Category Archives: दीपक द्वारा

जब गुस्से में आयें तब नया मॉडल लायें-हिन्दी हास्य व्यंग्य (cricket mein gussa fixing-hindi hasya vyangya)


आस्ट्रेलिया का कप्तान विश्व कप क्रिकेट कप प्रतियोगिता में जिम्बाब्बे के साथ खेले गये मैच में रनआउट हो गया। यह खबर खास न होती अगर रनआउट होने से खफा उस कप्तान ने अपने डेªसिंग रूप में आकर टीवी को अपना बल्ला न दे मारा होता। टीवी टूटा कि उसका कांच पता नहीं। मगर बताया गया कि टीवी टूट गया।
बिचारा कप्तान क्या करता? जब वह रनआउट होकर आया होगा तो उसने उसका रिप्ले यानि दृश्य का पुर्नःप्रसारण वहां देखा होगा। वह तो मैदान से ही गालियां बकता आया था इसलिये उसके साथियों को टीवी बंद कर देना चाहिए था। ऐसा उन्होंने नहीं किया। वैसे आस्ट्रेलिया के कप्तान का गुस्सा किस बात पर उतरा होगा? क्या वाकई अपने आउट होने के दृश्य के पुर्नप्रसारण पर या फिर उसमें कोई ऐसा विज्ञापन आ रहा था जिसमें अनफिट टीम इंडिया यानि बीसीसीआई के खिलाड़ियों ने काम कर जमकर पैसा कमाया है। बीसीसीआई की टीम में अनेक खिलाड़ी अनफिट हैं ऐसा समाचार आ रहा है पर उनके विज्ञापन के धंधे पर उसका कोई असर नहीं है। ऐसा लगता है कि अनेक खिलाड़ी अनफिट थे और उनको वरदहस्त प्रदान करने वाले आर्थिक शिखर पुरुषों ने अपने विज्ञापनों की इज्जत के लिये टीम में शामिल करवाया। वैसे भी भारतीय खिलाड़ियों को फिटनेस की चिंता नहीं है। उनक ध्येय बस टीम में बने रहना है। उनके आकाओं को भी इसकी चिंता नहीं है क्योंकि उनको पैसा कमाना है।
धनपतियों के प्रबंधक अनफिट खिलाड़ियों को भी नायक बना देते हैं। उससे भी नहीं मन भरता तो भगवान बना देतें हैं। इससे भी काम नहीं बनता तो भगवान को ही भारत रत्न देने की मांग करते हैं। पता लगा कि क्रिकेट का भारतीय भगवान भी अनफिट है पर यह बात अभी दबी हुई है। इस पर प्रचार माध्यम चर्चा तब करेंगे जब विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता निपट जायेगी। मतलब भारत के कुछ कथित क्रिकेट भक्त जब अपना धन और आंखों के साथ ही शारीरिक और मानसिक रूप से फिटनेस कुर्बान कर चुके होंगे और तब वह आंसु बहायेंगे कि क्यों इस तरह अपना समय गंवाया। तब तक यही प्रचार माध्यम काफी धन कमा चुके होंगे।
आस्ट्रेलिया ही नहीं विश्व के अनेक खिलाड़ी इस बात से नाराज हैं कि वह बीसीसीआई की टीम के खिलाड़ियों से अधिक फिट और दमदार हैं पर उनकी कमाई उनसे कहीं बहुत कम है। वह जीतते हैं पर इनाम की राशि से उनका घर वैसा नहीं सजता जैसा टीम इंडिया के खिलाड़ियों का महल बन जाता है। अब उनको कौन समझाये कि उनके देश देश छोटे हैं जबकि भारत बहुत बड़ी जनसंख्या वाला देश है इसलिये उनकी जीत से अधिक बीसीसीआई की टीम पा दांव ज्यादा लगता है। ऐसे में उनको ऐसी अपेक्षा नहीं करना चाहिये-खासतौर से जब ऐसा भी सुनने को मिलता है कि अनेक बार ऐसा अवसर आता है कि जीतने में कम तथा हारने पर अधिक धन मिलने की आशा में खिलाड़ी जीजान से हारने पर ही आमादा हो जाते हैं।
बात आस्ट्रेलिया कप्तान के गुस्से की है और हम मानते हैं कि यह भी फिक्स रहा होगा। जिस तरह फिक्सिंग का भूत क्रिकेट के पीछे पड़ा है उसे देखकर अब कुछ भी संयोग या दुर्योग नहीं लगता। इसलिये इस गुस्से में कहीं न कहीं फिक्सिंग की सुगंध आ रही है-यही लिखना पड़ रहा है क्योंकि लोग अब लोग खुशबु और बदबू का मतलब ही नहीं जानते।
आखिर यह शक क्यों हुआ? इसलिये कि आजकल विश्व में मंदी चल रही है। भारत इससे बचा हुआ है पर इसके बावजूद इलैक्ट्रोनिक्स क्षेत्र में अब मांग वैसी नहीं है जैसी पहले थी। टीवी और एलसीडी की मांग सीमित है। वजह यह कि अब अधिकतर लोग सामान खरीद चुके हैं और महंगाई के इस युग में शादी में देने के लिये आदमी टीवी या एलसीडी खरीदता है या फिर अपना टीवी बिल्कुल बर्बाद हो जाये तब अपनी जेब ढीली करता है। आस्ट्रेलिया के कप्तान के पास कोई बड़ा विज्ञापन नहीं है कि जिससे यह लगे कि वह भारत के चौदहवें नंबर के खिलाड़ी के मुकाबले भी कमाता होगा। यह संख्या भी हम डरते डरते लिख रहे हैं जबकि संभव यह भी है कि संख्या पचास से ऊपर हो। ऐसे में टीवी और एलसीडी उत्पादों से जुड़े मध्यस्थों ने उसे फिक्स किया होगा। कहा होगा कि ‘गुस्से में टीवी तोड़ने का फैशन चलाने का प्रयास करो, अगर सफल रहा तो तुम्हें विज्ञापन दिलवायेंगे।’
वैसे जिस तरह बीसीसीआई की टीम की फिटनेस है और आगे के मैचों के उसके खेल के जो आसार दिख रहे हैं उससे तो लगता है कि भारत के कथित क्रिकेट भक्त भी इतना गुस्सा झेलेंगे। तब वह अपना सिर फोड़ें या बाल नौंचें इससे अच्छा है कि वह कोई चीज तोड़ने का विचार करें-यही इस दृश्य फिक्स करने का मतलब लगता है। हमारा देश बड़ा है और क्रिकेट देखने वाले ज्ञानी भी कम नहीं है और कथित देशप्रेम के जज़्बात पर बुरे खेल का प्रहार होगा तो उनका गुस्सा भड़केगा। यह गुस्सा व्यर्थ नहीं जायेगा, इसलिये वह चीजें तोड़ने का फैशन अपना सकते हैं, खासतौर से जब वह किसी गौरवर्ण व्यक्ति ने अपनाया हो-इससे बाज़ार का मतलब सिद्ध हो जायेगा। टीवी या एलसीडी टूट जायेगा तो फिर दूसरा खरीदना पड़ेगा। इतने बड़े देश में कितने लोगों को गुस्सा आयेगा यह पता नहीं क्योंकि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के तंतु भी देश में जिंदा हैं। जीत में लोग अपने पौरुष का जश्न मनाते हैं तो हार में लोग हरिनाम लेने लगते हैं। मगर बाज़ार के प्रचार प्रबंधक तो नित नये नुस्खे निकालते ही रहते हैं। अगर टीवी और एलसीडी टूटने की घटनायें बाज़ार में गुणात्मक रूप से व्यापर बढ़ा तो आस्ट्रेलियाई कप्तान को टीवी और एलसीडी के बहुत सारे विज्ञापन मिल सकते हैं। उसमें वह जुबां हिलाता नज़र आयेगा। डायलाग अपने ही देश के सुपर स्टार की आवाज में हो सकता है।
‘‘ऐ, जब भी गुस्सा आये टीवी या एलसीडी तोड़ डालो, इससे मन शांत भी हो जायेगा और घर में नया माडल आ जायेगा नया माडल यानि……………..जब भी गुस्सा आये तब………………नया माडल लायें।’
सच बात तो यह है कि अब तो कई घटनायें इस तरह फिक्स लगती हैं कि काल्पनिक व्यंग्य लिखना बेकार लगता है। अनेक बार तो हंसी छूट जाती है। वैसे जिस तरह देश का मनोरंजन क्षेत्र जिस तरह हास्य व्यंग्य के कार्यक्रम पेश करता है उससे तो यही लगता है कि वह समाचार बनाने के लिये ऐसी घटनायें भी कराता है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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पेट्रोल में विदेशी और साइकिल में स्वदेशी का भाव-हिन्दी व्यंग्य लेख


करीब दो वर्ष तीन माह से अब लीटर की नाप की जगह दाम बताकर पेट्रोल भरवाना प्रारंभ कर दिया है। उसमें तेल नहीं डलता। दाम बताकर पेट्रोल भरवाते हैं इसलिये उसका सही दाम नहीं मालुम। दरअसल हमने आलोच्य अवधि में ही स्कूटर छोड़कर नया दुपहिया वाहन लिया। जिसमें मीटर बताता है कि गाड़ी में पेट्रोल कितना है। जैसे ही मीटर के लाल संकेत की ऊपर वाली लाईन के पास कांटा आता है हम पेट्रोल भरवा लेते हैं। हमेशा ही सौ रुपये का भरवाते हैं और देख रहे हैं कि भाव बढ़ते बढ़ते पेट्रोल भरने के बाद कांटा अब पूर्णता के संकेत से नीचे आता जा रहा है। मतलब पेट्रोल के भाव बढ़ रहे हैं।
कल एटीएम से पैसे निकालने से पहले पेट्रोल भरवाया। जेब मे एक सौ क और एक पचास का नोट था। इसलिये पचास का ही भरवाया। कांटा कुछ ही ऊपर गया पर आज शाम घर आये तो लगा कि तेल संकेतक कांटा फिर अपनी जगह पेट्रोल भरवाने से पहले वाली लाईन पर आ गया है। मतलब एक दिन में पचास रुपये का पेट्रोल फूंक दिया। यह दाम जेब की लाल रेखा से ऊपर जा रहा है। अभी कुछ दिन पहले पुरानी साइकिल बेचकर नई ली थी। वह भी लाल है पर जेब की की हरियाली बनाये रखने का काम करती है। बरसों से काम पर साइकिल से गये पर अब स्कूटर की आदत हो गयी है, मगर साइकिल चलाना जारी है। मुश्किल यह है कि वह नियमित आदत नहीं रही। नई साइकिल को हम रोज निहारते हैं क्योंकि मालुम है कि संकट की सच्ची साथी है। फिर टांगों को भी निहारते हैं जिन पर अब पहले से कम यकीन रहा है। इसलिये कभी कभी चार से पांच किलोमीटर साइकिल चला लेते हैं। चार पांच दिन के अंतराल से चलाने पर घुटने कुछ नाराजगी जताते हैं पर दम नहीं तोड़ते। लगातार तीन चार दिन चलाओ तो लगता है कि आदत बन रही है मगर छोड़ दें तो फिर मुश्किल आती है।
यह साइकिल करीब तीन हजार रुपये की छह माह पूर्व खरीदी थी पर उसका पैसा वसूलने के लिये समय चाहिए। हमारा अंदाजा है कि पिछले छह माह में सात सौ किलोमीटर से अधिक नहीं चलायी होगी-यह दूरी कम भी हो सकती है।
हमारा मानना है कि उसे तीन हजार किलोमीटर चलाकर ही कीमत की वसूली हो सकती है। अगर वह साइकिल हम काम पर भी ले जायें तो कम से कम पांच माह नियमित रूप से चलानी होगी तभी कीमत की वसूली मानी जा सकती है।
जिस दिन खरीदी थी उस दिन दुकानदार ने बताया था कि साइकिल किसी भी कंपनी की हो मगर वह बनती पंजाब में ही है। बताते हैं कि पंजाब में बनी साइकिलें विदेशों में निर्यात भी होती हैं। मतलब स्वदेशी हैं इसलिये इसमें संदेह नहीं है कि देश का भविष्य वही संभाले रहेंगी। पेट्रोल विदेशी उत्पाद है और कभी भी साथ छोड़ सकता है। आज सोच रहे हैं कि अब साइकिल पर अपनी आदत बढ़ाई जाये।
प्रसंगवश आज एक मित्र ने अपनी कार दिखाई जो उन्होंने एक वर्ष पूर्व खरीदी थी। अभी उन्होंने चलाना सीखा है और रास्ते में मिलने पर उन्होंने बताया कि उनकी गाड़ी डीजल से चलती है और एक किलोमीटर में बीस लीटर! डीजल 42 रुपयेे लीटर है और उनके अनुसार कहीं किराये से आने जाने पर लगने वाले पैसे से कम इस पर खर्च होता है।
सद्भावना से उन्होंने कहा कि-‘तुम भी कार खरीद क्यों नहीं लेते!’
हमने मित्र से कहा कि-‘आपके घर के मार्ग की सड़के सही और चौड़ी हैं और हम दूर रहते हैं। हमारा पेट्रोल तो सड़क जाम में ही खत्म हो जायेगा।’’
वह बोले-‘हां, यह तो ठीक है।’
हमने हंसते हुए कहा कि-‘हमने तो नई साइकिल खरीदी है। सड़क जाम में पेट्रोल फूंकते फूंकते तो लगता है कि वही चलाया करें!’
वह बोले-‘हां, आपके घर का मार्ग वाकई बहुत खराब है।’
बातचीत खत्म घर आये। समाचार चैनल खोले। कहीं क्रिकेट तो कहीं फिल्म तो कहीं कोई दूसरी बकवास चल रही थी। हर बार हम समाचार सुनने के लिये खोलते हैं। मालुम है कि देखाने सुनने को नहीं मिलेंगे पर आदत तो आदत है। वहीं एक जगह ब्रेकिंग न्यूज आ रही थी कि मिस्र के जनआंदोलन की वजह से कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने का असर भारत में जल्दी महसूस किया जायेगा। यह सुनते ही मित्र से हुए वार्तालाप का स्मरण हुआ और हम गैलरी में खड़ी साइकिल के पास गये। उसे परसों ही चलाया था। उस पर हाथ फेरा जैसे निर्देश दे रहे हों कि तैयार हो जाओ स्वदेशी चाल पर चलने के लिये।
अब तो यह लगने लगा है कि जैसे सुविधाओं का गुलाम होना ही विदेशी गुलाम होने जैसा है। गांधी जी के स्वेदशी वस्तुओं के उपभोग करने के विचार की पूरा देश खिल्ली उड़ा रहा है। देश की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है पर कृत्रिम रूप से पेट्रोल प्रधान बना दिया गया है। पेट्रोल के दाम बढ़ते हैं तो हर चीज़ के दाम बढ़ जाते हैं। ऐसी चीजों के दाम भी बढ़ने लगते हैं जिनका पेट्रोल से रिश्ता नहीं है पर मुश्किल यह है कि उसके उत्पादक और विक्रेता मोटर साइकिलों पर घूमते हैं और उनका निजी खर्च बढ़ता है। सो महंगाई बढ़नी है।
ऐसा लगता है कि देश के बाज़ार विशेषज्ञ देश के पांच सौ तथा हजार के नोट लायक बना रहे हैं। यह तभी हो पायेगा जब प्याज एक किलो और पेट्रोल एक लीटर आठ सौ रुपये हो जायेगा।
इसी प्रसंग पर अंतिम बात! लिखते लिखते टीवी पर आ रहे समाचार पर हमारी नज़र गयी। यह समाचार सुबह अखबार में पढ़ा था। ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने एक कृत्रिम पेट्रोल का सृजन किया है जिसका प्रयोग सफल रहा तो वह तीन साल बाद बाज़ार में आ जायेगा। कीमत 15 रुपये लीटर होगी। मगर क्या तीन साल बाद इसकी कीमत इतनी रह पायेगी। भारत के बाज़ार नियंत्रकों के लिये यह खबर नींद उड़ाने वाली होगी क्योंकि तब देश के सभी लोगों को हजार और पांच सौ के उपयोग लायक बनाने के उनके प्रयास संकट में पड़ जायेंगे। यकीनन इस पेट्रोल का भारत में उपयोग रोकने की कोशिश होगी या फिर उसकी कीमत किसी भी तरह तमाक कर तथा अन्य प्रयास पेट्रोल जितनी बना दी जायेगी। इस तेल के खेल को भला कौन समझ पाया? साइकिल पर चले तो फिर समझने की जरूरत भी क्या रह जायेगी?
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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ऐसे भागीरथ अब कहां मिलते हैं-व्यंग्य कविता (aaj ke bhagirath-vyangya kavita


तमाशों में गुज़ार दी
पूरी ज़िदगी
तमाशाबीन बनकर।
कहीं दूसरे की अदाओं पर हंसे और रोए,
कहीं अपने जलवे बिखेरते हुए, खुद ही उसमें खोए,
हाथ कुछ नहीं आया
भले ही रहा ज़माने को दिखाने के लिये
सीना तनकर।
—————
ऐसे भागीरथ अब कहां मिलते हैं,
जो विकास की गंगा घर घर पहुंचायें,
सभी बन गये हैं अपने घर के भागीरथ
जो तेल की धारा
बस!
अपने घर तक ही लायें,
अपने पितरों को स्वर्ग दिलाने के लिये
केवल आले में चिराग जलायें।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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गरीबी की रेखा और विकास का मुखौटा- हास्य कविताएँ (blow powrty lin and devlopment-hindi comic satire poem)


दूसरों के घर की रौशनी चुराकर
अंधेरों को वहां सुलाने लगे,
नौनिहालों के दूध में जहर मिलाकर
ज़माने को दिखाने के लिये
अपनी दौलत से अपना  कद
ऊंचा उठाने लगे।
इंसानों जैसे दिखते हैं वह शैतान
पेट से बड़ी है उनकी तिजोरी
जंगलों की हरियाली चुराकर
भरी है नोटों से उन्होंने अपनी बोरी,
अब गरीबी और बेबसी को
विकास का मुखौटा पहनाकर बुलाने लगे।
——-
गरीबी की रेखा के ऊपर बैठे लोग ही
पूरा हिस्सा खा जाते हैं
इसलिये ही नीचे वाले
नहीं उठ पाते ऊपर
कहीं अधिक नीचे दब जाते हैं।
———
गरीबी रेखा के ऊपर बसता है इंडिया
नीचे भारत के दर्शन हो जाते हैं,
शायद इसलिये बुद्धिजीवी अब
इंडिया शब्द का करते हैं इस्तेमाल
भारत कहते हुए शर्माते हैं।
————-
गरीबी की रेखा पर कुछ लोग
इसलिये खड़े हैं कि
कहीं अन्न का दाना नीचे न टपक जाये
जिस भूखे की भूख का बहाना लेकर
मदद मांगनी है दुनियां भर से
उसका पेट कहीं भर न जाये।
——-
गरीबी रेखा के नीचे बैठे लोगों का
जीवन स्तर भला वह क्यों उठायेंगे,
ऐसा किया तो
रुपये कैसे डालर में बदल पायेंगे,
फिर डालर भी रुपये का रूप धरकर
देश में नहीं आयेंगे,
इसलिये गरीबी रेखा के नीचे बैठे
इंसानों को बस आश्वासन से समझायेंगे।
————-
अपना पेट भरने के लिये
गरीबी की रेखा के नीचे
वह इंसानों की बस्ती हमेशा बसायेंगे,
रास्ते में जा रही मदद की
लूट तभी तो कर पायेंगे।
———-

लोग हादसों की खबर पढ़ते और सुनते हैं
लगातार देखते हुए उकता न जायें
इसलिये विज्ञापनों का बीच में होना जरूरी है।
सौदागारों का सामान बिके बाज़ार में
इसलिये उनका भी विज्ञापन होना जरूरी है।
आतंक और अपराधों की खबरों में
एकरसता न आये इसलिये
उनके अलग अलग रंग दिखाना जरूरी है।
आतंक और हादसों का
विज्ञापन से रिश्ता क्यों दिखता है,
कोई कलमकार
एक रंग का आतंक बेकसूर
दूसरे को बेकसूर क्यों लिखता है,
सच है बाज़ार के सौदागर
अब छा गये हैं पूरे संसार में,
उनके खरीद कुछ बुत बैठे हैं
लिखने के लिये पटकथाऐं बार में
कहीं उनके हफ्ते से चल रही बंदूकें
तो कहीं चंदे से अक्लमंद भर रहे संदूके,
इसलिये लगता है कि
दौलत और हादसों में कोई न कोई रिश्ता होना जरूरी है।

———–
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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महंगाई में भलाई-हास्य कविताएँ (mehangai men bhalai-hasya kavieaen


महंगाई को सस्ता समझ लिया,
विकास का उसे बस्ता समझ लिया,
अक्ल लेकर उधार की
चला रहे है भलाई करने की दुकान,
अपने घर आ रही दौलत का
बस, केवल एक रस्ता समझ लिया।
———-
जिनके पेट भरे हैं पकवानों से,
सजी हैं घर की महफिलें धनवानों से,
वह महंगाई से टूट रहे
लोगों का क्या दर्द समझेंगे।
बाज़ार से खरीदकर हथियार
करते हैं अल्मारी में बंद
वह पहरेदार
हिफाजत के लिये क्या लड़ेंगे।
जुबां से निकल रहे गरजते हुए बयान,
दिल में है बस,
अपनी दौलत, शौहरत और ताकत का ध्यान,
अपनी वातानुकूलित कारों का आराम छोड़कर
आम इंसान की तकलीफ का सच समझने के लिए
उबड़ खाबड़ सड़कों पर क्या पांव धरेंगे।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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