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इन्टरनेट के प्रयोग से होने वाले दोषों से बचाती है योग साधना-हिंदी आलेख


कुछ समाचारों के अनुसार इंटरनेट पर अधिक काम करना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। इंटरनेट का संबंध कंप्यूटर से ही है जिसके उपयोग से वैसे भी अनेक बीमारियां पैदा होती हैं। एक खबर के अनुसार कंप्यूटर पर काम करने वालों में विटामिन डी की कमी हो जाती है इसलिये लोगों को धूप का सेवन अवश्य करना चाहिये। अगर इन खबरों का विश्लेषण करें तो उनसे यही निष्कर्ष निकलता है कि कंप्यूटर और इंटरनेट के अधिक प्रयोग से ही शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। इसके अलावा इनके उपयोग के समय अपने आपको अनावश्यक रूप से थकाने के साथ ही अपनी शारीरिक तथामानसिक स्थिति पर पर्याप्त ध्यान न देना बहुत तकलीफदेह यह होता है। सच बात तो यह है कि इंटरनेट तथा कंप्यूटर पर काम करने वालों के पास उससे होने वाली शारीरिक और मानसिक व्याधियों से बचने का एकमात्र उपाय योग साधना के अलावा अन्य कोई उपाय नज़र नहीं आता।
दरअसल कंप्यूटर के साथ अन्य प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक सावधानियां रखने के नुस्खे पहले बहुत पढ़ने को मिलते थे पर आजकल कहीं दिखाई नहीं देते । कुछ हमारी स्मृति में हैें, जो इस प्रकार हैं-
कंप्यूटर पर बीस मिनट काम करने के बाद विश्राम लें। पानी अवश्य पीते रहें। खाने में नियमित रूप से आहार लेते रहें। पानी पीते हुए मुंह में भरकर आंखों पर पानी के छींटे अवश्य मारें। अगर कंप्यूटर कक्ष से बाहर नहीं आ सकें तो हर बीस मिनट बार अपनी कुर्सी पर ही दो मिनट आंख बंद कर बैठ जायें-इसे आप ध्यान भी कह सकते हैं। काम खत्म करने पर बाहर आकर आकाश की तरफ जरूर अपनी आंखें केंद्रित करें ताकि संकीर्ण दायरे में काम कर रही आंखें व्यापक दृश्य देख सकें।
दरअसल हम भारतीयों में अधिकतर नयी आधुनिक वस्तुओं के उपयोग की भावना इतनी प्रबल रहती है कि हम अपने शरीर की सावधनी रखना फालतु का विषय समझते हैं। जहां तक बीमारियों का सवाल है तो वह शराब, सिगरेट और मांस के सेवन से भी पैदा होती हैं इसलिये इंटरनेटर और कंप्यूटर की बीमारियों से इतना भय खाने की आवश्यकता नहीं है मगर पर्याप्त सावधानी जरूर रखना चाहिए।
इंटरनेट और कंप्यूटर पर काम करने वाले हमारे देश में दो तरह लोग हैं। एक तो वह है जो शौकिया इससे जुड़े हैं और दूसरे जिनको इससे व्यवसायिक बाध्यता ने पकड़ा है। जो शौकिया है उनके लिये तो यह संभव है कि वह सावधानी रखते हुए काम करें-हालांकि उनके मनोरंजन की प्यास इतनी गहरी होती है कि वह इसे समझेंगे नहीं-पर जिनको नौकरी या व्यवसाय के कारण कंप्यूटर या इंटरनेट चलाना है उनके स्थिति बहुत दयनीय होती है। दरअसल इंटरनेट और कंप्यूटर पर काम करते हुए आदमी की आंखें और दिमाग बुरी तरह थक जाती हैं। यह तकनीकी काम है पर इसमें काम करने वालों के साथ एक आम कर्मचारी की तरह व्यवहार किया जाता है। जहां कंप्यूटर या इंटरनेट पर काम करते एक लक्ष्य दिया जाता है वहां काम करने वालों के लिये यह भारी तनाव का कारण बनता है। दरअसल हमारे देश में जिनको कलम से अपने कर्मचारियेां को नियंत्रित करने की ताकत मिली है वह स्वयं कंप्यूटर पर काम करना अपने लिये वैसे ही हेय समझते हैं जैसे लिपिकीय कार्य को। वह जमीन गड़ढा खोदने वाले मजदूरो की तरह अपने आपरेटरों से व्यवहार करते हैं। शारीरिक श्रम करने वाले की बुद्धि सदैव सक्रिय रहती है इसलिये वह अपने साथ होने वाले अनाचार या बेईमानी का मुकाबला कर सकता है। हालांकि यह एक संभावना ही है कि उसमें साहस आ सकता है पर कंप्यूटर पर काम करने वाले के लिये दिमागी थकावट इतनी गहरी होती है कि उसकी प्रतिरोधक क्षमता काम के तत्काल बाद समाप्त ही हो जाती है। इसलिये जो लोग शौकिया कंप्यूटर और इंटरनेट से जुड़े हैं वह अपने घर या व्यवसाय में परेशानी होने पर इससे एकदम दूर हो जायें। जिनका यह व्यवसाय है वह भी अपने साइबर कैफे बंद कर घर बैठे या किसी निजी संस्थान में कार्यरत हैं तो पहले अवकाश लें और फिर तभी लौटें जब स्थिति सामान्य हो या उसका आश्वासन मिले। जब आपको लगता हो कि अब आपको दिमागी रूप से संघर्ष करना है तो तुरंत कीबोर्ड से हट जायें। घर, व्यवसाय या संस्थान में अपने विरोधी तत्वों के साथ जब तक अमन का यकीन न हो तब कंप्यूटर से दूर ही रहें ताकि आपके अंदर स्वाभाविक मस्तिष्कीय ऊर्जा बनी रहे।
कंप्यूटर पर लगातार माउस से काम करना भी अधिक थकाने वाला है। जिन लोगों को लेखन कार्य करना है अगर वह पहले कहीं कागज पर अपनी रचना लिखे और फिर इसे टाईप करें। इससे कंप्यूटर से भी दूरी बनी रहेगी दूसरे टाईप करते हुए आंखें कंप्यूटर पर अधिक देर नहंी रहेंगी। जो लेाग सीधे टाईप करते हैं वह आंखें बंद कर अपने दिमाग में विचार करते हुए टंकित करें।
वैसे गूगल के फायरफाक्स में बिना माउस के कंप्यूटर चलाया जा चलाया जा सकता है। जहां तक हो सके माउस का उपयोग कम से कम करें। वैसे भी बेहतर कंप्यूटर आपरेटर वही माना जाता है जो माउस का उपयोग कम से कम करता है।
कुछ लोगों का कहना है कि कंप्यूटर पर काम करने से आदमी का पेट बाहर निकल आता है क्योंकि उसमें से कुछ ऐसी किरणें निकलती हैं जिससे आपरेटर की चर्बी बढती है। इस पर थोड़ा कम यकीन आता है। दरअसल आदमी जब कंप्यूटर पर काम करता है तो वह घूमना फिरना कम कर देता है जिसकी वजह से उसकी चर्बी बढ़ने लगती है। अगर सुबह कोई नियमित रूप से घूमें तो उसकी चर्बी नही बढ़ेगी। यह अनुभव किया गया है कि कुछ लोगों को पेट कंप्यूटर पर काम करते हुए बढ़ गया पर अनेक लोग ऐसे हैं जो निरंतर काम करते हुए पतले बने हुए हैं।
आखिरी बात यह है कि कंप्यूटर पर काम करने वाले योगसाधना जरूर करें। प्राणायाम करते हुए उन्हेंइस बात की अनुभूति अवश्य होगी कि हमारे दिमाग की तरफ एक ठंडी हवा का प्रवाह हो रहा हैं। सुबह प्राणायाम करने से पूर्व तो कदापि कंप्यूटर पर न आयें। रात को कंप्यूटर पर अधिक देर काम करना अपनी देह के साथ खिलवाड़ करना ही है। सुबह जल्दी उठकर पहले जरूर पानी जमकर पियें और उसके बाद अनुलोम विलोम प्राणायाम निरंतर करंें। इससे पांव से लेकर सिर तक वायु और जल प्रवाहित होगा उससे अनेक प्रकार के विकार बाहर निकल आयेंगे। जब आप करेंगे तो आपको यह लगने लगेगा कि आपने एक दिन पूर्व जो हानि उठाई थी उसकी भरपाई हो गयी। यह नवीनता का अनुभव प्रतिदिन करेंगे। वैसे कंप्यूटर पर काम करते समय बीच बीच में आंखें बंद कर ध्यान अपनी भृकुटि पर केद्रित करें तो अनुभव होगा कि शरीर में राहत मिल रही है। अपने साथ काम करने वालों को यह बता दें कि यह आप अपने स्वास्थ्य के लिये कर रहे हैं वरना लोग हंसेंगे या सोचेंगे कि आप सो रहे हैं।
किसी की परवाह न करें क्योंकि सबसे बड़ी बात तो यह है कि जान है तो जहान हैं। भले ही इस लेख की बातें कुछ लोगों को हास्यप्रद लगें पर जब योगासन, ध्यान, प्राणायाम तथा मंत्रोच्चार-गायत्री मंत्र तथा शांति पाठ के सा ओम का जाप- करेंगे और प्रतिदिन नवीनता के बोध के साथ इंटरनेट या कंप्यूटर से खेलें्रगे तक इसकी गंभीरता का अनुभव होगा।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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पर्यावरण पर क्या लिखता-व्यंग्य



कल पर्यावरण दिवस था। शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिला हो जिसे पर्यावरण बचाने की चिंता हो। इसका कारण भी है। मैंने कहीं पढ़ा था कि जितना पानी भारत में लोगों का उपलब्ध उतना दुनियां में किसी अन्य देश को नहीं है। कहना चाहिए कि भारत के लोगों पर भगवान की कृपा है और इसलिये ही यहां भगवान के भक्त अधिक दिखते हैं भले ही दिखावे के हो।
यहां प्रकृति के विशेष कृपा रही है और लोगों का लगता है कि यह सब तो मुफ्त का माल है इसकी क्या सोचना। अस्थमा और दिल के मरीज भी इसे वैसे ही समझते हैं जैसे स्वस्थ आदमी।

बड़े-बड़े भक्त हैं भगवान के। पत्थरों को पूजते हैं। पेड़ कट रहे हैं। हमे प्राणवायु प्रदान करने वाले पेड़ हमारे सामने ही ध्वस्त हो जाते हैं। अखबार,टीवी और अन्य सभाओं में वक्ता भाषण करते हैं। मगर पेड़ कटने का सिलसिल थम नहीं रहा। लगाने की बात करते हैं। एक पेड़ को लगाना आसान नहीं है। पहले पौधा लगाओ और फिर उसकी रक्षा करो। घर के अंदर तो कोई लगाना नहीं चाहता और घर के बाहर अगर सरकारी संस्था लगा जाये तो उसकी देखभाल करने तक कोई तैयार नहीं। अनेक संस्थाओं ने भूखंड बेचे और सभी के मकानों में पेड़ पौधे लगाने के लिऐ नक्शें मेें जगह छोड़ी पर लोगों ने वहां पत्थर बिछा दिये। कई लोगों ने उस जगह पूजाघर बना दिये। ताकि लोग आयें और देखे कि हम कितने भक्त है और स्वर्ग में टिकट सुरक्षित हो गया है। उससे भी मन नहीं भरा बाहर पेड़ पौधे लगाने की सरकारी जगह पर भी पत्थर बिछा दिये कि वहां कीचड़ न हो। कहीं दुकान बनवा लिये। कौन हैं सब लोग? जो लोग पर्यावरण बचाने के लिये इतने सारे प्रपंच कर रहे हैं उनके व्यक्तिगत जीवन का अवलोकन किया जाये तो सब पता लग जायेगा। मगर नहीं साहब यहां भी बंदिश है। सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं उनके निजी जीवन पर टिप्पणियां करना ठीक नहीं है। अब यह सार्वजनिक जीवन और निजी जीवन का अंतर हमारी समझ से बाहर हैं।
पत्थर से कभी प्राणवायु प्रवाहित नहीं होती। वह जल का प्रवाह अवरुद्ध करने की ताकत रखता है पर उसके निर्माण की क्षमता उसमें नहीं है। उसी पत्थर को पूरी दुनियां में पूजा जाता है। अरे, आप देख सकते हैं सभी लोगोंं ने अपने इष्ट के नाम पर पत्थरों के घर बनवा रखे हैं और वहीं के चक्कर लगाते रहते हैं। जिन पेड़ों से उनको प्राणवायु मिलती है और जल का संरक्षण होता है वह उनके लिए कोई मतलब नहीं रखता। विदेशों का तो ठीक है पर इस देश में क्या है? पेड़ों को देवता स्वरूप माना जाता है इस देश में ऐसे पेड़ों को प्रतिदिन जल देने की भी परंपरा रही है पर यहां पत्थरों की पूजा करने का भी विधान किया गया। पता नहीं कैसे? भारतीय अध्यात्म में तो निरंकार की उपासना करने का विचार ही देखने को मिलता है। कई जगह पेड़ों के आसपास इष्ट देवों के घर बनाकर वहां पत्थर रख दिये गये। धीरे-धीरे पेड़ गायब होता गया और लोगों की श्रद्धा पत्थर के घरों को बढ़ा करती गयी।

कहते हैं जो चीज आसानी से मिलती है उसकी कद्र इंसान नहीं करता? मगर अनेक ज्ञानी और ध्यानियों को मानने वाले इस देश में अज्ञानी कहीं अधिक हैं नहीं तो उनको समझ में आ जाता कि पेड़ पौद्यों की बहुलता और जल की प्रचुरता हम सृष्टि की देन है इसलिये सहज सुलभ है वरना लोग तरस रहे हैं इन सबके लिए। हर कोई अपने इष्ट का बखान करता है पर जो पेड़ इस दैहिक जीवन का संचालन करते हैं उसकी बजाय लोग मरने के बाद के स्वर्ग के जीवन के लिए संघर्ष करते नजर आते हैं। जहां से पैट्रोल आता है वहां पानी नहीं मिलता। वहां लोग ऐसी जलवायु को तरसते हैं। जिन पश्चिमी देशों में कारों का अविष्कार किया गया वही आज सायकिल को स्वास्थ्य के लिये उपयुक्त बताते हैं। ऐसी और कूलरों के वश में होते जा रहे लोगों का इस पर्यावरण प्रदूषण का पता नहीं चलता। आजकल अस्पताल फाइव स्टार होटलों जैसे हो गये हैं उनको अगर अपनी बीमारी के इलाज के लिये वहां जाने पर घर जैसी सुविधायें मिल जातीं हैं। मगर गरीब जिसके लिये स्वास्थ्य ही अब एक पूंजी की तरह है उसको भी कहां फिक्र है? किसे ने पेड़ काटने के लिये बुलाया है तो उसे अपनी रोटी की खातिर यह भी करना पड़ता है।

पर्यावरण के दुश्मन कहीं हमसे अधिक दूर नहीं है और न अधिक शक्तिशाली है पर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से गुलामी की मानसिकता से लबालब इस देश में केवल बातें ही होती हैं। पेड़ इसलिये काट दो कि सर्दी में धूप नहीं आती या फिर घर में शादी है शमियाना लगवाना है। किसी भी जंगल में शेर कितने हैं पता ही नहीं चलता। आंकड़े आते हैं पर कोई उनको यकीन नहीं करता। आखिर वहां शिकारी भी विचरते हैं। शेरों के खालों के कितने तस्कर पकड़े गये सभी जानते हैं। आदमी के मन में ही पर्यावरण का दुश्मन। शेर हो या हरिण उसका शिकार करना ऐसे लोगों के लिए शगल हो गया है जो उसकी खाल से पैसा कमाते हैं या अपनी प्रेमिका को प्रभावित करने के लिए अपना कौशल दिखाते हैं। एक नहीं पांच-पांच खालें बरामद होने के समाचार आते हैं पर जो नहीं आते उनकी गणना किसने की है।

लोग पेड़ पौधों के लिए चिंतित नहीं है जितना पेट्रोल के पैसे बढ़ने से दिखते हैं। वह पैट्रोल जो गाड़ी में डलने से पहले और बाद दोनों स्थितियों में चिंता का विषय है।ऐसे में पर्यावरण पर मैं क्या लिखता?

एक संदर्भहीन आलेख


मनुष्य की अपने स्थान से दूसरी जगह पलायन करना एक स्वाभाविक प्राकृतिक प्रक्रिया है और इसे रोकना लगभग असंभव है. अगर किसी स्थान से कुछ लोग दूसरे स्थान के लिए पलायन करते हैं तो वहाँ किन्हीं का आगमन भी होता है. इस पृथ्वी को बने करोडों वर्ष हो गए हैं और पश्चिमी विज्ञान और भारतीय अध्यात्म के प्राचीन ग्रंथ इस बात की पुष्टि करते हैं. अपने क्षेत्र से पलायन कर दूसरे क्षेत्र में जाना हर जीव की प्रकृति और उसे रोकने का अर्थ है प्रकृति के विपरीत कार्य करना.

हम यहाँ मनुष्यों की बात करें तो उसकी बुद्धि में अन्य जीवों की अपेक्षा विवेक तत्व की प्रधानता है और जो उसके मन को अनेक कारणों से पलायन के लिए बाध्य या प्रेरित करता है जबकि पशु पक्षी केवल अपने भोजन और पानी की उपलब्धता के अभाव और जलवायु के प्रतिकूल होने की स्थिति में ही अपने इलाके से दूसरे इलाक़े की तरफ पलायन करते हैं. अन्य जीवों में भी द्वंद्व होते हैं पर मनुष्यों में बुद्धि में विवेक तत्व की प्रधानता के कारण झगड़े कम होते हैं पर जब होते हैं तो भयानक होते हैं. अन्य जीवों में कमजोर जीव अगर झगड़े से थोडे दूर चला जाए तो वह बच जाता है पर मनुष्य तो अपनी बौद्धिक ताक़त से बहुत दूर तक जा सकता है और तमाम तरह के अपराध भी कर सकता है.

हम यहाँ अब केवल मनुष्यों की बात करें. सदियों से एक गाथा गाई जाती हैं कि’ हम सब एक ही सर्वशक्तिमान के कृपा से यहाँ पैदा होते हैं और जीवन धारण करते हैं:इसके बावजूद कोई इस उपदेश पर चल कर उसे अमल नहीं करता. आम जीवन में सभी भेदात्मक बुद्धि से अपनी राय कायम करते हैं. जाति, भाषा , क्षेत्र, नस्ल, और संस्कृति विविधता में बांटकर मनुष्यों का समूह अपनी रक्षा के लिए जुट जाता है. समूह का नेतृत्व करने वाले लोग अपने समूह पर शासन करने के लिए दूसरे समूहों का भय खड़ा करते हैं. आम तौर से लोग समूहों को अपने व्यवसाय, परिवार और अकेले होने के भय से अपनाते हुए शांति पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं पर जब किसी समूह के मुखिया को लगता है की उसकी अपने समूह पर पकड़ कम हो रही हैं तो वह कुछ ऐसे भय उपस्थति करता है जो अस्तित्व में ही नहीं होते. खासतौर से वह मुखिया जिनको लगता है कि उनकी पकड़ कमजोर हो रही हैं वह अपना सम्मान बचाने के लिए ऐसे भयों का निर्माण करते हैं जो एक कोरी कल्पना अधिक कुछ नहीं हैं.

यहाँ कोई एक प्रसंग नहीं दिया जा सकता क्योंकि ऐसा सदियों से होता आ रहा है. मुखियाओं के नाम बदल सकते हैं और समूहों के भी पर मूल प्रकृति नहीं. पहले राजा लोग ऐसा ही करते थे, और आज भी ऐसा ही हो रहा है मैने कोई दो वर्ष पहले एक पत्रिका में लेख लिखा था और वह किसी अन्य प्रसंग में था और आज मैं उसे देख रहा था तो यह देखकर हैरानी हुई की उसमें लोगों के जाति, भाषा , क्षेत्र और धर्म के नाम पर समूहों पर मैने वही लिखा था जो आज लिख रहा हूँ क्योंकि इन समूहों के मुखिया उनका उपयोग बहुद्देशीय रूप में किसी भी प्रसंग में करते हैं. हर बार वह अपने समूह के सामने दूसरे समूह का कल्पित भय उपस्थित करते हैं

पहले तो अपने क्षेत्र से बाहर पलायन कर गये व्यक्ति की सफलता का गुणगान करते हैं जैसे उसने वहाँ जाकर अपने समूह का परचम फहरा दिया है. यह बात इस तरह कही जाती है की बाकी लोगों को भी वहाँ जाने का कभी न कभी अवसर मिलेगा. इससे भी काम न बने तो बाहर से आए किसी व्यक्ति या समूह का भय दिखाते हैं. ‘वह अपनी भाषा चला रहा है’ अपने संस्कार यहाँ दिखा रहा है’ ‘अपनी भाषा फैला रहा है’ और अपना धर्म फैला रहा है’आदि बातें कहकर लोगों को पहले चिंतित किया जाता है. अपनी भाषा , धर्म जाति, धर्म और समाज पर ख़तरे की आशंका समूह के लोगों को डरा देती है. चिंताएँ स्वाभाविक है-‘हमारे बेटे का रोज़गार कैसे लगेगा’, समाज के दूसरे लड़कों का भी रोजगार नहीं बना तो हमारी बिटिया का विवाह कैसे होगा’ ‘समूह के बिना हमारा अस्तित्व कहाँ रहेगा-यह डर आदमी में पैदा होता है. डर हमेशा आदमी को ख़तरनाक बनाता है. और उन समूहों के लोगों में से सक्षम व्यक्ति अपने मुखिया के कहने पर कुछ भी करने के लिए तिया हो जाते हैं.

मगर इन संघर्षों के बावजूद किसी भी क्षेत्र से न तो लोगों का पलायन रुकता है और न ही आगमन. मन आदमी को कहीं भी ले जाता है. कहते हैं की छोटे शहरों से लोग बडे शहरों की तरह रोजागर के लिए पलायन करते हैं, पर बडे शहरों से भी लोग अपने विकास के लिए विदेशों में जाए हैं. हमेशा ऐसा नहीं होता. कई लोग अपने जीवन में परिवर्तन के लिए भी पलायन करते हैं. कुछ लोग क्षेत्र में बदनाम होकर भी दूसरी जगह पलायन करते हैं. आदमी को बताने के लिए बहाने होते हैं पर उसका मन जानता है की वह एक अनजानी खुशी पाने के लिए भी अपना स्थान छोड़ता है. आजकल हमने ऐसे भी किस्से सुने हैं की लोगों ने पंद्रह-पंद्रह लाख रूपये विदेश में जाने के लिए खर्च किये हैं. इतनी बड़ी रकम क्या किसी गरीब के पास होती है? कई लोगों ने इससे भी अधिक खर्च किये हैं तब लगता है की इतना पैसा होते हुए भी आदमी विदेश क्यों जाना चाहता है?
ढेर सारे बहाने होते हैं: सब कुछ होते हुए भी आदमी दूसरी जगह बसने का मन बना सकता है और वहाँ बसने के लिए अपने को मूल स्थान से उजाड़ना भी जरूर है. कई लोग यह भी करते हैं. बडे शहर अगर छोटे शहर से भागे हुए लोगों की शरणगाह बनते हैं तो बडे शहरों के भागे हुए लोगों के लिए यही भुमिका छोटे शहरों की भी है. मतलब कई उद्देश्यों से आदमी का मन उसे पलायन के प्रेरित करता है और उसे रोकना कभी संभव नहीं है.

भारत पर सदियों तक हमले हुए. कहते हैं देश में एक नहीं था. हम इसे यह भी कह सकते हैं की लोगों के पास एक स्थान से दूसरे स्थान के और पलायन करने की सुविधा नहीं थी. विदेशे हमलावर एक-एक इलाके को जीतते गए और वहाँ से सैनिकों के साथ आगे बढ़ते रहे. लोगों के सहानुभूति किसी के साथ नहीं थी क्योंकि उनके भी तो इधर आने के भी रास्ते खुलते गए. यहाँ हर राज्य और समूह का मुखिया बस अपने आसपास के राज्यों और समूहों का खतरा देखते और दिखाते रहे और विदेशी हमलावर पूरे देश में छा गए. कई प्रकार की भाषा बोलने वाले यहाँ हिन्दी वाले हो गए. कई जातियों का तो पता नहीं हमारे समाज में भी घुल-मिल गयीं .

लोग कहते हैं की हमें अपनी संस्कृति, भाषा, जाति और धर्म बचाने हैं.यह नारे लगते हैं पर उनका मूलभूत स्वरूप क्या है कोई नहीं बताता. क्या दूसरे समूह में इंसान नहीं है, क्या उनकी कोई भाषा नहीं है. क्या दूसरे समूह में आदमी और औरत का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता. इन प्रश्नों कोई उत्तर नहीं देता. बस उनको तो भय खडा करना है ताकि अपने समूह को काबू में रख सकें. मैं अपने लेख को पढता हुआ यह लिख रहा हूँ. कोई संदर्भ देने की जरूरत नहीं लगती. उस लेख को में किसी दिन अपने ब्लोग पर रखूंगा क्योंकि वह तीन हजार शब्दों का है, उसका संदर्भ आज प्रासंगिक नहीं है पर उसमें आज भी कुछ ऐसी बातें है वह आगे भी कई प्रसंगों पर लागू होने वाली हैं. बिना संदर्भ का यह लेख हास्यासपद हो सकता है. मैंने इसे मन में आते-जाते ख्यालों की तरह लिखा है.(क्रमश:)

मन को झूठ के सहारे कब तक बहलायें


यूं ही कहीं देख लें बाग़
तो दिल मचल जाता है
फोटो में ही क्यों न देख लूं वृक्ष
शेर कहने का जजबात उमड़ आता है
देखते हुए नकली दृश्य
अब ऊबने लगा है मन
जहाँ देखता है हरियाली को लहराते हुए
वही ठहर जाता है
घर में चीखता हुआ टीवी
रास्ते में वाहनों की भयानक आवाजें
जीवन का ऐसा हिस्सा बन गईं है
कि धीमी चलती हवा में
पेडों के हिलते पत्तो की मधुर आवाज
कहीं सुन ले तो खुश हो जाता है
पंच तत्वों से बने शरीर में रहने वाले
मन को कब तक
झूठ के सहारे बहलायें
धरतीपुत्र पेडों से भला वह कब दूर रह पाता है
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जब फूलों को देखने के लिए पैसे देने होंगे


अगर एक अखबार की खबर पर यकीन करें तो आगे चलकर प्रकृति को निहारने के लिए भी पैसे देने पड़ेंगे. इस मामले में पर्यावरण और वन विभाग में मतभेद हैं. कुछ लोग पर्यावरण संरक्षण का खर्च निकालने के लिए इसे जरूरी मानते हैं तो दूसरी और फूलों की घाटियों के स्थानीय निवासियों के अधिकार की वकालत करने वाले इसके विरोध में हैं.
यह विषय केवल उन स्थानों तक ही सीमित है जहाँ गर्मियों में भी लोग घूमने जाते हैं-वह लोग जो समयाभाव और धनाभाव के कारण इन स्थानों पर नहीं जाते वह इस बहस से दूर रहना चाहें पर अगर प्रकृति को निहारने के लिए पैसे वसूलने का काम वहाँ शुरू हुआ तो वह धीरे-धीरे उन शहरों के उन स्थानों पर भी आयेगा जहाँ प्रकृति निहारने के लिए लोगों को आमंत्रित करती है. अनेक शहरों में ऐसे बाग़-बगीचे हैं जो पत्थर और कंक्रीट के बुतों के बीच अभी इसलिए अपना अस्तित्व बचाए हुए क्योंकि वहाँ शहर के लोग भी जाना इसलिए पसंद नहीं करते क्योंकि उसमें निहारने के लिए पैसे लगते हैं और अगर वहाँ भी यह काम शुरू हुआ तो लोग ज्यादा जायेंगे ताकि वहाँ से निकलकर लगों पर अपना रुत्वा जमा सके, क्योंकि मुफ्त में लोग ध्यान नहीं देते.

वैसे यह खबर मुझे हैरान करने वाले नहीं लगी. जिस तरह आम और खास आदमी ने मिलकर प्रकृति के पुत्र पेडों को काटकर उनकी जगहों पर कब्जा किया है उससे एक न एक दिन ऐसा होना ही है. इस मामले में यह कोई नहीं कह सकता की यह सब उसने किया या इसने किया. जो जगह आँगन में पेडों की थी उन पर सीमेंट और मुजायक के फर्श बिछ गए और उन्हें घर के बाहर सड़क पर जगह दी जाती तो भी ठीक था पर उसे भी हड़पने में लोग आगे हैं. मकान, दुकान और होटल के लिए प्राणवायु का सृजन करने वाले पेडों को काट दिया गया. धन चाहिऐ और किसी भी कीमत पर चाहिए.

अपने अमर होने के भ्रम में आदमी ने उन पेडों को काटा जो उससे न केवल ज्यादा उम्र तक जीते हैं बल्कि दूसरों को भी जिंदा रखते हैं. अभी तक फ्री में सब काम करते रहे इसलिए पेड़-पोधों ने वह सम्मान भी नहीं पाया जो विष वायु बिखेरने वाली मोटर साइकिल, कार, ट्रक और ट्रेक्टर पाते हैं. लोग उन्हें खरीद कर पूजा करते हैं और मिठाई बांटते हैं जो एक पल भी आदमी को सांस न दे सके. कभी कोई पेड़ लगाकर मिठाई बांटता हो यह कभी नहीं देखा. इसके अलावा कुछ बाग़ बीचे हैं जहाँ न गरीब जाता है न अमीर. आजकल कुछ व्यवासायिक केन्द्र बन गए हैं जहाँ पैसे खर्च कर आदमी जाते हैं और बाहर आकर बताते हैं की हम वहाँ गए थे. कहीं किसी ऐसे पार्क में-जहाँ पैसे न लगते हों- जाकर आदमी क्या लोगों को बता सकता है की हम फ्री में मजे लेने गए थे. कई पिकनिक के स्थान ऐसे हैं जहाँ अब लोग इसलिए नहीं जाते क्योंकि अब कुछ शहरों में व्यावसायिक पिकनिक स्थान बन गए हैं. मतलब पैसा कमाते और खर्च करते दिखो-यही आज का नियम हो गया है.

गनीमत है हमारे दर्शन ने पेड़ पोधो को पानी देने के लिए भी पूजा जैसी मान्यता दी है और आज भी शहरों में रहने वाला एक वर्ग उनकी देख भाल करता है और कम संख्या में ही सही पेड़-पोधे बचे हुए हैं, वरना तो शहरों में हरियाली का नामोनिशान तक नहीं मिलता. भौतिकता का जाल ऐसा है कि बहुत काम लोग इस बात को याद रख पाते हैं की हम जो सांस लेते हैं उसे ऑक्सीजन कहते हैं और उसका सृजन पेड़-पोधे करते हैं और जो हम गंदी वायु छोड़ते हैं उसे वह ग्रहण कर हमारा संकट टालते हैं. जहाँ पैसा लगाने की बात चल रही है वह भी कोई आदमी की नहीं बल्कि प्रकृति की स्वयं की रचना है बस उसका कैसे आर्थिक फायदा उठा जाये इसके प्रयास किये जा रहे हैं और उन्हें गलत तो तब ठहराया जाये जब आदमी इसके लिए जागरूक हो. लोहे लंगर के सामान पर सब जगह चर्चा होती है कहते हैं कि ‘मेरे पास मोबाइल है’, ‘मेरे पास कंप्यूटर है’, ‘मेरे पास मोटर साईकिल है’ और ‘मेरे पास अपना मकान है’ आदि-आदि पर यह कोई नहीं कहता की मेरे घर पर एक पेड़ है. जब हरियाली को निहारने के लिए पैसे देने होंगे तब आदमी को समझ में आएगा कि उसकी कीमत क्या है?