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शिशुओं का क्रीड़ाश्रम और मिठाई-हिन्दीहास्य व्यंग (child story and sweats-hindi vyanga


सुबह दीपक बापू सड़कों पर पानी से भरे गड्ढों में गिरने से बचते हुए जल्दी जल्दी ही आलोचक महाराज के घर पहुंचे। उस दिन बरसात होने से उनको आशा थी कि आलोचक महाराज प्रसन्न मुद्रा में होंगे। इधर उमस के मारे सभी परेशान थे तो आलोचक महाराज भी भला कहां बच सकते थे। ऐसे में दीपक बापू को यह आशंका थी उनकी कविताओं पर आलोचक महाराज कुछ अधिक ही निंदा स्तुति कर देंगे। वैसे भी दीपक बापू की कविताओं पर आलोचक महाराज ने कभी कोई अच्छी मुहर नहीं लगायी पर दीपक बापू आदत से मजबूर थे कि उनको दिखाये बगैर अपनी कवितायें कहीं भेजते ही नहीं थे।

सड़क से उतरकर जब उनके दरवाजे तक पहुंचे तो दीपक बापू के मन में ऐसे आत्मविश्वास आया जैसे कि मैराथन जीत कर आये हों। इधर मौसम ने भी कुछ ऐसा आत्मविश्वास उनके अंदर पैदा हुआ कि उनको लगा कि ‘वाह वाह’ के रूप में उनको एक कप मिल ही जायेगा। उन्होंने दरवाजे के अंदर झांका तो देखा आलोचक महाराज सोफे पर जमे हुए सामने टीवी देख रहे थे। वहां से बच्चे के रोने की आवाज आ रही थी। उन्होंने आलोचक महाराज
को हाथ जोड़कर नमस्ते की भी और मुख से उच्चारण कर उनका ध्यान आकर्षित करने का भी प्रयास किया-यह करना ही पड़ता है जब आदमी आपकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा हो।
आलोचक महाराज ने उनकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। दीपक बापू ने जरा गौर से देखा तो पाया कि उनकी आंखों से आंसु निकल रहे थे। दीपक बापू सहम गये। क्या सोचा था क्या हो गया। कहां सोचा था कि मौसम अच्छा है आलोचक महाराज का मूड भी अच्छा होगा। पहली बार अपनी कविताओं पर ‘वाह वाह रूपी कविताओं का कप’ ले जायेंगे। कहां यह पहले से भी बुरी हालत में देख रहे हैं। वैसे दीपक बापू ने आलोचक महाराज को कभी हंसते हुए नहीं देखा था-तब भी जब उनका सम्मान हुआ था। आज इस तरह रोना!
‘क्या बात है आलोचक महाराज! मौसम इतना सुहाना है और आप है कि रुंआसे हो रहे हैं।‘दीपक बापू बोले।
आलोचक महाराज ने कहा-‘देखो सामने! टीवी पर बच्चा रो रहा है। इसके माता पिता ने इसको खुद ऐसे लोगों को सौंपा है जो इस वास्तविक शो में नकली माता पिता की भूमिका निभा रहे हैं। वह लोग इतने नासमझ हैं कि उनको पता ही नहीं कि बच्चा अपनी माता के बिना कभी खुश नहीं रह सकता।’
दीपक बापू ने कहा-‘महाराज! यह तो सीन ही नकली है! आप कहां चक्कर में पड़ गये। अब यह टीवी बंद कर दीजिये। हम अपने साथ मिठाई का डिब्बा साथ में ले आयें हैं ताकि आप उनको खाते हुए हमारी यह दो कविताओं पर अपना विचार व्यक्त कर सकें।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘बेवकूफ आदमी! समाज में कैसी कैसी घटनायें हो रही हैं उस पर तुम कभी सोचते ही नहीं हो। अरे, देखो इन बच्चों की चीत्कार हमारा हृदय विदीर्ण किये दे रही है। अरे, हमें इसके माता पिता मिल जायें तो उनको ऐसी सुनायें जैसी कभी तुम्हारी घटिया कविताओं पर भी नहीं सुनाई होगी।’
दीपक बापू ने कहा-‘महाराज हमारी कविताओं पर हमें क्या मिलता है? उनको तो इस बच्चे के अभिनय पर पैसा मिला होगा। ऐसे कार्यक्रमों में पहुंचना भी भाग्य समझा जाता है। इन शिशुओं ने जरूर अपने पूर्व जन्म में कोई पुण्य किया होगा कि पैदा होते ही यह कार्यक्रम उनको मिल गया। बिना कहीं प्रशिक्षण लिये ही अभिनय करने का अवसर मिलना कोई आजकल के जमाने में आसान नहीं है। खासतौर से जब आपके माता पिता ने भी यह नहीं किया हो।’
दीपक बापू की इस से आलोचक महाराज को इतना गुस्सा आया कि दुःख अब हवा हो गया और इधर बिजली भी चली गयी। इसने उनका क्रोध अधिक बढ़ा दिया। वह दीपक बापू से बोले-‘रहना तुम ढेर के ही ढेर! यह पूर्व जन्म का किस्सा कहां से लाये। तुम्हें पता है कि अपने देश में बाल श्रम अपराध है।’
दीपक बापू ने स्वीकृति में यह सोचकर हिलाया कि हो सकता है कि आलोचक महाराज की प्रसन्नता प्राप्त हो। फिर आलोचक महाराज ने कहा-‘अरे, इस पर कुछ लिखो। यह बाल श्रम कानून के हिसाब से गलत है। इस पर कुछ जोरदार लिखो।’
दीपक बापू बोले-महाराज, आपके अनेक शिष्य इस पर लिख रहे हैं। हमारे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। यह शिशु, बालक, नवयुवक, युवक, अधेड़ और वृद्ध का संकट अलग अलग प्रस्तुत किया है जबकि हमें सभी का संकट एक दूसरे से जुड़ा दिखाई देता है। फिर इसमें भी भेद है स्त्री और पुरुष का। हम यह विभाजन कर नहीं पाते। हमने तो देखा है कि एक का संकट दूसरे का बनता ही है। वैसे आपने कहा कि यह बालश्रम कानून के विरुद्ध है पर यह तो शिशु श्रम है। इस विषय पर आप अपने स्थाई शिष्यों से कहें तो वह अधिक प्रकाश डाल सकेंगे। वैसे तो शिशु रोते ही हैं हालांकि उनको इसमें श्रम होता है और इससे उनके अंग खुलते हैं।’
आलोचक महाराज उनको घूरते हुए बोले-‘मतलब तुम्हारे हिसाब से यह ठीक हो रहा है। इस तरह बच्चों के रोने का दृश्य दिखाकर लोगों के हृदय विदीर्ण करना तुम्हें अच्छा लगता है। यह बालश्रम की परिधि में नहीं आता! क्या तुम्हारा दिमाग है कि इसे स्वाभाविक शिशु श्रम कह रहे हो?’
दीपक बापू बोले-‘महाराज, हमने कहां इसे जायज कहा? हम तो आपके शिष्यों के मुताबिक इसका एक विभाजन बता रहे हैं। हम तो कानून भी नहीं जानते इसलिये बालश्रम और शिशुश्रम में अंतर लग रहा है। वैसे माता पिता अपने बच्चे को इस तरह दूसरों को देकर पैसा कमाते होंगे। हालांकि वह भद्र लोग हैं पर इतना तो कर ही सकते हैं कि पैसा मिलने पर बच्चा कुछ देर रोए तो क्या? वैसे आपको तो यह पता ही होगा कि इस देश में इतनी गरीबी है कि लोग अपना बच्चा बेच देते हैं। कई औरतें किराये पर कोख भी देती हैं। यह अलग बता है कि ऐसे मामले पहले गरीबों में पाये जाते थे पर अब तो पैसे की खातिर पढ़े लिखे लोग भी यह करने लगे हैं। अरे, आप कहां इन वास्तविक धारावाहिकों की अवास्तविकताओं में फंस गये। आप तो हमारी कविता पढ़िये जो उमस और बरसात पर लिखी गयी हैं बिल्कुल आज ही!’
आलोचक महाराज ने कागज हाथ में लिये और उसे फाड़ दिये फिर कहा-‘वैसे भी तुम श्रृंगार रस में कभी नहीं लिख पाते। जाओ, इस कथित शिशुश्रम पर कुछ लिखकर लाओ। और हां, हास्य व्यंग्य कविता मत लिख देना। इस पर बीभत्स रस की चाशनी में डुबोकर कुछ लिखना और मुझे पंसद आया तो उसे कहीं छपवा भी दूंगा।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज, आपके चेलों का असर आप पर भी हो गया है। यह तो गलत है कि आपके शिष्य बालश्रम, नारी अत्याचार, युवा बेरोजगारी पर लिखते हैं पर शिशु श्रम पर हम लिखें।’
आलोचक महाराज ने घूरकर पूछा-यह बालश्रम और शिशुश्रम अलग अलग कब से हो गये?’
दीपक बापू बोले-‘हमें पता नहीं! पर हां, आपके शिष्यों को पढ़ते पढ़ते हम कभी इस विभाजन की तरफ निकल ही आते हैं। लिखते इसलिये नहीं कि हमें लिखना नहीं आता। वैसे आप कह रहे हो तो लिखकर आते हैं।’
दीपक बापू मिठाई का डिब्बा हाथ में वापस लेकर जाने लगे तो आलोचक महाराज बोले-‘यह मिठाई का डिब्बा वापस कहां लेकर जा रहे हो।’
दीपक बापू बोले-‘अभी आपके कथानुसार दूसरी रचना लिखकर ला रहा हूं। तब यहां खाली हाथ आना अच्छा नहीं लगेगा। इसलिये साथ लेकर जा रहा हूं।’
ऐसा कहते ही दीपक बापू कमरे से बाहर निकल गये क्योंकि उनको आशंका थी कि कहीं वह छीनकर वापस न लें। बाहर निकल कर वह इस बात से खुश हुए कि उनकी कवितायें सुरक्षित थी क्योंकि उनकी कार्बन कापी वह घर पर रख आये थे, वरना तो शिशुश्रम विषय पर उनके साथ ही मिठाई का डिब्बा भी भेंट चढ़ जाने वाला था।

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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

चोर…….. चोर (हास्य व्यंग्य)


उस गांव एक घर में चार चोर घुसे। उन्होंने बहुत सारा सामान अपने झोलों में भर लिया था कि अचानक घर एक सदस्य की आंख खुल गयी और वह जोर से चिल्लाया ‘चोर…..चोर!’
चोर भाग निकले। वह आदमी चिल्लाता रहा और उसकी आवाज गांव में दूर तक सुनायी दी। लोग जाग उठे। इधर चोर भी जोर से भागे जा रहे थे पर अचानक एक चोर का पांव एक गड्ढे में फंस गया। वह गिर पड़ा पर उसके तीन साथी उसे उठाने की बजाय उसके पास का सामान लेकर भागते बने और उससे कहा कि ‘अगर यह तेरे पास रहा तो तेरा चोरा होना प्रमाणित हो जायेगा। अभी तो बचने की गुंजायश भी होगी।’
बाकी तीनों चोर गांव की सीमा पार कर गये। इधर गांव वालों ने उस चोर को पकड़ा और मारने लगे पर उसी गांव के चार लोग उसे चोर को बचाने आ गये और गांव वालों से बोले-‘इसे मत मारो! आजकल कानून बहुत सख्त है। इसे हमारे हवाले करो। हम इसे नहर में फैंक आते हैं। न यह बचेगा और न कोई इसकी पूछताछ करेगा। इस तरह हमारे ऊपर कोई इल्जाम भी नहीं आयेगा।’
गांव वालों ने उस चोर का हाथ उन चारों को पकड़ा दिया। वह चारों उसकी बुशर्ट का कालर पकड़ ले जाने लगे। वह चिल्ला रहा था‘मुझे नहर में मत फैंको।’
जब वह उसे पकड़ कर गांव से थोड़ा दूर लाये तब उनमें से एक आदमी ने उस चोर की बुशर्ट का कालर छोड़ते हुए कहा-‘पागल हुआ है। हम तुझे नहर में फैंकने के लिये थोड़े ही ले जा रहे हैं। हम तो वहां बैठकर तेरे साथ शिखर वार्ता करेंगे। तू हमे पहचानता नहीं है। हम तेरे गांव से परले वाले गांव में चोरी करते हुए पकड़े गये थे और तू तरले वाले गांव की छोरी छेड़ने के आरोप में हमारे साथ जेल में था।’
अब उस गांव के चारों आदमियों ने उसका हाथ छोड़ दिया। उस चोर ने चारों को पहचान लिया और बोला-‘फिर मेरे को इस तरह बचाकर ले आये।’
दूसरे आदमी ने कहा-‘अपने धंधे वास्ते! नहीं तो हमारी क्या अटकी पड़ी थी? पहले तो तू हमें उन तीन साथियों के पास ले चल और हमारा हिस्सा दिला। फिर आगे बात करेंगे!’
वह चोर उन तीनों को अपने साथियों के पास लाया। अब आठों ने मंत्रणा प्रारंभ की। दूसरे चोर ने कहा-‘अरे, काहे इसमें हिस्सा मांगते हो? हमारे गांव में तुमने कितनी बार चोरी की क्या हमें पता नहीं?’
गांव के तीसरे आदमी ने कहा-‘पर हम कभी तुम्हारे गांव में पकड़े ही नहीं गये तो हिस्सा काहेका?’
तीसरे चोर ने कहा-‘जब पकड़े जाओगे। तब बचाकर उसका कर्जा उतार देंगे। ऐसा तो है नहीं कि चोरी के आरोप में कभी हमारे गांव में पकड़े नहीं जाओगे।’
चौथे आदमी ने कहा-‘तब हम भी हिस्सा देंगे। पहले पकड़े तो जायें। वैसे हमारा गांव बहुत विकसित हो गया है और हम अब अपना गिरोह चलाते हैं खुद यह काम नहीं करते। हमारे चेले चपाटे और भाड़े के टट्टू यह काम करते हैं।’
चौथे चोर ने कहा-‘तो तुम लोग क्या अपनी सेठगिरी का रुतवा झाड़ रहे हो?’
यह विवाद उस नहर के किनारे बैठा एक पुराना चोर सुना रहा था। वह उनके पास आया और बोला-‘अरे, भले आदमियों तुम क्यों इतना झगड़ा कर रहे हो? यह हिस्सा लेने देने की बजाय अपने धंधे के लिये कंपनी बनाओ। इतने दूर दूर तक गांवों में चोर नाम की चीज नहीं बची है। जिसे देखो वही काले धंधे का सेठ बन गया है। कोई नकली घी बना रहा है तो कोई सिंथेटिक दूध बेच रहा है। अब तो चोरी करने वालों का मन गांवों में कम शहरो में अधिक लगता है। ’
सभी ने एक स्वर में पूछा-‘आखिर हम क्या करे?’
‘तुम लोग अब प्रशिक्षक बन जाओ।’उस आदमी ने समझाया-‘हर गांव में बेकार और नकारा घूम रहे लोगों को अपने यहां बुलाकर प्रशिक्षण दो। वह अपना काम कर तुम्हें हिस्सा पहुंचाते रहेंगे। अगर वह कहीं फंस जायें तो तुम उनको सजा दिलाने के नाम पर इस नहर में फैंकने के लिये लाना और छोड़ देना। याद रखना एक गांव में अगर कोई पकड़ा गया हो तो उसे दोबारा उस गांव में मत भेजना।’
एक ने पूछा-‘जब सभी गांव वालों को पता चल गया तो क्या होगा?’
पुराने चोर ने कहा-‘ऐसा नहीं होगा। तुम अपने गांव में सज्जन बने रहना। दोनों गांवों में एक दूसरे के चोर होने की बात कहकर विवाद बनाये रखना। बाहर से लड़ते दिखना पर अंदर एक रहना। कभी एक जना एक गांव के कुत्ते पर पत्थर फैंककर गुस्सा उतारना तो दूसरा भी यही करेगा। कुल मिलाकर लड़ाई का नकली मनोरंजन प्रस्तुत करना। मैं तुम्हें विस्तार से पूरा कार्यक्रम बाद में बताऊंगा, पहले अपनी कंपनी तो बना लो।’
सभी एक साथ विचार करने लगे। कपंनी का अध्यक्ष कौन बने? आखिर में उसी पुराने चोर का अध्यक्ष बनाने का विचार किया गया। सभी इस पर सहमत हो गये। पहले तो उस पुराने चोर ने ना-नुकर की पर बाद में इसके लिये राजी हो गया इस शर्त पर कि वह हर चोरी में बीस प्रतिशत हिस्सा देंगे और यह हिस्सा बाकी खर्चे काटने से पहले होगा। बाद में खर्चे काटकर आठो लोग हिस्सा करेंगे। इस पर भी सहमति हो गयी।
पुराने चोर ने कहा-‘फिर आज से ही अपनी कंपनी की शुरुआत करते हैं। आओ उस चोरी का हिस्सा बांटें। पहले मेरा बीस प्रतिशत हिस्सा निकालो फिर उसे बांट लो।’
इस तरह वह चोर कंपनी शुरु हुई।
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समस्याएँ और बहस- हास्य व्यंग्य कविताएँ


मिस्त्री ने कहा ठेकेदार से
‘बाबूजी यह पाईप तो सभी चटके हुए हैं
कैसे लगायें इनको
जनता की समस्या इससे नहीं दूर पायेगी
पानी की लाईन तो जल्दी जायेगी टूट’
ठेकेदार ने कहा
‘कितनी मुश्किल से चटके हुए पाईप लाया हूं
इसके मरम्मत का ठेका भी
लेने की तैयारी मैंने कर ली है पहले ही
तुम तो लगे रहो अपने काम में
नहीं तो तुम्हारी नौकरी जायेगी छूट’
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समस्याओं को पैदा कर
किया जाता है पहले प्रचार
फिर हल के वादे के साथ
प्रस्तुत होता है विचार

अगर सभी समस्यायें हल हो जायेंगी
तो मुर्दा कौम में जान फूंकने के लिये
बहसें कैसे की जायेंगी
बुद्धिजीवियों के हिट होने का फार्मूला है
जन कल्याण और देश का विकास
कौन कहेगा और कौन सुनेगा
जब हो जायेगा देश का उद्धार

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बड़ा कौन, कलम कि जूता-हास्य व्यंग्य


देश के बुद्धिजीवियों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया था। गोलमेज सम्मेलन का विषय था कि ‘जूता बड़ा कि कलम’। यह सम्मेलन विदेश में एक बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूते उछालने की घटना की पृष्ठभूमि में इस आशय से आयोजत किया गया था कि यहां के लोग इस बारे में क्या सोचते हैं? जाने माने सारे बुद्धिजीवी दौड़े दौड़े चले जा रहे थे । एक बुद्धिजीवी तो घर से एक ही पांव में जूता पहनकर निकल गये उनको दूसरा पहनने का होश ही नहीं रहा। रास्ते चलते हुए एक आदमी ने टोका तो वह कहने लगे-‘तुम देश के आम लोग भी निहायत जाहिल हो। तुम मेरे पांव के जूते देखने की सोच भी पा रहे हो यह देखकर ताज्जुब होता है। अरे, अखबार या टीवी नहीं देखते क्या? विदेश में जूता फैंकने की इतनी बड़ी घटना हो गयी और हमें उसी पर ही सोचना है। मैंने एक ही पांव में जूता पहना है पर यह कोई एतिहासिक घटना नहीं है और इस पर चर्चा मत करो।’

कहने का तात्पर्य यह है कि बुद्धिजीवियों के लिये यह एक ऐसा विषय था जिसमें उनकी जमात का ही आदमी जूता फैंकने की घटना में शामिल पाया गया था वैसे तो अपने देश में जूतमपैजार रोज होती है पर बुद्धिजीवियों का काम लिखने पढ़ने और भाषण तक ही सीमित होता है। केाई भला काम हो बुरा उनकी दैहिक सक्रियता स्वीकार नहीं की जातीं। पश्चिम से आयातित विचारों पर चलने वाले बुद्धिजीवियों ने स्वयं ही यह बंदिश स्वीकार की है और किसी बुद्धिजीवी द्वारा सरेराह जूता उछालने की घटना देखकर अब यह प्रश्न उठा था कि क्या वह अपनी इस राह में बदलाव करें। क्या मान लें कि बुद्धिजीवी को कलम के अलावा जूता भी उठाना चाहिये। अगर कहीं ऐसी घटना देश में हेाती तो शायद बुद्धिजीवी विचार नहीं करते मगर यह धटना पश्चिम दिशा से आयी थी इसलिये विचार करना जरूरी था। अपने देश का कोई बुद्धिजीवी होता तो सभी एक स्वर में उसकी निंदा करते या नहीं भी करते। निंदा करते तो उस बुद्धिजीवी को प्रचार होता इसलिये शायद अनदेशा करना ही ठीक समझते या फिर कह देते कि यह तो बुद्धिजीवी नहीं बल्कि एक साधारण आदमी है। विदेश में वह भी पश्चिम में कुछ हो तो यहां का बुद्धिजीवी उछलने लगता है।

सम्मेलन शुरू हुआ। कुछ बुद्धिजीवियों ने इस कृत्य की घोर निंदा की तो कुछ ने प्रशंसा। प्रशंसकों का मानना था कि यह बुद्धिजीवी के देश के आक्रोश का परिणाम है। विरोधियों ने पूछा कि ‘जब अपने पास कलम हैं तो फिर जूते से विरोध प्रदर्शन करना ठीक कैसे माना जा सकता है?’
जूता फैंकने के प्रशंसकों ने कहा-‘लिखे हुऐ का असर नहीं होता तो क्या करेें?’

विरोधियों ने कहा-‘तो ऐसा लिखो कि कोई दूसरा जूता उछाले।’
प्रशंसकों ने कहा-‘अगर कोई दूसरा जूता न उछाले तो आखिर क्या किया जाये?‘
विरोधियों ने कहा-‘अगर आपके लिखे से समाज में कोई दूसरा व्यक्ति सरेराह जूते उछालने को तैयार नहीं है तो फिर उसके लिये लिखने से क्या फायदा?’
प्रशंसकों ने कहा-‘अरे वाह! तुम तो हमारा लिखना ही बंद करवाओगे। तुम पिछडे हुए हो और तुम जानते नहीं कि अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवी को एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता उठाना चाहिये।’
यह सुनकर एक पांव में जूता पहनकर आये बुद्धिजीवी को जोश आ गया और उसने अपने पांव से जूता उतार कर हाथ में लिया और चिल्लाया-‘ऐसा करना चाहिये।’
प्रशंसक और विरोधी दोनों खेमों में डर फैल गया। पता नहीं वह कहीं उछाल न बैठे-यह सोचकर लोग जड़वत् खड़े हो गये। सभी को पता था कि अगर उसने जूता उछाला तो वह हीरो बन जायेगा और जिसको पड़ा वह खलनायक कहलायेगा।’
कमबख्त वह आम आदमी भी उस बुद्धिजीवी के पीछे यह जिज्ञासा लेकिर आया कि ‘आखिर यह आदमी कहां जा रहा है और क्या करेगा’ यह चलकर देखा जाये। तय बात है कि आम आदमी ही ऐसा सोचता और करता है कोई बुद्धिजीवी नहीं।

उसने जब यह देखा तो चिल्लाया-‘अरे, यह तो इस कार्यक्रम के न्यौते से ही इतना खुश हो गये कि एक जूता पहनकर चले आये दूसरा पहनना भूल गये-यह बात रास्ते में इन्होंने स्वयं बतायी। अब वह जूता इसलिये पांव से उतार लिया कि कोई पूछे भी नहीं हीरो भी बन जायें। इस एक जूते को लेकर कब तक पहनकर चलते और हाथ में लेते तो लोग अनेक तरह के सवाल करते। अब कौन पूछेगा कि यह एक जूता लेकर कहां घूम रहे हो? यह बोल देंगे कि ‘बुद्धिजीवियों के हाथ में कलम और दूसरे हाथ में जूता लेने का नया रिवाज शुरू हो गया है।’

उस बुद्धिजीवी को ताव आ गया और उसने वह जूता उस आम आदमी की तरफ ऐसे उछाला जैसे कि उसे लगे नहीं-यानि एक प्रतीक के रूप में! वह भी उस्ताद निकला उसने जूता ऐसे ही लपका जैसे क्रिकेट में स्लिप में बायें तरफ झुककर कैच लिया जाता है और भाग गया।

गोलमेज सम्मेलन में कोहराम मच गया। विरोधियों ने उस जूता फैंकने वालूे बुद्धिजीवी की निंदा की तो प्रशंसकों ने भी उसे फटकारा-‘शर्म आनी चाहिये एक आम आदमी पर जूता फैंकते हुए। वह चालाक था इसलिये लेकर भाग गया। बचने की कोशिश करता नजर भी नहीं आया जैसे कि विदेश में हुई घटना में नजर आया है। किसी खास आदमी पर फैंकते तो कुछ एतिहासिक बन जाता। हमने जो विदेश का दृश्य देखा है उससे यह दृश्य मेल नहीं खाता।’

बहरहाल बहस जारी थी। कोई निष्कर्ष नहीं निकला। कई दिन तक बहस चली। अनेक लोग उस पर अपने विचार लिखते रहे। कोई समर्थन करता तो कोई विरोध। आखिर उसी आम आदमी को बुद्धिजीवियों पर दया आ गयी और वह वहां इस सम्मेलन में आया। उसके हाथ में वही जूता था। उसे देखकर सब बुद्धिजीवी भागने लगे। सभी को लगा कि वह मारने आ रहा है। हर कोई यही सोचकर बच रहा था कि ‘दूसरे में पड़े जाये पर मैं बच जांऊ ताकि अगर घटना ऐतिहासिक हो तो उस लिखूं। आखिर एक आम आदमी द्वारा बुद्धिजीवी पर जूता बरसना भी एक एतिहासिक घटना हो सकती थी।

वह आम आदमी ढूंढता हुआ उस बुद्धिजीवी के पास पहूंचा जिसका जूता लेकर वह भागा था और बोला-‘मैं आपका जूता ले गया पर बाद में पछतावा हुआ। मैंने अपनी पत्नी को बताया कि यह जूता एक बुद्धिजीवी ने मेरी तरफ उछाला तो वह बोली कि इससे तुम खास आदमी तो नहीं हो गये! जाओ उसे वापस करे आओ। कहीं उसकी पत्नी उसे डांटती न हो।’

बुद्धिजीवियों में से एक ने पूछा-‘तुम्हें यहां आते डर नहीं लगा यह सोचकर कि ं कोई तुम पर जूता न फैंके।’
आम आदमी ने कहा-‘यह सोचा ही नहीं, क्योंकि आप लोग बिना प्रस्ताव पास हुए कुछ नहीं करते और ऐसी कोई खबर मैंने अखबार में भी नहीं पढ़ी पर आप लोगों को परेशान देखकर सेाचता हूं कि मैं सामने खड़ा हो जाता हूं आम एक एक कर मेरे ऊपर जूता उछालो पर एक बात याद रखना कि वह मुझे लगे नहीं।’
बुद्धिजीवियों को गुस्सा आ गया और वह चिल्लाने लगे कि-‘तू मक्कान है। ठहर अभी तेरे को जूते लगाते हैें।’

वह आदमी हंसता वहीं खड़ा रहा। सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहते रहे कि -‘इस आदमी को जूता मारो कोई चिंता वाली बात नहीं है।’

कुछ लोग कहने लगे कि-‘इससे क्या? कोई इतिहास थोड़े ही बनेगा। यह तो एक आदमी है। इसको जूता मारने की कोई खबर नहीं छापेगा। फिर हम में से कौन इसे जूते मार यह तय होना है क्योंकि जिसे इस विषय पर लिखना है वह तो जूता फैंककर उसके समर्थन में तो लिख नहीं सकता। यानि जो वही फैंके जो इस विषय पर लिखना नहीं चाहता।’
इस सभी बुद्धिजीवी एक दूसरे से कहने लगे-तू फैंक जूता मैं तो उस पर लिखूंगा।’
कुछ कहने लगे कि-‘अभी यह तय नहीं हुआ कि बुद्धिजीवी को जूता उठाना चाहिये कि नहीं।’

आम आदमी वहीं खड़ा सब देखता रहा। वह इंतजार करता रहा कि कब उस पर कौनसा सर्वसम्मत प्रस्ताव पास होता है। वह कई चक्कर लगा चुका है पर अभी भी वह यह जानना चाहता है कि‘बुद्धिजीवी को कलम के साथ जूता भी चलाना चाहिये कि नहीं।’
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भावी सातवीं पीढ़ी के लिये-लघुकथा


दो धनी लोगों के पास पैसा फालतू पड़ा हुआ था। वह अपना व्यापार फैलाने के लिये एक नये बसे दूसरे शहर की ओर नया व्यापार स्थापित करने के लिये रवाना हुए। दोनों विचार करते हुए जा रहे थे कि कौनसा व्यवसाय करें ताकि उनका धन इतना हो जाये कि सात पीढि़यों तक वह काम आये। आने वाली पीढि़यां कुछ भी न करें तो तभी उसका जीवन यापन शान से चलता रहे। उनका अपने यहां एकत्रित धन के बारे में यह अनुमान था कि अभी वह आगे की छह पीढि़यों तक के लिये ही पर्याप्त है सातवी पीढ़ी तक वह पहुंचेगा उसमें उनको संदेह था।

बस में बैठकर दोनों बातें कर रहे थे। एक ने कहा-‘आखिर हम वहां कौनसा काम करेंगे? यह समझ में नहीं आ रहा। कैसे तेजी से पैसा आये यह सोचना जरूरी है क्योंकि अपनी भावी सातवीं पीढ़ी के लिये धन का इंतजाम करने के लिये हमें तेजी से कमा करनेा होगा। हमारी उमर भी अब हो चली है। आजकल उमर का क्या भरोसा? उससे पहले ही इस दुनियां से रवाना हो जायें।’
दूसरे ने कहा-’पहले चलकर वहां जायजा तो लें कि वहां के लोग और वातावरण कैसा है। वैसे हम दोनों को ऐसा काम करना चाहिये जो एक दूसरे का पूरक हो। जैसे मैं तुम किसी ऐसी खाने-पीने की चीज का काम करो जो लोगों का बीमार करती हो तो मैं ऐसी दवाई बेचने का काम करूंगा जो ठीक करती हो।’
पहले सेठ ने कहा-‘तुम पागल हो गये हो। लोग समझ नहीं जायेंगे।’
दूसरे सेठ-‘समझदार तो पहले दिन ही समझ लेंगे पर वह अपने ग्राहक नहीं होंगे पर ऐसे लोगों की संख्या कम ही होगी। तुम कोई ठंडी गरम चीज बनाकर बेचने का धंधा शुरू करना मैं और उनसे पैदा होने वाली बीमारियों के इलाज की दवा बेचूंगा।
पहला-‘पर लोग सीधे बीमार होकर तुम्हारे पास दवाई लेने आयेंगे। उसके लिये डाक्टर की जरूरत होगी।’
दूसरा-‘उसकी चिंता तुम मत करो। मैं खुद ही डाक्टर बन जाऊंगा।’
बस में एक चोर उनकी बात सुन रहा था और वह दोनों के पास आ गया और बोला-‘आप लोग मुझे डाक्टर बना देना।’
दूसरे सेठ ने पूछा-‘तुम कौन हो? और तुम्हारे पास कोई डिग्री है जो डाक्टर बनाकर बिठा दें।’
चोर बोला-‘मैं एक चोर हूं। कुछ दिन पहले एक चोरी करने गया था तो एक बैग को मैंने यह सोचकर हाथ में उठा लिया कि उसमें पैसा होगा पर उसमें तो डाक्टर होने की नकली प्रमाण पत्र हैं। असली होते तो कोई भी खरीद लेता पर नकली थे तो कोई खरीददार नहीं मिला। इतना बड़ा धोखा होने के बाद मैंने चोरी से सन्यास ले लिया। आपको डाक्टर की जरूरत है इसलिये मुझे अब इस समाज से बदला लेने का विचार आया जिसकी वजह से मुझे नकली डिग्री का बोझ उठाना पड़ा। आप तो बस एक छोटा अस्पताल खुलवा देना।

दूसरे सेठ ने कहा-‘ठीक है चलेगा, क्योंकि उस इलाके में अभी लोग बसना शुरू हुए हैं और इसलिये हम अपना धंधा जमाने जा रहे हैं, तुम्हारा कमीशन अधिक नहीं दे पायेंगे। वैसे हमने सुना है कि चोर भले ही चोरी छोड़ दे पर हेराफेरी छोड़ नहीं सकता। तुम हमें धोखा नहीं दोगे कैसे मान लें। कहीं तुम नकली डिग्री में पकड़े गये तो हमारे धंधे का क्या होगा?’

यह लघुकथा मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका’ पर लिखी गयी है। इसके कहीं अन्य प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
दीपक भारतदीप, लेखक संपादक

चोर ने कहा-‘मैं तो पकड़ा जाता हूं और छूट जाता हूं। मेरा धंधा जम जाये तो मैं अपना कोई चेला भी वहीं फिट कर दूंगा जो आपकी आपातकाल में सेवा करेगा।’

पहला सेठ बोला-‘मैं तुम लोगों के साथ शरीक नहीं हो सकता। मेरा काम तो खाने पीने की चीजें बेचने का है, जरूरी थोड़े ही मैं कोई खराब चीज बेचूं।’
दूसरे सेठ ने कहा-‘पांच-दस रुपये में तुम क्या लोगों को अमृत बेचोगे। तुम जो कच्चा माल लाओगे क्या उसमें बीमारी के कीटाणु नहीं होंगे? अरे, सुनते नहीं लोग कहते हैं कि बाजार की चीज मत खाया करो। इसलिये ही न कि बाजार में चीज खुले में रखे अपने आप ही खराब हो जाती है। वैसे भी तुम अपना दुकान वहीं खोलना जहां इसका अस्पताल खुलवायें।
पहला सेठ बोला-‘ नहीं, मैं इसकी संगत नहीं कर सकता? मैं तो अच्छा सामान बेचूंगा।’
दूसरे सेठ ने कहा-‘ बीमार होने की चीजें बेचना ताकि लोग इसके अस्पताल में भर्ती हों तो उनको पूछने वाले आयेंगे तो वह भी तुम्हारे ग्राहक होंगे। अगर ऐसी चीजें नहीं बेचोगे तो अधिक संख्या में उस इलाके में आयेंगे नहीं। तुम्हें और कुछ नहीं करना! बस, अपनी चीजों को अधिक सफाई से नहीं बनाना और खुले में रखना हैं ताकि वहां हवा में फैलने वाले बीमारियों के कीटाणु उसमें अपनी जगह बना लें। वैसे तुम्हें अपनी भावी सातवीं पीढ़ी के लिये कमाना है या नहीं?

पहला सेठ चुप हो गया। तीनों अपने गंतव्य की ओर बढ़ते जा रहे थे।