भारत की एक व्यवसायिक प्रतियोगिता में पाकिस्तान खिलाड़ियों की नीलामी न होने पर देश के अनेक बुद्धिजीवी चिंतित है। यह आश्चर्य की बात है।
पाकिस्तान और भारत एक शत्रु देश हैं-इस तथ्य को सभी जानते हैं। एक आम आदमी के रूप में तो हम यही मानेंगे। मगर यह क्या एक नारा है जिसे हम आम आदमियों का दिमाग चाहे जब दौड़ लगाने के लिये प्रेरित किया जाता है और हम दौड़ पड़ते हैं। अगर कोई सामान्य बुद्धिजीवी पाकिस्तान के आम आदमी की तकलीफों का जिक्र करे तो हम उसे गद्दार तक कह देते हैं पर उसके क्रिकेट खिलाड़ियों तथा टीवी फिल्म कलाकारों का स्वागत हो तब हमारी जुबान तालू से चिपक जाती है।
दरअसल हम यहां पाकिस्तान के राजनीतिक तथा धार्मिक रूप से भारत के साथ की जा रही बदतमीजियों का समर्थन नहीं कर रहे बल्कि बस यही आग्रह कर रहे हैं कि एक आदमी के रूप में अपनी सोच का दायरा नारों की सीमा से आगे बढ़ायें।
अगर हम व्यापक अर्थ में बात करें तो भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों का आशय क्या है? दो ऐसे अलग देश जिनके आम इंसान एक दूसरे के प्रति शत्रुता का भाव रखते हैं-इसलिये दोनों को आपस में मिलाने की बात कही जाती है पर मिलाया नहीं जाता क्योंकि एक दूसरे की गर्दन काट डालेंगे।
मगर खास आदमियों का सोच कभी ऐसा नहीं दिखता। भारत में अपने विचार और उद्देश्य संप्रेक्षण करने यानि प्रचारात्मक लक्ष्य पाने के लिये फिल्म, टीवी, अखबार और रेडियो एक बहुत महत्वपूर्ण साधन हैं। इन्हीं से मिले संदेशों के आधार पर हम मानते हैं कि पाकिस्तान हमारा शत्रु है। मगर इन्हीं प्रचार माध्यमों से जुड़े लोग पाकिस्तान से ‘अपनी मित्रता’ की बात करते हैं और समय पड़ने पर यह याद दिलाना नहीं भूलते कि वह शत्रु राष्ट्र है।
भारत के फिल्मी और टीवी कलाकार पाकिस्तान में जाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं तो अनेक खेलों के खिलाड़ी भी वहां खेलते हैं-यह अलग बात है कि अधिकतर चर्चा क्रिकेट की होती है। पाकिस्तानी कलाकारो/खिलाड़ियों से उनके समकक्ष भारतीयों की मित्रता की बात हम अक्सर उनके ही श्रीमुख से सुनते हैं। इसके अलावा अनेक बुद्धिजीवी, लेखक तथा अन्य विद्वान भी वहां जाते हैं। इनमे से कई बुद्धिजीवी तो देश के होने वाले हादसों के समय टीवी पर ‘पाकिस्तानी मामलों के विशेषज्ञ’ के रूप में चर्चा करने के लिये प्रस्तुत होते हैं। इनके तर्कों में विरोधाभास होता है। यह पाकिस्तान के बारे में अनेक बुरी बातें कर देश का दिल प्रसन्न करते हैं वह यह कभी नहीं कहते कि उससे संबंध तोड़ लिया जाये। सीधी भाषा में बात कहें तो जिन स्थानों से पाकिस्तान के विरोध के स्वर उठते हैं वह मद्धिम होते ही ‘पाकिस्तान शत्रु है’ के नारे लगाने वाले दोस्ती की बात करने लगते हैं। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की बारे में सभी जानते हैं। इतना ही नहीं मादक द्रव्य पदार्थो, फिल्मों, क्रिकेट से सट्टे से होने वाली कमाई का हिस्सा पाकिस्तान में बैठे एक भारतीय माफिया गिरोह सरदार के पास पहुंचता है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह इन आतंकवादियों को धन मुहैया कराता है। अखबारों में छपी खबरें बताती हैं कि जब जब सीमा पर आतंक बढ़ता है तब दोनों के बीच अवैध व्यापार भी बढ़ता है। अंतराष्ट्रीय व्यापार अवैध हो या वैध उसका एक व्यापक आर्थिक आधार होता है और यह तय है कि कहीं न कमाई की लालच दोनों देशों में ऐसे कई लोगों को है जिनको भारत की पाकिस्तान के साथ संबंध बने रहने से लाभ होता है। अब यह संबंध बाहर कैसे दिखते हैं यह उनके लिये महत्वपूर्ण नहीं है। पाकिस्तान में भारतीय फिल्में दिखाई जा रही हैं। यह वहां के फिल्मद्योग के लिये घातक है पर संभव है भारतीय फिल्म उद्योग इसकी भरपाई वहां के लोगों को अपने यहां कम देखकर करना चाहता है। भारत में होने वाली एक व्यवसायिक क्रिकेट प्रतियोगिता में पाकिस्तान खिलाड़ियों का न चुने जाने के पीछे क्या उद्देश्य है यह अभी कहना कठिन है पर उसे किसी की देशभक्ति समझना भारी भूल होगी। दरअसल इस पैसे के खेल में कुछ ऐसा है जिसने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को यहां नहीं खरीदा गया। एक आम आदमी के रूप में हमें कुछ नहीं दिख रहा पर यकीनन इसके पीछे निजी पूंजीतंत्र की कोई राजनीति होगी। एक बात याद रखने लायक है कि निजी पूंजीतंत्र के माफियाओं से भी थोड़े बहुत रिश्ते होते हैं-अखबारों में कई बार इस गठजोड़ की चर्चा भी होती है। भारत का निजी पूंजीतंत्र बहुत मजबूत है तो पाकिस्तान का माफिया तंत्र-जिसमें उसकी सेना भी शामिल है-भी अभी तक दमदार रहा है। एक बात यह भी याद रखने लायक है कि भारत के निजी पूंजीतंत्र की अब क्रिकेट में भी घुसपैठ है और भारत ही नहीं बल्कि विदेशी खिलाड़ी भी यहां के विज्ञापनों में काम करते हैं। संभव है कि पाकिस्तान के खिलाड़ियों की इन विज्ञापनों में उपस्थिति भारत में स्वीकार्य न हो इसलिये उनको नहीं बुलाया गया हो-क्योंकि अगर वह खेलने आते तो मैचों के प्रचार के लिये कोई विज्ञापन उनसे भी कराना पड़ता और 26/11 के बाद इस देश के आम जन की मनोदशा देखकर इसमें खतरा अनुभव किया गया हो।
ऐसा लगता है कि विश्व में बढ़ते निजी पूंजीतंत्र के कारण कहीं न कहीं समीकरण बदल रहे हैं। पाकिस्तान के रणनीतिकार अभी तक अपने माफिया तंत्र के ही सहारे चलते रहेे हैं और उनके पास अपना कोई निजी व्यापक पूंजीतंत्र नहीं है। यही कारण है कि उनको ऐसे क्षेत्रों में ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है जहां सफेद धन से काम चलता है। पाकिस्तानी रुपया भारतीय रुपये के मुकाबले बहुत कमजोर माना जाता है।
वैसे अक्सर हम आम भारतीय एक बात भूल जाते हैं कि पाकिस्तान की अपनी कोई ताकत नहीं है। भारतीय फिल्म, टीवी, रेडियो और अन्य प्रचार माध्यम पाकिस्तान की वजह से उसका गुणगान नहीं करते बल्कि मध्य एशिया में भारत के निजी पूंजीतंत्र की गहरी जड़े हैं और धर्म के नाम पर पाकिस्तान उनके लिये वह हथियार है जो भारत पर दबाव डालने के काम आता है। जब कहीं प्रचार युद्ध में पाकिस्तान भारत से पिटने लगता है तब वह वहीं गुहार लगाता है तब उसके मानसिक जख्मों पर घाव लगाया जाता है। मध्य एशिया में भारत के निजी पूंजीतंत्र की जड़ों के बारे में अधिक कहने की जरूरत नहीं है।
कहने का अभिप्राय यह है कि हम आम आदमी के रूप में यह मानते रहें कि पाकिस्तान का आम आदमी हमारा शत्रु है मगर खास लोगों के लिये समय के अनुसार रुख बदलता रहता है। एक प्रतिष्ठत अखबार में पाकिस्तान की एक लेखिका का लेख छपता रहता है। उससे वहां का हालचाल मालुम होता है। वहां आतंकवाद से आम आदमी परेशान है। भारत की तरह वहां भी महंगाई से आदमी त्रस्त है। हिन्दूओं के वहां हाल बहुत बुरे हैं पर क्या गैर हिन्दू वहां कम दुःखी होगा? ऐसा सोचते हुए एक देश के दो में बंटने के इतिहास की याद आ जाती है। अपने पूर्वजों के मुख से वहां के लोगों के बारे में बहुत कुछ सुना है। बंटवारे के बारे में हम लिख चुके हैं और एक ही सवाल पूछते रहे हैं कि ‘आखिर इस बंटवारे से लाभ किनको हुआ था।’ जब इस पर विचार करते हैं तो कई ऐसे चित्र सामने आते हैं जो दिल को तकलीफ देते हैं। एक बाद दूसरी भी है कि पूरे विश्व के बड़े खास लोग आर्थिक, सामाजिक, तथा धार्मिक उदारीकरण के लिये जूझ रहे हैं पर आम आदमी के लिये रास्ता नहीं खोलते। पैसा आये जाये, कलाकर इधर नाचें या उधर, और टीम यहां खेले या वहां फर्क क्या पड़ता है? यह भला कैसा उदारीकरण हुआ? हम तो यह कह रहे हैं कि यह सभी बड़े लोग वीसा खत्म क्यों नहीं करते। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो उसके नियमों का ढीला करें। वह ऐसा नहीं करेंगे और बतायेंगे कि आतंकवादी इसका फायदा ले लेंगे। सच्चाई यह है कि आतंकवादियों के लिये कहीं पहुंचना कठिन नहीं है पर उनका नाम लेकर आम आदमी को कानूनी फंदे में तो बंद रखा जा सकता है। कुल मिलाकर भारत पाकिस्तान ही नहीं बल्कि कहीं भी किन्हीं देशों की दोस्ती दुश्मनी केवल आम आदमी को दिखाने के लिये रह गयी लगती है। उदारीकरण केवल खास लोगों के लिये हुआ है। अगर ऐसा नहीं होता तो भला आई.पी.एल. में पाकिस्तान के खिलाड़ियों की नीलामी पर इतनी चर्चा क्यों होती? एक बात यहां उल्लेख करना जरूरी है कि क्रिक्रेट की अंतर्राष्ट्रीय परिषद के अध्यक्ष के अनुसार इस खेल को बचाने के लिये भारत और पाकिस्तान के बीच मैच होना जरूरी है। इस पर फिर कभी।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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दौलत बनाने निकले बुत
भला क्या ईमान का रास्ता दिखायेंगे।
अमीरी का रास्ता
गरीबों के जज़्बातों के ऊपर से ही
होकर गुजरता है
जो भी राही निकलेगा
उसके पांव तले नीचे कुचले जायेंगे।
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उस रौशनी को देखकर
अंधे होकर शैतानों के गीत मत गाओ।
उसके पीछे अंधेरे में
कई सिसकियां कैद हैं
जिनके आंसुओं से महलों के चिराग रौशन हैं
उनको देखकर रो दोगे तुम भी
बेअक्ली में फंस सकते हो वहां
भले ही अभी मुस्कराओ।
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सुना है बड़े लोग भी अब
रेलों और विमानों की
सामान्य श्रेणी में यात्रा करेंगे।
आम आदमी हो रहे परेशान
यह सोचकर कि
पहले ही वहां भीड़ बहुत है
अब यात्रा के समय
हम अपना पांव कहां धरेंगे।
पहले तो जल्दी टिकट मिल जाया
करता था
पर अब टिकट बेचने वाले
किसी बड़े आदमी के लिये
अपने पास रखे रहेंगे।
यह भी चल जायेगा पर
जिस आम आदमी को
हो गये बड़े आदमी के दर्शन
वह तो इतरायेगा
यह कैसे सहेंगे।
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बंदर चाहे कितना भी बूढ़ा हो जाये गुलाट लगाना नहीं भूलता यही कुछ हालत हम भारतवासियों की है। कोई व्यसन या बुरी आदत बचपन से पड़ जाये तो उससे पीछा नहीं छुड़ा सकते। ऐसी आदतों में क्रिकेट मैच देखना भी शामिल है। 2007 में इस बात का भरोसा नहीं था कि भारत की क्रिकेट टीम एक दिवसीय विश्व कप मैच जीतेगी फिर भी लोग देखते रहे और जब वहां बुरी तरह हारी तब विरक्त होने लगे। मगर पिछले वर्ष बीस ओवरीय क्रिकेट प्रतियोगिता भारत ने जीती तो बच्चे, बड़े और बूढ़े फिर क्रिकेट मैच देखने लगे।
1983 तक भारत में एक दिवसीय मैच को महत्व नहीं दिया जाता था बल्कि पांच दिवसीय मैचों में ही दिलचस्पी लेते थे। उस वर्ष भारत ने एक दिवसीय क्रिकेट प्रतियोगिता क्या जीती? भारत में उसे देखने का फैशन चल पड़ा-यहां खेल खेलना और देखना भी अब फैशनाधारित हो गये हैं-जिसे देखो वही एक दिवसीय मैचों को देखना चाहता था। उस समय जो बाल्यकाल में थे वह पूरी युवावस्था और जो युवावस्था में थे वह वृद्धावस्था तक क्रिकेट मैच टीवी पर देखकर आखें खराब करते रहे। खिलाड़ियों पर जमकर दौलत और शौहरत बरसी। जब दौलत और शौहरत आती है तो अपने साथ विकार और अहंकार भी लाती है। यही हुआ। क्रिकेट का नाम हुआ तो वह बदनाम भी हुआ। देखने वालों में कुछ ऐसे भी तो जो मुफ्त में मजा लेते थे तो कुछ लोगों ने दांव लगाकर पैसे कमाने चाहे। खेल बदनाम हुआ। इधर अपने देश की टीम के सदस्य कमाते रहे पर खेल में पिछड़ते गये। 2007 में बंग्लादेश से हारे तो लोगों का इस खेल से विश्वास ही उठ गया।
एक समय ऐसा लगने लगा कि अब लोग अब इस खेल से विरक्त हो जायेंगे मगर ऐसा नहीं हुआ। लोगों के पास पैसा भी आया तो समय भी फालतू बहुत था। भीड़ फिर मैदान में रहने लगी। टिकिटों की मारामारी यथावत थी मगर इस देश में फालतू लोगों की संख्या को देखते हुए भी यह लोकप्रियता यथावत होने का प्रमाण नहीं था। इस खेल को बचपन और युवावस्था से केवल देख रहे लोग इससे विरक्त होते जा रहे थे। क्रिकेट की चर्चा ही एकदम बंद हो गयी।
पिछले साल भारत ने बीस ओवरीय क्रिकेट का विश्व कप क्या जीता लोगों के मन मस्तिष्क की वापसी इस खेल के प्रति हो गयी। जब भारत बीस ओवरीय प्रतियोगिता में खेल रहा था तब लोगों का आकर्षण इसके प्रति बिल्कुल नहीं था पर जैसे ही वह जीता सभी नाचने लगे। भारतीय टीम जो एक खोटा सौ का नोट हो गयी थी और पचास में भी नहीं चल रही थी बीस में क्या चली फिर सौ की हो गयी। लोग पुरानी टीम की चाल और चरित्र भूल गये। पहले प्रेमी रहे लोग जो अब क्रिकेट से चिढ़ने लगे थे फिर उसकी तरफ आकर्षित हो गये। भारत के लोगों में आकर्षण दोबारा पैदा हुआ तो क्रिकेट के व्यवसायियों की बाछें खिल गयीं। अब तो क्लब स्तर की टीमें बनाकर वह मैचा करवा रहे हैं जिसमें उनको भारी आय हो रही है।
इससे क्या जाहिर होता है? यही कि इस देश में लोग विजेता को सलाम करते हैं। जीत का आकर्षण भारतीयों की चिंतन क्षमता का हर लेता है। भारतीयों की मानसिकता अब विश्व में व्यवसायियों से छिपी नहीं है। दुनियां का सबसे लोकप्रिय खेल फुटबाल हैं। उसमें भारतीय टीम की उपस्थिति नगण्य है। वैसे कुछ फुटबाल व्यवसायियों ने क्रिकेट के संक्रमण काल में यह प्रयास किया था कि भारत में भी फुटबाल लोकप्रिय हो ताकि यहां के लोगों के जज्बातों का आर्थिक दोहन किया जा सके मगर उसके सफल होने से पहले ही बीस ओवरीय क्रिकेट मैचों के विश्व कप जीतने से भारतीय खेल प्रेमी (?) उसी तरफ लौट आये।
अब हालत यह है कि हम जैसा आदमी जो कि क्रिकेट मैचों से अलविदा कह चुका था वह भी मैच तिरछी नजर से देख लेता है। ऐसे में जब देश की टीम जीत रही हो तो फिर नजरें जम ही जाती हैं। यह इसलिये हुआ कि कहीं चार लोगों में उठना बैठना होता है तो वह अब फिर से क्रिकेट की चर्चा करने लगे हैं। इतना ही नहीं भाई लोग क्लब स्तर के मैच भी देखने लगे हैं। उमरदराज हो गये हैं पर क्रिकेट खेल से लगाव नहीं खत्म हुआ। पहले तो चलो देश की टीम की चर्चा करते थे पर अब क्लब स्तर के मैच-वह भी इस देश से बाहर हो रहे हों तब-देखकर विदेशी खिलाड़ियों की चर्चा करते हैं। मतलब यह बीस ओवरीय प्रतियोगिता की जीत ने भारत के बूढ़े और अधेड़ क्रिकेट प्रेमियों को फिर खींच लिया है। तब यही कहना पड़ता है कि ‘बंदर कितना भी बूढ़ा हो जाये गुलाट खाना नहीं भूलता’, वही हालत इस देश की भी है। जब चर्चा चारों तरफ हो रही हो तो भला कब तक कोई आदमी निर्लिप्त भाव से रह सकता है।
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