Category Archives: गीत

भीड़ में अपना अस्तित्व ढूँढता आदमी


अलग खडा नहीं रह सकता
इसलिये भीड़ में शामिल
हो जाता आदमी
फिर वहीं तलाशता है
अपनी पहचान आदमी
भीड़ में सवाल-दर सवाल
सोचता मन में
पर किसी से पूछने का सहस नहीं जुटाता
भीड़ में शामिल पर अलग सोचता आदमी

भीड़ में शामिल लोगों में
अपने धर्म के रंग
अपनी जाति का संग
अपनी भाषा का अंग
देखना और ढूंढना चाहता आदमी
अपनी टोपी जैसी सब पहने
और उसके देवता को सब माने
उसके सच को ही सर्वश्रेष्ठ जाने
अपनी शर्तें भीड़ पर थोपता आदमी
भीड़ में किसी की पहचान नहीं होती
यह जानकर उसे कोसता आदमी

अपने अन्दर होते विचारों में छेद
भीड़ में देखता सबके भेद
अपनी सोच पर कभी नहीं होता खेद
सबको अलग बताकर एकता की कोशिश
दूसरे की नस्ल पर उंगुली उठाकर
अपने को श्रेष्ठ साबित कराने का इरादा
असफल होने पर सबको समान
बताने का दावा
आदमी देता है भीड़ को धोखा
पर भीड़ का कोई रंग नहीं होता
कोई देवता उसकी पहचान नहीं बनता
कोई उसकी भाषा नहीं होती
कहा-सुना सब बेकार
तब हताश हो जाता है आदमी
भीड़ में शामिल होना चाहता
पर अपनी शर्तें
कभी नहीं भूलना चाहता आदमी
अपने अंतर्द्वंदों से मुक्त नहीं हो पाता आदमी
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यहाँ बदलते हैं रिश्ते


जब काम था वह रोज
हमारे गरीबखाने पर आये
अब उन्हें हमें याद करने की
फुरसत भी नहीं मिलती
गुजरे पलों की उन्हें कौन याद दिलाये
हम डरते हैं कि
कहीं याद दिलाने पर
उन्हें अपने कमजोर पल न सताने लगें
वह यह सोचकर मिलने से
बहुत घबडाते हैं कि
हम उन्हें अपनी पुरानी असलियत का
कहीं आइना न दिखाने लगें
दूरियां है कि बढती जाएँ
टूटे-बिखरे रिश्तों को फिर जोड़ना
इतना आसान नहीं जितना लगता है
बात पहले यहीं अटकती हैं कि
आगे पहले कब और क्यों आये
अच्छा है मतलब से बने
रिश्तों को भूल ही जाएँ
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इस रंग बदलती दुनिया मैं
बदल जाते हैं रिश्ते भी
अपनों से चलते हैं
संबंध बरसों तक
पराये से लगते हैं वह भी कभी
प्रेम से जो साथ चले
वह अपना है
जहाँ कम होते लगें
छोड़ तो उन्हें तभी

यारी को बेगार बना दिया


बंद तिजोरियों को सोने और रुपयों की
चमक तो मिलती जा रही है
पर धरती की हरियाली
मिटती जा रही है
अंधेरी तिजोरी को चमकाते हुए
इंसान को अंधा बना दिया
प्यार को व्यापार
और यारी को बेगार बना दिया
हर रिश्ते की कीमत
पैसे में आंकी जा रही है
अंधे होकर पकडा है पत्थर
उसे हाथी बताते
गरीब को बदनसीब और
और छोटे को अजीब बताते
दौलत से ऐसी दोस्ती कर ली है कि
इस बात की परवाह नहीं
इंसान के बीच दुश्मनी बढ़ती जा रही है
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यहाँ बोलने के लिए सब हैं आतुर
अपने बारे में सच सुनने से भयातुर
चारों और बोले जा रहे शब्द
बस बोलने के लिए
सुनता कोई नजर नहीं आता
अपनी भक्ति के गीत हर कोई गाता
जिन्दगी जीने का तरीका कोई नहीं बताता
गुरू सिखाता दूसरे को गुर
खुद सूरज उगने के बाद उठते
और बोलना शुरू करें ऐसे जैसे दादुर (मेंढक)
सुबह से शाम तक ढूढ़ते श्रोता
सच सुनने से रहते भयातुर

हास्य कविता -समस्याओं के जंगल में आन्दोलन


किसी के पास ज्ञान का
किसी के पास विज्ञान का
किसी की पास शिक्षा का है ठेका
किसी ने लिया है
इंडियन आइडियल बनाने का
किसी के पास है विश्व चैंपियन
बनाने का ठेका
पालक अपने बालकों को
उनसे पास भेजकर सोचते हैं
सब काम अपने आप हो जायेंगे
अब वह सिरमौर ही बनकर घर आएंगे
जो सफल हो जाते हैं वह
गाते हैं ठेकेदारों की महिमा
जो असफल हौं वह अपनी
किस्मत को दोष देकर रह जाते हैं
हर तरह की गारंटी वाला
सब जगह चल रहा है ठेका

हास्य कविता -भूल गया अपना ज्ञान


एक बुद्धिमान गया
अज्ञानियों के सम्मेलन में
पाया बहुत सम्मान
सब मिलकर बोले दो ‘हम को भी ज्ञान’
वह भी शुरू हो गया
देने लगा अपना भाषण
अपने विचारों का संपूर्णता से किया बखान
उसका भाषण ख़त्म हुआ
सबने बाजीं तालियाँ
ऐक अज्ञानी बोला
‘आपने ख़ूब अपनी बात कही
पर हमारी समझ से परे रही
अपने समझने की विधि का
नहीं दिया ज्ञान

कुछ दिनों बात वही बुद्धिमान गया
बुद्धिजीवियों के सम्मेंलन में
जैसे ही कार्यक्रम शूरू होने की घोषणा
सब मंच की तरफ भागे
बोलने के लिए सब दौडे
जैसे बेलगाम घोड़े
मच गयी वहाँ भगदड़
माइक और कुर्सियां को किया तहस-नहस
मारे एक दूसरे को लात और घूसे
फाड़ दिए कपडे
बिना शुरू हुए कार्यक्रम
हो गया सत्रावसान
नही बघारा जा सका एक भी
शब्द का ज्ञान
स्वनाम बुद्धिमान फटेहाल
वहाँ से बाहर निकला
इससे तो वह अज्ञानी भले थे
भले ही अज्ञान तले
समझने के विधि नहीं बताई
इसलिये सिर के ऊपर से
निकल गयी मेरी बात
पर इन बुद्धिमानों के लफडे में तो
भूल गया मैं अपना ज्ञान