हमारे लिय यह प्रमाणित करना कठिन है भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित भगवान के अवतार वास्तव में सत्य हैं। अनेक लोग इनको कल्पित मानते हैं तो कुछ लोग इनको सत्य मानते हुए उनकी जीवन चरित्र से जुड़ी चमत्कारी घटनाओं को साहित्यक अतिश्योक्ति मानते हैं। बहरहाल अब यह बहस का मुद्दा नहीं बल्कि विश्वास का बन गया है। मानो तो भगवान नहीं तो पत्थर तो हूं ही-एक तरह से भगवान का ही यह कथन लगता है।
इंसान को जो प्रकृति के तरफ से जो सबसे कीमती तोहफा मिला है वह बुद्धि की व्यापकता जो अन्य जीवों में नहीं पायी जाती। इसी इंसान की देह में रहने वाला मन भी उतना ही सोचता है जितनी बुद्धि से ऊर्जा पाता है। यही मन मनुष्य का मित्र और शत्रु है। अब यह मनुष्य के संकल्प पर निर्भर होता है कि वह उसे क्या बनाता है। यही मन चमत्कार देखना चाहता है क्योंकि कोई इंसान स्वयं नहीं कर सकता।
मगर चमत्कार होते नहीं और न ही किये जा सकते हैं। प्रकृति के नियम हैं उनको कोई बदल नहीं सकता मगर इंसान उसे बदलते देखना चाहता है। यही से शुरुआत होती है उन मनुष्यों की गतिविधियों की जो व्यापार करते हैं। उन्हें अपने सामान बेचना है तो उसका प्रचार करना है। प्रचार करने के लिये उनको ऐसे पात्र बताना है जो उन चीजों का उपयोग करते हैं या उनका नाम उनसे जुड़ा है जो चमत्कार करते हैं। चमत्कार होते नहीं पर उनका होना दिखाना पड़ता है। इंसान को दूर के ढोल सुहावने लगते हैं इसलिये ऐसे पात्र दूर स्थित रखने पड़ते हैं ताकि उसके दृष्टि पथ में न आये। अब तो छोटे और बड़े पर्दे ने व्यापारियों को यह सुविधा आसानी से दे दी है।
आदमी को बुखार आ गया तो उसे जाना है। पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान बताता है कि आदमी के अंदर ही रोग प्रतिरोधक क्षमतायें होती हैं और किसी समय उनमें कमी आ जाती है पर फिर स्वतः उसकी वापसी होती है। यही कारण है कि अधिकतर दवाईयां दर्द प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिये बनती हैं और उनसे रोग निवारण नहीं होता। ऐसे में किसी का बुखार अगर आराम करने से चला गया तो वह चमत्कार नहीं होता पर मान लिया जाता है।
माया चंचल है। आज यहां तो वहां। इसलिये किसी का मालामाल होना भी चमत्कार नहीं है और न गरीब हो जाना। अभ्यास करते करते मूर्ख ज्ञानी हो जाता है। आदमी की बुद्धि व्यापक है और वह निंरतर सक्रिय रहती है ऐसे में जो भी अपने व्यवसाय में लगा है वह उसक हर हुनर में माहिर होता है। जिस तरह दुकानदार अपनी अलमारी में किसी को सजावट ऐसे करता है जिससे उसकी वस्तुऐं ग्राहक की दृष्टि में आये उसी तरह सड़क पर प्रदर्शन करने वाला नट और जादूगर भी यही करता है कि लोग उसके करतब से प्रभावित हों। बहुत पहले सांप और नेवले की लड़ाई देखते थे। नेवला सांप को घायल कर देता था। बाद में सांप और नेवला लाने वाला लोगों से पैसा देने का आग्रह कर था। लोग उसे पैसा देते थे। ऐसा दिन में वह कई बार कई जगह करता था। उसकां सांप भी विचित्र होता था। अब कुछ लोग कहते हैं कि शायद वह सांप प्लस्टिक का रहता होगा और उस पर वह कोई ऐसा द्रव्य लगाता होगा जो उसके नेवले का प्रिय हो जिसे चूसने के लिये वह उस पर हमला करता हो। कहने का अभिप्राय यह है कि इस तरह के नट और जादूकर हर युग में रहे हैं जो इंसान के मन में चमत्कार और दूसरों के द्वंद्वों का आनंद लेने की लालसा रहती है। इसका व्यवसायिक दोहन करने की कला का नाम ही व्यापार है।
अब समय बदल गया है। आदमी के मनोरंजन के साधन बदल गये हैं। अब भीड़ सड़क पर सांप नेवले का द्वंद्व देखने नहीं जाती। इसलिये बड़े पर्दे की फिल्में और छोटे पर्दे की टीवी पर ही ऐसे चमत्कारों और द्वंद्वों का आयोजन किया जाने लगा है। बस, अंतर इतना है कि उनके प्लास्टिक के पात्रों जगह हाड़मांस से बने इंसान काम करते हैं। खासतौर से क्रिकेट और फिल्म में चमत्कार और द्वंद्व प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनको देखकर आदमी का मन झूमता है।
चमत्कारों और द्वंद्व देखने के अलावा मनुष्य की एक और बुराई है वह स्वयं उनसे जुड़ना चाहता है। जिस तरह नट का खेल देखने के बाद लोग पैसे डालते थे-एक तरह से दान देते थे कि आखिर उसने इतनी मेहनत की है। अब भी लोग डालते हैं। बस अंतर इतना है कि यहां वह दान की तरह नहीं दाम की तरह पैसे देते हैं। आदमी के मन में जुआ की प्रवृत्ति है और चमत्कार या द्वंद्व से सीधे जुड़ने की प्रवृत्ति के कारण सट्टे भी सुविधा का भी इंतजाम कर लिया गया है।
आदमी को कोई न कोई भगवान मन लगाने के लिये चाहिये सो बाज़ार ने फिल्म और क्रिकेट से ही उठा लिये हैं। एक नही सैंकड़ों। किसी का जन्म दिन है तो किसी की पुण्य तिथि। रेडियो, टीवी तथा समाचार पत्रों में रोज किसी भगवान की चर्चा होती है।
इधर भारत का बाजार क्रिकेट को धर्म कहकर प्रचारित कर रहा है और बकायदा एक भगवान भी ले आया है। । इस क्रिकेट खेल का जनक कौन है? अपने भारत में तो शायद यह उस खिलाड़ी के जन्म से ही शुरु हुआ होगा जिसे बाज़ार भगवान बता रहा है। 1983 में जब भारत ने विश्व कप जीता था तब उस समय आठ साल का भगवान आकाश से उड़कर वहां पहुंचा होगा। 2006 में भारत बांग्लादेश से भारत पिट गया तब शायद उस पर इस भगवान की कृपा रही होगी। हां, कभी कभी तो भगवान को भारत के पड़ौसी पर भी कृपा करना चाहिए। भारत के क्रिकेट खेल में सट्टे की चर्चा जोरों पर है। भगवान को शायद पता नहीं! बाज़ार का काम है सौदा करना। अधर्म बिके या धर्म! पैसे सौदे में दाम से आये या खेल में सट्टे से इसकी पहचान वह नहीं करना चाहता। इसलिये ही शायद एक भगवान बना रखा है। यानि जो लोग सट्टे या जुआ जैसे घृणित विषय को नहीं देखना चाहते वह भगवान को देखकर सात्विकता के साथ क्रिकेट प्रेमी बने रहें।
भगवान तो सर्वव्यापी होते हैं, चमत्कारी होते हैं, बाज़ार का यह ‘क्रिकेटियर भगवान’ कीर्तिमानों के लिये ही चमत्कारी हैं-अब यह अलग बात है कि विश्व कप जीतने का कीर्तिमान उसके नाम पर नहीं है। अब यह कहना कठिन है कि उनमें यह क्षमता है कि नहीं या फिर भगवान को सभी पर समान दृष्टि रखना चाहिये इसलिये विश्व कप में राष्ट्रनिरपेक्ष हो जाते हैं।
भारतीय बाज़ार के सौदागर भी अब अपने भगवान का अनुसरण करते राष्ट्रनिरपेक्ष होते जा रहे हैं। उनको नटों और जादूगरों की तरह सड़क पर खेल नहीं दिखाकर पैसे वसूल नहंी करना बल्कि छोटे और बड़े पर्दे पर कब्जा कर खातों में पैसे पहुंचाने हैं। यह बाज़ार है, उसके सौदागरों और ढिंढोरचियों पर जितना लिखो कम है। वह रोज एक नया शिगुफा छोड़ते हैं और अनेक बार तो लोगों की समझदानी काम हीं नहीं करती। जब सड़क छाप नट और जादूगरों ने पास में रहकर चला दिया तो यह तो दूर बैठे हैं। भले ही अपने को कहते भले ही कुछ हों पर हैं तो नट और जादूगर ही न!
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com
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