे करेगा? ऐसे में उसके द्वारा निर्मित हथियार और विमान कोई नहीं खरीदेगा।
जिस तरह लोग प्रायोजित भूत खड़ा करते हैं उससे तो यह लगता है कि सचमुच में लादेन रहा भी होगा कि नहीं। ऐसा तो नहीं कभी इस नाम का कोई आदमी अमेरिका में रहता हो और फिर मर गया हो। फिर अमेरिकनों ने किसी दूसरे आदमी की प्लास्टिक सर्जरी कर उसका चेहरा बना कर अफगानिस्तान भेज दिया हो। उस मरे आदमी की पारिवारिक पृष्ठभूमि का इस्तेमाल किया गया हो क्योंकि एक बार अफगानिस्तान आने के बाद वह कभी घर नहीं गया और न ही परिवार वालों से मिला। उसके बारे में अनेक कहानियां आती रहीं पर उनको प्रमाणित किसी ने नहीं किया। इस तरह फिल्मों में अनेक बार देखने को भी मिला है कि नायक का चेहरा लगाकर खलनायक उसे बदनाम करता है। ऐसा ही लादेन नाम के भूत से भी हुआ हो। जिस आदमी ने चेहरा लगाया होगा। भूत के रूप में लादेन को स्थापित करने का काम खत्म होने के बाद वह लौट गया हो। इस तरह के प्रयोजन में पश्चिमी देशों को महारत हासिल है।
हम अभी तक जो सुनते, देखते और पढ़ते हैं उनका आधार तो टीवी, फिल्म और समाचार पत्र ही हैं। कोई कहेगा कि भला यह कैसे संभव है कि भूत को इतना लंबा जीवन मिल जाये? दरअसल आदमी को न मिलता हो पर भूत को कई सदियों तक जिंदा रखा जा सकता है। जिंदा आदमी की इतनी कीमत नहीं है जितना भूत की। हमारे देश में इतने सारे भूत बनाकर रखे गये हैं कि उनके नाम पर खूब व्यापार चलता है। कोई समाज वाद के नाम से चिढ़ता है तो कोई पूंजीवाद के नाम से। किसी को चीन सताता है तो किसी को पाकिस्तान! अमीर के सामने गरीब के हमले का और गरीब के सामने अमीर के शोषण का भूत खड़ा करने में अपने यहां बहुत लोग माहिर हैं। सबसे बड़ा भूत तो अमेरिका का नाम है। उसके सम्राज्यवाद से लड़ने के लिये लोग अपने देश में भी सक्रिय हैं जो बताते हैं कि उसका भूत अब यहां भी आ सकता है। जब वह साठ सालों तक ऐसे भूत को जिंदा रख सकते हैं तो फिर यह तो नयी तकनीकी और तीक्ष्ण चालें चलने वाला अमेरिका है। चाहे जितने भूत खड़ा कर ले उसके नाम पर भभूत यानि हथियार और विमान बेचता जायेगा। बाकी लोग तो छोड़िये उसके ही लोग ऐसे भूतों पर सवाल उठाने लगे हैं। वैसे भारतीय प्रचार माध्यम भी लादेन नाम का भूत बेचकर अपने समय और पृष्ठों के लिये सामग्री भरते रहे हैं।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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नव वर्ष का आगमन-व्यंग्य आलेख (new year coming-hindi satire


छोटे शहर के आदमी के लिये यही एक उलझन है कि उसके घरेलू और सामाजिक संस्कार कुछ दूसरे हैं जबकि बाह्य रूप से अनेक बार औपचारिक होकर दूसरे संस्कारों को निभाना पड़ता है। जिनमें अपने यहां ईसवी संवत् तो हमारे जैसे लोगों के लिये हमेशा अजूबा रहा है।
जब नया साल आयेगा तो जो भी मिलेगा उससे कहना पड़ता है कि ‘नव वर्ष मुबारक’। हम नहीं बोलेंगे तो वह बोलेगा तो हमें भी कहना पड़ेगा कि ‘आपको भी।’
सच बात तो यह है कि हृदय में स्पंदन बिल्कुल नहीं है। अपने यहां गुड़ी पड़वा पर ही नया संवत् प्रारंभ होता है। इससे हिन्दू धर्म का हर समाज मनाता है। ऐसे में अगर आपका जातीय, भाषाई या क्षेत्रीय समुदाय अलग भी है तो भी दूसरे से अपनी खुशी बांट सकते हैं। फिर बात मौसम की भी है। उस समय मौसम समशीतोष्ण रहता है और एक तरह देह में खुशी की तरंगे स्वाभाविक रूप से उठती हैं।
बचपन से ही इन संस्कारों के साथ बड़े हुए। विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी कोई ऐसा शोरगुल नहीं होता था अलबत्ता कुछ लोग एक दूसरे को बधाई देते थे।
जैसे जैसे विद्युतीय तरंगों से युक्त प्रचार माध्यमों को प्रभाव बढ़ा, ऐसे अनेक त्यौहार हैं जो हमारी संस्कृति का भाग नहीं है पर उनका नाम अधिक सुनने को मिलने लगा। दरअसल इसका कारण यह है कि इन प्रचार माध्यमों को बाजार से विज्ञापन मिलते हैं और उसे इन्हीं त्यौहारों से उपभोक्ता चाहिए, वह भी आज की पीढ़ी के नवयुवाओं से जिनके हृदय से अपनी संस्कृति और संस्कार करीब करीब विस्मृत हो रहे हैं।
वैसे तो हर धर्म में अनेक त्यौहार है और हमें किसी पर कोई आपत्ति नहीं है। यहां तक कि अगर दूसरे धर्म का आदमी हो तो हम उसे हृदय से बधाई भी देते है, उस समय हमारे मन में औपचारिक भाव नहीं होता।
हमारा उद्देश्य किसी पर आपत्ति करना नहीं है बल्कि अपने संस्कारों और संस्कृति से अलग हटकर चलने पर मन में होने वाली उथल पुथल पर दृष्टिपात करना है। साथ ही बाजार जिस तरह इन पर्वों पर अपनी कमाई के लिये आक्रामक प्रचार के लिये तैयार होता है उसे भी देखना है। अगर हम देखें तो अब हर त्यौहार दो भागों में बंट गया है। एक तो जो समाज स्वयं मनाता है दूसरा वह जिससे बाजार कमाता है। एक तरफ धर्म का पर्व दूसरी तरफ धन का गर्व।
समस्या अनेक त्यौहारों की नहीं बल्कि बाजार और प्रचार उनको जिस तरह भुनाने का प्रयास करता है उस हंसी आती है। ऐसा करते हुए बाजार तो ठीक पर उसके समर्थक प्रचार माध्यम अपनी सीमायें पार करते लगते हैं जैसे कि वह भारत की मिलीजुली संस्कृति को खिचड़ी संस्कृति समझते हैं।
अभी नया पांच दिन दूर है पर टीवी, एफ.एम. रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकायें उस पर शोर पर शोर मचाये जा रहे हैं। आ रहा है, आ रहा है नया साल आ रहा है। नववर्ष के पहले ही दिन चंद्रग्रहण क्या पूरे वर्ष बुरा प्रभाव डालेगा? या अच्छा होगा-ऐसे सवाल बेतुके हैं। अगर हम भारतीय दृष्टिकोण से बात करें तो यह चंद्रग्रहण वर्ष के बीच में आ रहा है और अगर पाश्चात्य दृष्टिकोण से देखें तो ऐसी चीजें महा बेवकूफी की मानी जाती हैं-याद रहे मायावी विकास में पश्चिम हम से बहुत आगे हैं और जिसे हम जन्नत समझते हैं वह उसे रोज भोगते हैं-अरे, जोरदार ऊंची इमारतें, मक्खन जैसी सड़कें, चमचमाती गाड़ियां और रात को आदमी द्वारा निर्मित ऐसी रौशनी जिसके आगे सूरज की रौशनी बोझिल लगती है, यही तो जन्नत की कल्पना है। हम जो टीवी पर बाहरी दृश्य देखते हैं उसके आधार पर यही कहते हैं कि स्वर्ग इसी धरती पर वह भी पश्चिम में कई जगह है। कहने का तात्पर्य यह है कि बिना किसी धार्मिक कर्मकांड के वह यहीं स्वर्ग भोग रहे हैं तब काहे वह चंद्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण के प्रभाव पर वह लोग विचार करेंगे।
एक बात जो सबसे अधिक अखरती है। कोई त्यौहार आया नहीं कि समाचार चैनल और रेडियो वाले उसको बाजार के लिये उपभोक्ता जुटाने का काम शुरु करते हैं। यहां तक तो ठीक! हर चैनल के मनोरंजक कार्यक्रम भी अपनी कहानियों में जबरन उनको ठूंस लेते हैं। यह आपत्ति केवल पाश्चात्य संस्कृति के त्यौहारों पर ही नहीं वरन् भारतीय त्यौहारों पर भी है। दिवाली, होली और राखी अपने देश के लोग मनाते हैं। ऐसे में अवकाश के दिन अगर सामान्य मनोरंजन के कार्यक्रम प्रस्तुत हों तो भी ठीक! वहां भी जबरन उन त्यौहारों को जोड़ जाता है। यह सभी देखकर तो लगता है कि अपने देश में व्यवसायिक प्रवृत्ति का अभाव है। अक्सर आपने भारतीय खिलाड़ियों के बारे में सुना होगा कि वह पैसा खूब कमाते हैं पर उनकी व्यवसायिक सोच नहीं दिखती। यही कारण है कि क्रिकेट में आज भी आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसी टीमों जैसा सामथ्र्य भारतीय खिलाड़ियों में नजर नहीं आता जो हाथ से जाता मैच अपनी तरफ खींच लें। दूसरी बात यह है कि आर्थिक क्षेत्र में भारतीयों की सबसे बड़ी समस्या ‘प्रबंध कौशल’ माना जाता है। पहले तो यह सरकारी क्षेत्र में देखा जाता था पर अब तो निजी क्षेत्र में भी यही देखा जा रहा है। समाचार चैनलों की बात करें तो आज भी दूरदर्शन ही ऐसा है जो वास्तव में सही ढंग से काम कर रहा है। बाकी समाचार चैनल तो मनोरंजक चैनलों के विज्ञापन जैसा काम कर रहे हैं। फिर उन पर फिल्मों के अभिनेताओं को भी बिना किसी फिल्म के लोकप्रिय बनाये रखने का जिम्मा है जिस कारण रोज एक कलाकार का जन्म समाचारों के केंद्र में छा जाता है। पहले फिल्म का गासिप छापने वाली पत्रिकायें अलग होती थी। बिकती खूब थी पर फिर भी समाचार और साहित्य का स्तरीय बुद्धि का पाठक उसे देखता तक नहीं था पर आज वही समाचार टीवी चैनलों को रौशन कर यह साबित करने का प्रयास होता दिखता है कि इस देश के आम आदमी की बौद्धिकता का दिवालिया निकल गया है।
उस दिन हमारे एक मित्र के लड़के ने भी यही बात कही थी कि ‘जब हम बाहर जाते हैं तो ऐसा लगता है कि हमारे माता पिता पुरानी संस्कृति के हैं क्योंकि वह नववर्ष और क्रिसमस नहीं मनाते। वह वैलंटाईन डे का मतलब नहीं समझते।’
उसके जाने के बाद उसके पिता ने मेरे से कहा था-‘देखो यह टीवी चैनल किस तरह हमारी संस्कृति का नष्ट कर रहे हैं। वह पश्चिमी त्यौहारों को इस देश में इस तरह प्रचारित कर अपनी संस्कृति को घटिया साबित करने का प्रयास करते हैं।’
हमने कहा-‘नहीं, ऐसी बात नहीं! उनमें तो तो भारतीय त्यौहारों पर भी कार्यक्रम आते हैं यह अलग बात है कि वह हास्याप्रद लगते हैं। सच तो यह है कि हमारे देश में संस्कृति तैयार की जा रही है जिससे बाजार कभी बीमार न हो। हो तो इसी खिचड़ी से काम चलाये।’
हम कोई बाजार या प्रचार की नहीं कर रहे है बल्कि उस असमंजस को बयान कर रहे हैं जो अक्सर हमारे सामने आते हैं। वैसे संभव है कि देश के नवयुवक नवयुवतियां भले ही कुछ देर बाजार के प्रचार में इन त्यौहारों पर खर्च करते हैं पर बाद में वह फिर अपनी दुनियां में लौट आते हैं इसलिये सांस्कृतिक खतरे की बात जमती नहीं। भारतीय त्यौहारों पर विभिन्न मंदिरों में जब हम भीड़ देखते हैं यह भय समाप्त हो जाता है। प्रसंगवश याद आया कि हमारे साथ एक योगी मित्र से उसके अन्य मित्र ने मंदिर में देखकर कहा-‘तुम तो योग साधना करते हो फिर यहां क्यों आते हो?’
उसने जवाब दिया कि ‘यह एक अच्छी आदत है। मूर्तियों में भगवान नहीं है हमें पता है पर फिर भी उसके होने का अहसास मुझे एक आत्मविश्वास देता है। इसलिये यहां ध्यान लगाने जरूर आता हूं। पुरानी आदत है न! छूटती नहीं है। एक बार मूर्ति पूजना शुरु करने के बाद उसे छोड़ना भी नहीं चाहिये, ऐसा मेरे योग गुरु ने बताया था क्योंकि वह भी तनाव का कारण बनता है।’
तब वह अन्य मित्र बोला‘-सच बात तो यह है कि शनिवार या मंगलवार को मैं यहां न आंऊ तो बाकी दिन परेशान रहता हूं।’
कहने का तात्पर्य यह है कि मन ऐसी शय है जब उस पर नियंत्रण स्वयं नहीं करते तो कोई बहाना ले सकते हैं-यह बुरा नहीं है कम से कम उससे तो कतई नहीं कि आपके मन को बांधकर कोई दूसरा ले जाये जिसके पीछे आपको भी जाना है। अपने मन को स्वतंत्र रखने के लिये जरूरी है कि उस पर हमारा नियंत्रण हो।
बाजार और प्रचार का हाल तो सभी देख रहे हैं। अभी चार दिन पड़े हैं पर इधर नये वर्ष को ऐसे प्रस्तुत कर रहे हैं जैसे कि आज आ रहा हो। अनेक टीवी चैनल पिछले वर्ष के कार्यक्रमों को प्रस्तुत कर रहे हैं। समाचार चैनल यह कैसे दावा कर सकते हैं कि इन चार दिनों में कोई ऐसी बड़ी घटना नहीं होगी जो इस वर्ष की पहचान बन जाये-या वह तय कर चुके हैं कि वह इन पांच दिनों में कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं प्रस्तुत करेंगे जो इस वर्ष का सबसे अच्छा हो क्योंकि कुछ तो अपने इस वर्ष के हिट कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे हैं। बहरहाल चार दिन तक सुनते रहो कि नया वर्ष आ रहा है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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असली नकली पुरस्कार-हिंदी हास्य व्यंग्य (hindi comedy satire on prize)


समाज सेवाध्यक्ष जी ने अपनी बाहें टेबल पर टिकाई अपना मूंह हथेलियों पर रखने को बाद अपने सात सभासदों की उपस्थिति देखकर गिनती की। आठवां सदस्य सचिव लेखपालक गायब था। उन्होंने कहा‘-यह सचिव लेखपालक हमेशा ही देर से आता है। सारा हिसाब किताब उसके पास है और उसके बिना यहां चर्चा नहीं हो सकती।’
सामने बैठे सभी सातों सदस्य एकटक उनकी तरफ देख रहे थे। समाज सेवाध्यक्ष जी उठे और बैठक कक्ष में ही टहलने लगे। फिर कुछ कहने लगे। मौजूद सदस्य यह नहीं समझ पा रहे थे कि वह अपने से बात कर रहे हैं या उनसे। अलबत्ता उनके शब्द सभी को साफ सुनाई दे रहे थे।
वह कह रहे थे कि ‘इस बार हमने सूखा राहत और बाढ़ बचाव में अपना काम कर यह सिद्ध कर दिया है कि हमारी इस संस्था की भूमिका समाज सेवा के मामले में अत्यंत महत्वपूर्ण है……………’’
इससे पहले वह कुछ आगे बोलें एक सदस्य ने यह सिद्ध करने के लिये कि वह भी बोलना जानते हैं, उनकी बात पूरी होने से पहले ही अपनी बात कही-’पर साहब, यह तो पुरस्कार समिति की बैठक है!’
इससे पहले कि समाज सेवाध्यक्ष कुछ कहते एक दूसरे सदस्य ने भी यह सिद्ध करने के लिये कि वह बहस भी कर सकता है, उस सदस्य को फटकारा-‘अरे, कैसी बेवकूफी वाली बात करते हो। चाहे बाढ़ हो या अकाल, काम तो अपनी समिति ही करती है जिसके सदस्य तो हम आठ और नौवें साहब हैं। हमारा काम क्या है, केवल चंदा उगाहना और अपनी समाज सेवा के रूप में उसे बांटने में कलाकारी दिखाना। साहब को बोलने दो, बीच में बोलकर उनकी चिंतन प्रक्रिया को भंग मत करो।’
समाज सेवाध्यक्ष ने दूसरे को डांटा-‘यह बांटने में कलाकारी वाली बात इतनी जोर से मत कहो। दीवारों के भी कान होते हैं।
बैठक में सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर बाद समाज सेवाध्यक्ष कुर्सी पर विराजे और बोले-‘‘इस बार हमनें खास ढंग के पुरस्कार बांटने की घोषणा की थी ताकि उसके लिये स्वप्रायोजक मिलें या फिर कोई प्रायोजक पकड़ कर इनाम लेने आयें। लगता है कि बाढ़ और अकाल में काम का प्रचार ढंग से नहीं हुआ। वैसे अखबारों में धन और अन्न लेने वाले पीड़ितों के हमने इधर उधर से फोटो जुगाड़ने में बहुत मेहनत की। उनके प्रचार पर कुछ पैसा भी खर्च हुआ लगता है उसका परिणाम नहीं निकला।’
तीसरा सदस्य बोला-‘आजकल लोगों में दया धर्म कम हो गया है। ढंग से चंदा भी नहीं देते। हिसाब मांगते हैं। हम तो कह देते हैं कि हम तो चंदा लेकर तुम्हें दान का पुण्य दे रहे हैं वरना खुद कर देख लो हमारे जैसी समाज सेवा।’
एक अन्य सदस्य ने उसे फटकारा-‘कमबख्त, तुम कहां चंदा मांगने जाते हो? बस, प्रचार सचिव के नाम पर इधर उधर पर्चे बांटते हो। तुम्हारा काम इतना खराब है जिसकी वजह से लोगों को हमारी कार्य प्र्रगति की जानकारी नहीं मिल पाती।’
एक अन्य सदस्य को उसकी बात समझ में नहीं आयी तो बोल पड़ा-‘हम काम कौनसा करते हैं जिसकी जानकारी लोगों को मिले। बस काम का प्रचार है, वह भी यह ढंग से नहीं करता।’
समाज सेवाध्यक्ष ने कहा-‘खामोश हो जाओ, अपनी असलियत यहां क्यों बखान कर रहे हो। कोई सुन लेगा तो! फिर आजकल स्टिंग आपरेशन भी हो जाते हैं। हमारी संस्था की कमाई देखकर बहुत से लोग हमारे पीछे पड़े हैं। इसलिये अब सोच समझकर बोला करो। यहां ही नहीं बाहर भी ऐसी आदत डाल दो।’
इतने में सचिव लेखपालक आ गया। उसे देखते ही समाज सेवाध्यक्ष बोले-‘यह आने का समय है? कहां चले गये थे?’
सचिव लेखपालक बोला-‘सारा काम तो मुझे ही करना पड़ता है, आप तो सभी केवल देखते हो। इस साल पुरस्कार देने के लिये जुगाड़ लगाना था। इसके लिये दो तीन लोगों से बात कर ली है। कार्यक्रम का खर्च, उनको दिये जाने वाला उपहार और अपने लिये कमीशन का जुगाड़ लगाना था। फिर पुरस्कार के नाम पर चंदा भी लेना है। इसके लिये कुछ लोगों को ‘समाज सेवा’ के लिये सम्मान देना था।’
एक सदस्य चिल्लाया-‘नहीं! समाज सेवा का पुरस्कार हम देंगे तो फिर हमारी समाज सेवा की क्या इज्जत रह जायेगी।’
समाज सेवाध्यक्ष ने कहा-‘हम यहां समाज सेवा की बात नहीं कर रहे पुरस्कार देकर प्रोत्साहन देने वाला काम रहे हैं। समाज सेवा के लिये एक पुरस्कार अपने सचिव और प्रचार सचिव को भी देंगे। कौन रोकड़ा देना है? देंगे तो आयेगा तो अपने पास ही। आगे बोलो।’
सचिव ने कहा-‘इस बार हथेली पर सरसों जमाने और बबूल बोकर आम उगाने के लिये अनोखे पुरस्कार दिये जायेंगे।’
एक सदस्य के मूंह से चीख निकल गयी-‘पर यह तो कभी हो ही नहीं सकता। बरसों पुरानी कहावत है।’
सचिव ने कहा-‘हमें क्या? वह लोग बड़ी संस्थाओं का प्रमाणपत्र ले आयेंगे जो यहां उपस्थित सभी दर्शकों को दिखाये जायेंगे।’
एक अन्य सदस्य ने कहा-‘पर वह संस्थायें कौनसी होंगी। पता करना असली है कि नकली।’
सचिव ने कहा-‘हमें क्या? अरे, जब हम किसी से हाथ में हजार का नोट लेते हैं तो क्या पहचान पाते हैं कि वह असली है या नकली! यहां किसको फुर्सत रखी है कि यह जानने का प्रयास करे कि ऐसा प्रमाण पत्र देने वाली संस्थायें असली हैं या नकली। बस, इतना पता है कि जिन लोगों ने इसके लिये पुरस्कार मांगे हैं उनमें एक स्व प्रयोजक है और दूसरे का प्रायोजन एक ऐसा आदमी कर रहा है जिसे पुरस्कार लेने वाले से भारी राशि कर्जे के रूप में लेनी है जिसे वह कभी चुकायेगा नहीं। समझे! बाकी पुरस्कार तो समाज सेवियों के हैं जो बिचारे अपने घर से बाहर कभी सोच भी नहीं पाते पर उनको अपने घर की महिलाओं पर रौब गालिब करना है।’
सभी सोच में पड़ गये तक समाज सेवाध्यक्ष ने कहा-‘तुम सभी को संाप क्यों सूंघ गया। सचिव लेखपालक ने जो प्रस्ताव रखा है वह भी कम अनोखा नहीं है। बजाओ तालियां।’
सभी लोगों ने सहमति में अपनी तालियां बजायीं।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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