अलग खडा नहीं रह सकता
इसलिये भीड़ में शामिल
हो जाता आदमी
फिर वहीं तलाशता है
अपनी पहचान आदमी
भीड़ में सवाल-दर सवाल
सोचता मन में
पर किसी से पूछने का सहस नहीं जुटाता
भीड़ में शामिल पर अलग सोचता आदमी
भीड़ में शामिल लोगों में
अपने धर्म के रंग
अपनी जाति का संग
अपनी भाषा का अंग
देखना और ढूंढना चाहता आदमी
अपनी टोपी जैसी सब पहने
और उसके देवता को सब माने
उसके सच को ही सर्वश्रेष्ठ जाने
अपनी शर्तें भीड़ पर थोपता आदमी
भीड़ में किसी की पहचान नहीं होती
यह जानकर उसे कोसता आदमी
अपने अन्दर होते विचारों में छेद
भीड़ में देखता सबके भेद
अपनी सोच पर कभी नहीं होता खेद
सबको अलग बताकर एकता की कोशिश
दूसरे की नस्ल पर उंगुली उठाकर
अपने को श्रेष्ठ साबित कराने का इरादा
असफल होने पर सबको समान
बताने का दावा
आदमी देता है भीड़ को धोखा
पर भीड़ का कोई रंग नहीं होता
कोई देवता उसकी पहचान नहीं बनता
कोई उसकी भाषा नहीं होती
कहा-सुना सब बेकार
तब हताश हो जाता है आदमी
भीड़ में शामिल होना चाहता
पर अपनी शर्तें
कभी नहीं भूलना चाहता आदमी
अपने अंतर्द्वंदों से मुक्त नहीं हो पाता आदमी
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