तमाशों में गुज़ार दी
पूरी ज़िदगी
तमाशाबीन बनकर।
कहीं दूसरे की अदाओं पर हंसे और रोए,
कहीं अपने जलवे बिखेरते हुए, खुद ही उसमें खोए,
हाथ कुछ नहीं आया
भले ही रहा ज़माने को दिखाने के लिये
सीना तनकर।
—————
ऐसे भागीरथ अब कहां मिलते हैं,
जो विकास की गंगा घर घर पहुंचायें,
सभी बन गये हैं अपने घर के भागीरथ
जो तेल की धारा
बस!
अपने घर तक ही लायें,
अपने पितरों को स्वर्ग दिलाने के लिये
केवल आले में चिराग जलायें।
————-
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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अपनी तन्हाई दूर करने के लिये
कई दरवाजे हमने खटखटाये,
बांटने चले थे अपने ग़म हम जिनके साथ
उनके दर्द अपने साथ और ले आये।
दिल को बहलाने के सामानों में
लोग हो गये मशगूल
शिकायत करो तो
खिलौने खरीदने पर
अपनी चुकाई कीमतों के पैमाने बताते हैं,
मुलाकाती ढूंढते हैं रुतवा दिखने के लिये
भले ही अकेलेपन के अहसास उनको भी सताते हैं,
जहां भी जज़्बातों का समंदर ढूंढा हमने
तन्हा लगा पूरा ज़माना
हमदर्दी के लिये सभी प्यासे नज़र आये।
—————————-
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com
—————————–
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दूसरों के घर की रौशनी चुराकर
अंधेरों को वहां सुलाने लगे,
नौनिहालों के दूध में जहर मिलाकर
ज़माने को दिखाने के लिये
अपनी दौलत से अपना कद
ऊंचा उठाने लगे।
इंसानों जैसे दिखते हैं वह शैतान
पेट से बड़ी है उनकी तिजोरी
जंगलों की हरियाली चुराकर
भरी है नोटों से उन्होंने अपनी बोरी,
अब गरीबी और बेबसी को
विकास का मुखौटा पहनाकर बुलाने लगे।
——-
गरीबी की रेखा के ऊपर बैठे लोग ही
पूरा हिस्सा खा जाते हैं
इसलिये ही नीचे वाले
नहीं उठ पाते ऊपर
कहीं अधिक नीचे दब जाते हैं।
———
गरीबी रेखा के ऊपर बसता है इंडिया
नीचे भारत के दर्शन हो जाते हैं,
शायद इसलिये बुद्धिजीवी अब
इंडिया शब्द का करते हैं इस्तेमाल
भारत कहते हुए शर्माते हैं।
————-
गरीबी की रेखा पर कुछ लोग
इसलिये खड़े हैं कि
कहीं अन्न का दाना नीचे न टपक जाये
जिस भूखे की भूख का बहाना लेकर
मदद मांगनी है दुनियां भर से
उसका पेट कहीं भर न जाये।
——-
गरीबी रेखा के नीचे बैठे लोगों का
जीवन स्तर भला वह क्यों उठायेंगे,
ऐसा किया तो
रुपये कैसे डालर में बदल पायेंगे,
फिर डालर भी रुपये का रूप धरकर
देश में नहीं आयेंगे,
इसलिये गरीबी रेखा के नीचे बैठे
इंसानों को बस आश्वासन से समझायेंगे।
————-
अपना पेट भरने के लिये
गरीबी की रेखा के नीचे
वह इंसानों की बस्ती हमेशा बसायेंगे,
रास्ते में जा रही मदद की
लूट तभी तो कर पायेंगे।
———-
लोग हादसों की खबर पढ़ते और सुनते हैं
लगातार देखते हुए उकता न जायें
इसलिये विज्ञापनों का बीच में होना जरूरी है।
सौदागारों का सामान बिके बाज़ार में
इसलिये उनका भी विज्ञापन होना जरूरी है।
आतंक और अपराधों की खबरों में
एकरसता न आये इसलिये
उनके अलग अलग रंग दिखाना जरूरी है।
आतंक और हादसों का
विज्ञापन से रिश्ता क्यों दिखता है,
कोई कलमकार
एक रंग का आतंक बेकसूर
दूसरे को बेकसूर क्यों लिखता है,
सच है बाज़ार के सौदागर
अब छा गये हैं पूरे संसार में,
उनके खरीद कुछ बुत बैठे हैं
लिखने के लिये पटकथाऐं बार में
कहीं उनके हफ्ते से चल रही बंदूकें
तो कहीं चंदे से अक्लमंद भर रहे संदूके,
इसलिये लगता है कि
दौलत और हादसों में कोई न कोई रिश्ता होना जरूरी है।
———–
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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फिर एक बार वह लोग
स्वतंत्रता दिवस मनायेंगे,
अपनी गुलामी के जख्म याद कर
उससे मुक्ति पर मुस्करायेंगे।
जिनसे मुक्ति पाई थी
उनको एक दिन दे लेंगे गालियां,
बजेंगी फिर तालियां,
मगर फिर छोड़ी है जो मालिकों ने वसीयत
गुलामों को बांटने की
मुखिया और बंधुआ को छांटने की
उसे पूरा करने में जुट जायेंगे।
———
कुछ लोग कहते हैं कि
अंग्रेज भारत छोड़ गये,
कुछ उनका शुक्रिया अदा करते हैं कि
वह भारत को जोड़ गये।
सच तो यह है कि
अंग्रेज आज भी कर रहे राज
बस,
नाम का स्वराज छोड़ गये।
———–
गुलाम बनाने के कानून में
आज़ादी की असलियत तलाश रहे हैं,
मालिक छोड़ गये राज
मगर सिंहासन पर चरण पादुकाऐं छोड़े गये
उसमें खुद मुख्तियारी की आस कर रहे हैं।
————————
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