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गुरु पूर्णिमा-तत्वज्ञान दे वही होता है सच्चा गुरु (article in hindi on guru purnima


गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव

         जहां गुरु लोभी और शिष्य लालची हों वह दोनों ही अपने दांव खेलते हैं पर अंततः पत्थर बांध कर नदिया पर करते हुए उसमें डूब जाते हैं।

            आज पूरे देश में गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है। भारतीय अध्यात्म में गुरु का बहुत महत्व है और बचपन से ही हर माता पिता अपने बच्चे को गुरु का सम्मान करने का संस्कार इस तरह देते हैं कि वह उसे कभी भूल ही नहीं सकता। मुख्य बात यह है कि गुरु कौन है?
दरअसल सांसरिक विषयों का ज्ञान देने वाला शिक्षक होता है पर जो तत्व ज्ञान से अवगत कराये उसे ही गुरु कहा जाता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में वर्णित है। इस ज्ञान को अध्ययन या श्रवण कर प्राप्त किया जा सकता है। अब सवाल यह है कि अगर कोई हमें श्रीगीता का ज्ञान देता है तो हम क्या उसे गुरु मान लें? नहीं! पहले उसे गुरु मानकर श्रीगीता का ज्ञान प्राप्त करें फिर स्वयं ही उसका अध्ययन करें और देखें कि आपको जो ज्ञान गुरु ने दिया और वह वैसा का वैसा ही है कि नहीं। अगर दोनों मे साम्यता हो तो अपने गुरु को प्रणाम करें और फिर चल पड़ें अपनी राह पर।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में गुरु की सेवा को बहुत महत्व दिया है पर उनका आशय यही है कि जब आप उनसे शिक्षा लेते हैं तो उनकी दैहिक सेवा कर उसकी कीमत चुकायें। जहां तक श्रीकृष्ण जी के जीवन चरित्र का सवाल है तो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्होंने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर हर वर्ष उनके यहां चक्कर लगाये।
गुरु तो वह भी हो सकता है जो आपसे कुछ क्षण मिले और श्रीगीता पढ़ने के लिये प्रेरित करे। उसके बाद                    अगर आपको तत्वज्ञान की अनुभूति हो तो आप उस गुरु के पास जाकर उसकी एक बार सेवा अवश्य करें। हम यहां स्पष्ट करें कि तत्वज्ञान जीवन सहजता पूर्ण ढंग से व्यतीत करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और वह केवल श्रीगीता में संपूर्ण रूप से कहा गया है। श्रीगीता से बाहर कोई तत्व ज्ञान नहीं है। इससे भी आगे बात करें तो श्रीगीता के बाहर कोई अन्य विज्ञान भी नहीं है।
इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते हैं।
सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों।

कबीरदास जी ने ऐसे ही लोगों के लिये कहा है कि

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जाका गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।

      “जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है।”

 
बहुत कटु सत्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान एक स्वर्णिम शब्दों का बड़ा भारी भंडार है जिसकी रोशनी में ही यह ढोंगी संत चमक रहे हैं। इसलिये ही भारत में अध्यात्म एक व्यापार बन गया है। श्रीगीता के ज्ञान को एक तरह से ढंकने के लिये यह संत लोग लोगों को सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। भगवान श्रीगीता में भगवान ने अंधविश्वासों से परे होकर निराकर ईश्वर की उपासना का संदेश दिया और प्रेत या पितरों की पूजा को एक तरह से निषिद्ध किया है परंतु कथित रूप से श्रीकृष्ण के भक्त हर मौके पर हर तरह की देवता की पूजा करने लग जाते हैं। गुरु पूर्णिमा पर इन गुरुओं की तो पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देते हैं।
मुक्ति क्या है? अधिकतर लोग यह कहते हैं कि मुक्ति इस जीवन के बाद दूसरा जीवन न मिलने से है। यह गलत है। मुक्ति का आशय है कि इस संसार में रहकर मोह माया से मुक्ति ताकि मृत्यु के समय उसका मोह सताये नहीं। सकाम भक्ति में ढेर सारे बंधन हैं और वही तनाव का कारण बनते हैं। निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ऐसे ब्रह्मास्त्र हैं जिनसे आप जीवन भर मुक्त भाव से विचरण करते हैं और यही कहलाता मोक्ष। अपने गुरु या पितरों का हर वर्ष दैहिक और मानसिक रूप से चक्कर लगाना भी एक सांसरिक बंधन है। यह बंधन कभी सुख का कारण नहीं होता। इस संसार में देह धारण की है तो अपनी इंद्रियों को कार्य करने से रोकना तामस वृत्ति है और उन पर नियंत्रण करना ही सात्विकता है। माया से भागकर कहीं जाना नहीं है बल्कि उस पर सवारी करनी है न कि उसे अपने ऊपर सवार बनाना है। अपनी देह में ही ईश्वर है अन्य किसी की देह को मत मानो। जब तुम अपनी देह में ईश्वर देखोगे तब तुम दूसरों के कल्याण के लिये प्रवृत्त होगे और यही होता है मोक्ष।
इस लेखक के गुरु एक पत्रकार थे। वह शराब आदि का सेवन भी करते थे। अध्यात्मिक ज्ञान तो कभी उन्होंने प्राप्त नहीं किया पर उनके हृदय में अपनी देह को लेकर कोई मोह नहीं था। वह एक तरह से निर्मोही जीवन जीते थे। उन्होंने ही इस लेखक को जीवन में दृढ़ता से चलने की शिक्षा दी। माता पिता तथा अध्यात्मिक ग्रंथों से ज्ञान तो पहले ही मिला था पर उन गुरु जी जो दृढ़ता का भाव प्रदान किया उसके लिये उनको नमन करता हूं। अंतर्जाल पर इस लेखक को पढ़ने वाले शायद नहीं जानते होंगे कि उन्होंने अपने तय किये हुए रास्ते पर चलने के लिये जो दृढ़ता भाव रखने की प्रेरणा दी थी वही यहां तक ले आयी। वह गुरु इस लेखक के अल्लहड़पन से बहुत प्रभावित थे और यही कारण है कि वह उस समय भी इस तरह के चिंतन लिखवाते थे जो बाद में इस लेखक की पहचान बने। उन्हीं गुरुजी को समर्पित यह रचना।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

इस ब्लॉग ने पार की दो लाख पाठक/पाठ पठन संख्या-हिन्दी आलेख


            इस लेखक का एक अन्य ब्लाग ‘शब्द पत्रिका’ ने आज दो लाख पाठक/पाठपठन संख्या पार कर ली। यह संख्या पार करने वाला यह चौथा ब्लाग है। संयोगवश यह वर्डप्रेस का ही ब्लाग है। अपने आप में यह आश्चर्यजनक स्वयं को ही लगता है कि मजा तो ब्लॉगर के ब्लाग पर आता है पर पाठकों की संख्या की दृष्टि से सफलता वर्डप्रेस के ब्लाग पर ही मिलती है। ब्लॉगर के 13 ब्लाग मिलकर पूरे दिन में जितने पाठक जुटाते हैं उतने तो वर्डप्रेस का ब्लाग ‘हिन्दी पत्रिका’ ही जुटा लेता है। वर्डप्रेस के आठ मिलकर ब्लॉगर के 13 ब्लॉग से चार गुना से पांच तक पाठक अधिक जुटा लेते हैं।
           यह लेखक ब्लॉगर पर लिखे पाठ ही वर्डप्रेस के ब्लाग पर रखता है पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उनमें टालने वाली कोई बात है। वहां टैब अधिक लगाने का अवसर मिलता है और शायद यही कारण है कि वहां पाठक अधिक मिल जाते हैं।
           इधर डर लगने लगा है कि कहीं ब्लॉगर के ब्लॉग कूड़ा होने की तरफ तो नहीं बढ़ रहे। वजह, यह है कि ब्लॉगर के ब्लॉगों से हिन्दी लिखने की सुविधा खत्म हो गयी है। कुछ ही दिन पहले ब्लॉगर पर अधिक लेबल लिखने की सुविधा मिली थी। उस समय लगा कि शायद ब्लॉगर अब वर्डप्रेस की बराबर करेगा पर यह सुविधा महीने भर भी नहीं चली। इधर अखबारों में पढ़ने को मिला था कि गूगल अब फेसबुक का मुकाबला करने के लिये गूगल प्लस लॉंच करने वाला है। साथ ही यह भी पता लगा कि ई-ब्लागर से उसका नाता टूटने वाला है या टूट चुका है। इधर अनुभव से एक बात पता लगी है कि ब्लॉगर पर जितने भी हिन्दी के अनुकूल जो सुविधा थी वह शायद भारत में सक्रिय गूगल से जुड़े लोगों के प्रयासों का ही परिणाम था। अब यह कहना कठिन है क ई-ब्लॉगर और ब्लागर अलग अलग है या एक, पर जिस तरह ब्लॉगर से हिन्दी की सुविधायें गयी हैं उससे लगता है कि गूगल उससे विरक्त हो गया है।
               अभी तक हमने गूगल प्लस को देखने का प्रयास किया पर कुछ समझ में नहीं आ रहा। फेसबुक को देख लिया और उस पर काम करना बेकार लगता है। एक विशुद्ध लेखक का मन फेसबुक से भर नहीं सकता क्योंकि वहां उसकी रचना भीड़ का हिस्सा हो जाती हैं। ब्लॉग एक किताब की तरह बन जाता है। यही कारण है कि रचनाधर्मियों को वह बहुत भाता। कहना मुश्किल है कि गूगल के विशेषज्ञों का क्या सोच है पर अगर वह ब्लॉग से विरक्त होते हैं तो मानना पड़ेगा कि वह फेसबुक और ट्विटर जैसे संकीर्ण संदेश साधन संवाहक स्त्रोतों को प्रश्रय देना चाहते हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि ट्विटर और फेसबुक जैसे साधन रचना धर्मियों के साधना स्थल नहीं हो सकते पर उनकी संख्या उन प्रयोक्ताओं के मुकाबले नगण्य हैं जो फेसबुक और ट्विटर में व्यापर छद्म व्यवहार को सत्य समझकर खुश हो जाते हैं। निजीकरण के चलते यह संभव नहीं है कि कंपनियों से आशा की जाये कि वह उदारतापूर्वक रचनाधर्मियों को समर्थन दें।
        ऐसे में वर्डप्रेस के ब्लॉग की आवश्यकता निरंतर बनी रहेगी। फिर भी मानना पड़ेगा कि गूगल ने इंटरनेट पर हिन्दी को याहु से कहीं अच्छा समर्थन दिया पर लगता नहीं है कि वह आगे अधिक सहायक होगा। अक्सर गूगल के ब्लॉगर पर मोबाइल से जुड़ने के प्रस्ताव आते हैं पर हमारे लिये वह सब बेकार है। गूगल मोबाइल धारकों को लक्ष्य कर रहा है पर एक लेखक के लिये मोबाइल तब बेकार होता है जब वह ब्लाग पर सक्रिय होता है। मोबाइल धारक अपने देश में बहुत हैं और गूगल उनमें पैठ बनाने की कर रहा है हालांकि ऐसा कम ही दिखता है कि मोबाइल धारकों की रुचि उस समय इंटरनेट पर होती हो जब वह उस पर बात करना चाहते हैं। फिर हम जैसे ब्लाग लेखक के लिये छोटे अक्षरों में ब्लाग देखने की इच्छा करना ही संभव है। स्थिति यह है कि कभी किसी को एसएमएस भेजने की इच्छा भी नहीं होती। जो भेजते हैं तो उनसे कह देते हैं कि हमें संदेश भेजना ही है तो ईमेल पर भी भेजो।
           मोबाईल के मुकाबले कंप्यूटर पर इंटरनेट का उपयोग देश की नयी पीढ़ी के लिये हम अल्पज्ञान ही मानते हैं। वैसे भी हमारे देश में अल्पज्ञान पाते ही उछलने लगता है। यही कारण है कि लोग मोबाइल हाथ में पकड़ कर इस तरह धूमते हैं जैसे कि अलीबाबा का खजाना मिल गया है। मोबाइल पर संदेश वगैरह भेजना हमारी नज़र में कंप्युटर के अभ्यास से रहित होना है।
             एक बालक ने हमसे कहा कि ‘अंकल, हमने आपको कंप्युटर पर मैसेज भेजा था आपने जवाब नहीं दिया।’
          हमने कहा-‘‘एक तो हम किसी का मैसेज पढ़ते ही नहीं है क्योंकि उसमें फालतु मैसेज बहुत होते हैं। दूसरे हमसे मैसेज भले ही एक लाईन के हों पर टाईप नहीं हो सकते।’
          बालक ने कहा-‘‘आप सीख लो न! हालांकि अब आपको उम्र के कारण थोड़ी दिक्कत आयेगी।’’
हमने ऊपर से नीचे तक उसे देखा और कहा-‘‘ठीक है प्रयास करेंगे पर तुंम अगर इंटरनेट पर सक्रिय हो तो ईमेल भेज सकते हो।’
          वह हैरानी से हमें देखने लगा और बोला-‘‘इंटरनेट पर कभी कभी बैठता हूं। मेरा ईमेल खाता भी है पर उसमें टाईप करना नहीं आयेगा।’’
        हमने कहा-‘‘हां यह बात तो सही है, हम तुम्हें अब टाईप सीखने के लिये तो नहीं कह सकते क्योंकि वह तुम्हारी उम्र भी निकल चुकी है। अलबत्ता हम एसएमएस लिखना ही सीख लेंगे।’’
लड़के लड़कियों के मुख से फेसबुक, ट्विटर और ऑरकुट की बातें अक्सर हम सुनते हैं। उनके बहुत सारे दोस्त हैं यह भी वह बताते हैं। उनके अनुभव में कितना भ्रम और कितना सत्य है यह अनुमान करना कठिन है पर ब्लॉग लेखन में अपनी सक्रियता से सीखे ज्ञान के कारण उन पर हंसी आती है।
        शब्द पत्रिका का दो लाख पाठक/पाठन संख्या पार करने पर बस इतना ही कहना चाहते हैं कि अभी बहुत कुछ और देखना बाकी है तो लिखना भी बाकी है। हम यहां ऐसे लेखक हैं जो अपना लिखा दूसरों को पढ़ाने के लिये बल्कि पाठकों को पढ़ने के लिये तत्पर रहता है। हमारे पाठ कितने लोग पढ़ते हैं यह पता है पर पाठक नहीं जानते हम उनको कितना पढ़ रहे हैं। हमारे शब्द हमें बता देते हैं कि कौन कैसे पढ़ रहा है। धन्यवाद
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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इश्क और नारीवादी-हिन्दी व्यंग्य (ishq aur narivadi-hindi vyangya


अपने पल्ले आज तक एक बात नहीं पड़ी कि इश्कवादी और नारीवादी बुद्धिजीवी अभी तक बिना विवाह साथ रहने के न्यायालयीन फैसले पर जश्न मना रहे थे फिर अचानक किसी प्रेम के विवाह में परिवर्तित न होने पर समाज को क्यों कोस रहे हैं?
देश में ऐसे अनेक किस्से होते हैं कि लड़कियां और लड़के भाग कर शादी कर लेते हैं, और समाज उनका पीछा करता है तो उनके बचाव में नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवी आगे आते रहे हैं। आगे क्या आते हैं! समाज की असामाजिक स्थिति पर सवाल उठते हैं-जवाब तो वह खैर क्या ढूंढेंगे? जमकर भारतीय धर्म पर उंगली उठायेंगे। जातिवाद को कोसेंगे। संविधान के प्रावधानों की दुहाई देते हुए बतायेंगे कि उसके अनुसार किसी को किसी से भी विवाह करने से रोकना गलत है।
जब एक माननीय अदालत ने यह निर्णय दिया कि अगर कोई व्यस्क जोड़ा बिना विवाह के लिये साथ रहना चाह तो रह सकता है तब लगा कि इश्कबाजी में समाज से विद्रोह करने वाले इसका लाभ उठायेंगे और शादी वादी के चक्कर से बचेंगे। इससे समाज के साथ ही आशिक और माशुकाओं को राहत मिलेगी। अलबत्ता नारीवादी और इश्कवादी बुद्धिजीवियों के बौद्धिक अभ्यास में कमी आने की आशंका थी पर लगता है उसकी संभावना नहीं के बराबर है। इसका कारण यह है कि हमारे देश के युवक युवतियां बाह्य रूप से पश्चात्य चालचलन और आंतरिक रूप से प्राचीन संस्कारों में चलते हुए ऐसे अंतद्वंद्ध में पड़े हैं जिसके चलते उनको यह समझ में नहंी आता कि करना क्या है?
असामयिक जवान मौत चाहे वह लड़की की हो या लड़के की पीड़ादायक है। पीड़ादायक तो हर मौत होती है पर बड़ी उम्र में हुई मौत पर केवल रिश्तेदार और परिवार ही शोकाकुल होता है जबकि जवान मौत पर पूरा समाज ही दुःखी हो जाता है। जन्म और मृत्यु कभी स्त्री और पुरुष में भेद नहीं करती पर जीवन करता है। जीवन यानि जन्म से मृत्यु के बीच का सफर! भले ही कोई आदमी कितना भी कहे कि स्त्री और पुरुष एक समान है पर वह प्रकृति के द्वारा किये भेद और उसकी सच्चाईयों को बदल नहीं सकता। सबसे बड़ा सच यह है कि स्त्री की इज्जत कांच की तरह होंती है-एक बार टूटी तो जूड़ती नहीं, जबकि आदमी की इज्जत पीतल के लोटे की तरह है-एक बार गंदी हो गयी तो फिर पानी से धोकर साफ हो जाती है।
अपने देश के बुद्धिजीवी इस सच को बदलना चाहते हैं, पर पाश्चात्य विचारधाराओं की धारा में बह रहे यह लोग ऐसा कर नहीं सकते।
पाश्चात्य विचाराधाराओं के समर्थक सवाल करते हैं, पर जवाब नहीं ढूंढते। यह ऐसा क्यों है? इसे ऐसा होना चाहिये! यह पहले ऐसा था पर अब इसे समय के अनुसार बदलना चाहिये-ऐसा वह हर विषय पर करते हैं। गनीमत है कि सर्वशक्तिमान को नहीं मानते। वरना इनमें एकाध तपस्वी निकल पड़ता तो उसे भी हैरान कर देता। उसकी तपस्या से मान लीजिये सर्वशक्तिमान प्रकट होते तो उसे वरदान मांगने को कहते तो वही यही कहता कि ‘यहां स्त्री पुरुष का भेद खत्म करो और सभी को एक जैसा बनाओ। सभी लोगों को अपनी शक्ति से प्रकट करो। आखिर यह औरत ही इंसान को जन्म देने का बोझ क्यों उठाये?’
मान लीजिये सर्वशक्तिमान एक से अधिक वरदान मांगने को कहते तो जाने क्या हाल होता। ऐसे तपस्वी उनसे कहते कि ‘यहां सभी को पैदा किया है तो उनको खाना भी उम्र भर का खाना साथ भेजो ताकि यहां आदमी मजदूर यह पूंजीपति जैसे वर्ग न बने।’
तीसरा वरदान मांगने को मिलता तो कहते कि ‘भारत के अलावा विश्व में जितने भी महान लोग हुए हैं सभी को यहीं भेज दो ताकि हम अपने पुराने नायकों को भुला सकें क्योंकि वह सभी कल्पित हैं। यहां का धर्म एक धोखा है और बाकी दुनियां के सही है इसलिये उनकी स्थापना करनी है।’
ऐसे बुद्धिजीवियों का क्या कहा जाये? उनकी कहानी फिल्मी की तरह शादी से आगे नहीं जाती। इश्क की आजादी के नाम पर सभी स्वीकार्य है फिर कोई दुर्घटना हो जाये-कहीं लड़की तो कहीं लड़के के परिवार वालों से व्यवधान होने पर-तो समाज को कोसो। कहीं कोई मर जाये तो उसे इश्क की जंग का शहीद बताओ। समाज का अंधा बताओ। माता पिता को पिछड़ी विचारधारा का प्रचारित करो। मतलब यह कि माता पिता अपने पुत्र और पुत्री के लिये योग्य वधु या वर अपने विवेक से ढूंढते हैं तो वह अंधापन है।
इनको इश्क और शादी का अंतर पता नहंी है। दरअसल इनको कौन समझाये कि इश्क का शादी में तब्दील होना ही शहीद होना है। इश्क में तो होटल और पार्क में काम चल जाता है पर जब गृहस्थी की बात आती है तो उसके लिये घर ही मोर्चे की तरह हो जाता है जहां पैसे के बिना आदमी गरीब भी कहलाता है।
देश में रोजगार की कमी है। पढ़ने लिखने के अलावा व्यवहारिक चालाकियों में दक्ष ही लोग आजकल व्यवसायों और नौकरियों में चल पाते हैं। जिनके पास बहुत काम है उनके पास इश्क में इधर उधर घूमने की फुरसत नहीं है और उनकी कमाई इतनी होती है कि उनके पास अच्छे रिश्ते स्वयं ही आते हैं। जिनके पास कम काम है या नकारा हैं वह इधर उधर हाथ पंाव मारकर ऐसी प्रेयसी ढूंढते हैं जो शादी के बाद भी उनका खाना भी बनाये और कमाये भी!
पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कारों के बीच चल रहा यह अंतहीन संघर्ष बहुत गहरा है इसके लिये जरूरी है कि केवल किताबी बातों को पढ़कर उस पर अभिव्यक्ति देने की बजाय समाज में अलग अलग स्थानों और समूहों में बैठकर वहां की दैनिक गतिविधियों को अवलोकन किया जाये। तभी बात समझी जा सकती है।
पिछले एक वर्ष से तो ऐसा लग रहा है कि इश्क का राजनीतिकरण हो गया है। कहंी आशिक तो कहीं माशुका बलिदान हो जाती है। इसके साथ ही हो जाता है व्यक्ति की आजादी की अभिव्यक्ति रोकने के विरोध का अभियान! इतना ही नहीं जिस तरह देश में राजनीतिक धारायें प्रवाहित हैं उसी के अनुसार टिप्पणियां भी आती है। कलकत्ता में इश्क पर संकट आया तो उस पर एक विचारधारा विशेष के लोग बोलेंगे तो कश्मीर में दूसरे विचाराधारा के लोग अभिव्यक्ति देंगे। ऐसे में हम जैसे लोग संकट में फंस जाते हैं कि इधर बोले तो यह समझें जायें उधर बोलें तो वह समझें जायें। खामोश रहो तो लगता है कि अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन किया। साथ ही लगता है कि यह कथित संघर्ष तो तयशुदा है-हिन्दी में बोलें तो  फिक्सिंग-जो शायद इसलिये जारी रखा जाता है कि कोई आजाद चिंतक उभरकर नाम न कमा ले-इनाम वगैरह तो क्या ले पायेंगे क्योंकि बांटने वाले तो विचाराधाराओं के अनुसार ही चलते हैं। सो कभी कभार बिना नाम लिये दिये अपनी बात कह जाते हैं। विचार वीरों से बचने तथा अपने अभिव्यक्ति के अधिकार में सामंजस्य बिठाने का यह एक अच्छा मार्ग दिखता है। अलबत्ता आशिक और माशुका के इश्क के बाद शादी न होने या होकर मिलन न होने के प्रसंग अब जिस तरह सार्वजनिक चर्चा का विषय बन रहे हैं उससे तो यही लगता है कि जिस तरह कोई फिल्म बिना प्रेम कहानी के पूरी नहीं होती उसी तरह संगठित प्रचार माध्यमों में बहसें भी इसके बिना रुचिकर नहीं  बनती। इसलिये हर आठवें दिन कोई न कोई प्रेम प्रसंग चर्चा का विषय बन ही जाता है।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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आध्यात्मिक ज्ञान तथा भक्ति के प्रति झुकाव सुखद लगता है-हिन्दी लेख (adhyamik prem and film actres-hindi article)


बंबई में हिन्दी फिल्मों और टीवी धारावाहिकों की अभिनेत्री सोनाली बैंद्रे  अनुपम सौंदर्य के साथ कुशल अभिनय तथा मधुर स्वर की स्वामिनी मानी जाती है। हैरानी की बात है कि फिल्मों में उनको अधिक अभिनय का अवसर नहीं मिला। इसलिये उन्होंने फिल्मों में सक्रिय एक व्यक्ति से विवाह कर लिया। सौंदर्य के साथ हर किसी में विवेक और बुद्धि हो या आवश्यक नहीं है। जिस नारी में सौंदर्य के साथ बुद्धि और विवेक तत्व हो उसे ही सर्वाग सुंदरी माना जाता है और सोनाली बेंद्र इस पर खरी उतरती हैं। ऐसे में जब अखबार में उनके आध्यात्मिक प्रेम के बारे में पढ़ा तो सुखद आश्चर्य हुआ। प्रसंगवश सोनाली बेंद्रे ने टीवी पर बच्चों के साथ प्रसारित एक संगीत प्रतियोगिता के रूप में प्रसारित एक कार्यक्रम में उनके संचालन के तरीके ने इस लेखक को बहुत प्रभावित किया था। शांति के साथ अपने कुशल संचालन के प्रसारण से यह तो उन्होंने साबित कर ही दिया था कि उनमें बुद्धिमता का भी विलक्षण गुण है। सच बात कहें कि अमिताभ बच्चन के कौन बनेगा करोड़पति के मुकाबले वह एक बेहतर प्रसारण लगा था।
अखबार में पढ़ने को मिला कि वह अभिनय के नये प्रस्ताव स्वीकार नहीं  कर रहीं। इसका कारण यह बताया कि वह अपने पांच वर्षीय बच्चे को संस्कारिक रूप से भी संपन्न बनाना चाहती हैं। उनका बच्चा जिस स्कूल में जाता है वहां श्रीमद्भागवत गीता का भी अध्ययन कराया जाता है। बहुत छोटे इस समाचार ने सोनाली बेंद्रे की याद दिला दी जो अब केवल कभी कभी बिजली के उपकरणों के विज्ञापन में दिखाई देती हैं। वैसे उसका अभिनय देखकर लगता था कि वह अन्य अभिनेत्रियों से कुछ अलग है पर अब इस बात का आभास होने लगा है कि वह अध्यात्मिक भाव से सराबोर रही होंगी और उनकी आंखों में हमेशा दिखाई देने वाला तेज उसी की परिणति होगी।
भारत की महान अदाकारा हेमा मालिनी भी अपनी सुंदरता का श्रेय योग साधना को देती हैं पर सोनाली बेंद्रे में कहीं न कहीं उस अध्यात्मिक भाव का आभास अब हो रहा है जो आमतौर से आम भारतीय के मन में स्वाभाविक रूप से रहता है।
जिस मां के मन में अध्यात्मिक भाव हो वही अपने बच्चे के लिये भी यही चाहती है कि उसमें अच्छे संस्कार आयें और इसके लिये बकायदा प्रयत्नशील रहती है। यहां यह भी याद रखें कि मां अगर ऐसे प्रयास करे तो वह सफल रहती है। अब यहां कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं कि अध्यात्मिक भाव रखने से क्या होता है?
श्रीमद्भागवत गीता कहती है कि इंद्रियां ही इंद्रियों में और गुण ही गुणों में बरत रहे हैं। साथ ही यह भी कि हर मनुष्य इस त्रिगुणमयी माया में बंधकर अपने कर्म के लिये बाध्य होता है। इस त्रिगुणमयी माया का मतलब यह है कि सात्विक, राजस तथा तामस प्रवृत्तियों मनुष्य में होती है और वह जो भी कर्म करता है उनसे प्रेरित होकर करता है। जब बच्चा छोटा होता है तो माता पिता का यह दायित्व होता है कि वह देखे कि उसका बच्चे में कौनसी प्रवृत्ति डालनी चाहिए। हर बच्चा अपने माता पिता के लिये गीली मिट्टी की तरह होता है-यह भी याद रखें कि यह केवल मनुष्य जीव के साथ ही है कि उसके बच्चे दस बारह साल तक तो पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं हो पाते और उन्हें दैहिक, बौद्धिक, तथा मानसिक रूप से कर्म करने के लिये दूसरे पर निर्भर रहना ही होता है। इसके विपरीत पशु, पक्षियों तथा अन्य जीवों में बच्चे कहीं ज्यादा जल्दी आत्मनिर्भर हो जाते हैं। यह तो प्रकृति की महिमा है कि उसने मनुष्य को यह सुविधा दी है कि वह न केवल अपने बल्कि बच्चों के जीवन को भी स्वयं संवार सके। ऐसे में माता पिता अगर लापरवाही बरतते हैं तो बच्चों में तामस प्रवृत्ति आ ही जाती है। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह व्यसन, दुराचरण तथा अभद्र भाषा की तरफ स्वाभाविक रूप ये आकर्षित होता है। अगर उसे विपरीत दिशा में जाना है तो अपनी बुद्धि को सक्रिय रखना आवश्यक है। उसी तरह बच्चों के लालन पालन में भी यह बात लागू होती है। जो माता पिता यह सोचकर बच्चों से बेपरवाह हो जाते हैं कि बड़ा होगा तो ठीक हो जायेगा। ऐसे लोग बाद में अपनी संतान के दृष्कृत्यों पर पछताते हुए अपनी किस्मत और समाज को दोष देते हैं। यह इसलिये होता है क्योंकि जब बच्चों में सात्विक या राजस पृवत्ति स्थापित करने का प्रयास नहीं होता तामस प्रवृत्तियां उसमें आ जाती हैं। बाहरी रूप से हम किसी बुरे काम के लिये इंसान को दोष देते हैं पर उसके अंदर पनपी तामसी प्रवृत्ति पर नज़र नहीं डालते। अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि रखने वालों में स्वाभाविक रूप से सात्विकता का गुण रहते हैं और उनका तेज चेहरे और व्यवहार में दिखाई देता है।
सोनाली बेंद्रे और हेमामालिनी फिल्म और टीवी के कारण जनमानस के परिदृश्य में रहती हैं और योग साधना और अध्यात्म के उनके झुकाव पर बहुत कम लोग चर्चा करते हैं। हम उनके इन गुणों की चर्चा इसलिये कर रहे हैं क्योंकि श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार श्रेष्ठ या प्रसिद्ध व्यक्त्तिवों से ही आम लोग सीखते हैं-विज्ञापनों का बढ़ता प्रभाव इसी का प्रमाण है। इसका उल्लेख हमने इसलिये भी किया कि लोग समझते हैं कि भारतीय अध्यात्म का ज्ञान बुढ़ापे में अपनाने लायक हैं जबकि यह दोनों हस्तियां आज भी युवा पीढ़ी के परिदृश्य में उपस्थित हैं और इस बात प्रमाण है कि बचपन से ही अध्यात्म ज्ञान होना जरूरी है। सोनाली बेंद्रे तो अभी युवावस्था में है और उसका अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति झुकाव आज की युवतियों के लिये एक उदाहरण है। श्रीमद्भागवत गीता को लोग केवल सन्यासियों के लिए पढ़ने योग्य समझते हैं जबकि यह विज्ञान और ज्ञान से परिपूर्ण ग्रंथ हैं जिसे एक बार कोई समझ ले तो कुछ दूसरी बात समझने को शेष नहीं  रह जाती। इससे मनुष्य चालाक होने के साथ उदार, बुद्धिमान होने के साथ सहृदय, और सहनशील होने के साथ साहसी हो जाता है। सामान्य स्थिति में इन गुणों का आपसी अंतर्द्वंद्व दिखाई देता है पर ज्ञानी उससे मुक्त हो जाते हैं।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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आतंकवाद से लड़ने के दावे-हास्य कविता और चिंत्तन लेख


आतंकवाद एक व्यापार है, और यह संभव नहीं है कि बिना पैसे लिये कोई आतंक फैलाता हो। अभी अखबार में एक खबर पढ़ी थी कि उत्तरपूर्व में केंद्र सरकार ने आर्थिक विकास के लिये जो धन दिया उसमें से कुछ आतंकी संगठनों के पास पहुंचा जिससे आतंकियों ने हथियार खरीदे। स्पष्टतः इन हथियारों का पैसा उसके निर्माताओं को मिला होगा। इस संबंध में केंद्रीय खुफिया ऐजेंसियों की जानकारी के आधार पर कुछ सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों तथा अन्य लोगों के खिलाफ़ मामला दर्ज किया गया है और यकीनन यह इस तरह के सफेदपोश लोग हैं जो कहीं न कहीं समाज में अपना चेहरा पाक साफ दिखते हैं। जब आतंक की बात आती है तो चंद मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रभावित क्षेत्रों में धर्म और धन के आधार पर शोषण का आरोप लगाते हैं पर जब विकास के धन से आतंक को सहायता मिलती है तो उस पर खामोश हो जाते हैं।
ऐसे में आतंक को रंग से पहचाने वाले बुद्धिजीवियों पर तरस आता है पर उनको भी क्या दोष दें। सभी किसी न किसी रंग से प्रायोजित हैं और उनको अपने प्रायोजकों की बज़ानी है। एक स्वतंत्र और मौलिक लेखक होने के नाते हमने तो यह अनुभव किया है कि संगठित प्रचार माध्यमों-टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो-में हमें जगह इसलिये नहीं मिल पाई क्योंकि किसी रंग ने प्रयोजित नहीं किया। हम इस पर अफसोस नहीं जता रहे बल्कि अपने जैसे स्वतंत्र लेखकों ओर पाठकों को यह समझा रहे हैं कि जब किसी आतंकवाद या उग्र आंदोलन का समर्थक कोई प्रसिद्ध बुद्धिजीवी बयान दे तो समझ लें कि वह दौलतमंदों का प्रयोजित बुत बोल रहा है। यकीनन उसे प्रयोजित करने वाला कोई ऐसा दौलतमंद ही हो सकता है जो अपने रंग की रक्षा केवल इसलिये करना चाहता है जिससे कि उसके काले धंधे चलते रहें। पहले गुस्सा आता था पर अब हंसी आती है जब आतंक या उग्रता की पहचान लिये आंदोलनों के समर्थक बुद्धिजीवी बयान देते हैंे और समझते हैं कि कोई इस बात को जानता नहीं है। एक रंग समर्थक बुद्धिजीवी उग्र बयान देता है तो उस पर अनेक बयान आने लगते हैं इस तरह आतंक के साथ ही उस पर बयान और बहस भी प्रचार का व्यापार हो गये हैं।
इस पर एक हास्य कविता लिखने का मन था पर लगा कि उसमें पूरी बात नहीं कह पायेंगे इसलिये यह गद्य भी लिखकर मन की भड़ास निकाल दी। इसका उद्देश्य यही है कि दुनियां भर के सभी शासक आतंकवाद से लड़ने का दावा करते हैं पर वह है कि बढ़ता ही जा रहा है। स्पष्टतः ऐसे में जिम्मेदार लोगों की अकुशलता, कुप्रबंधन के साथ इसमें कहीं न कहीं सहभागिता का भी शक होता है। सभी देश अपने अपने ढंग से आतंकवाद को समझ रहे हैं इसलिये लड़ कोई नहीं रहा। दावे केवल दावे लगते हैं
इस पर यह एक बेतुकी हास्य कविता प्रस्तुत है।

पोते ने दादा से कहा
‘‘बड़ा होकर मैं भी आतंकवादी बनूंगा
क्योंकि उनके साक्षात्कार टीवी पर आते हैं,
समाचारों में भी वह छाते हैं,
पूरी दुनियां में मेरा नाम छा जायेगा।
अमेरिका भी मुझसे घबड़ायेगा।’’

तब दादा ने हंसते हुए कहा
‘‘बेटा, यह क्या सपना तूने पाल लिया,
आतंकवादी सबसे बड़ा है यह कैसे मान लिया,
तू मादक द्रव्य का तस्कर बन जाना,
चाहे तो क्रिकेट पर सट्टा भी लगवाना,
मन में आये तो जुआ घर खोल देना,
अपहरण उद्योग भी बुरा नहीं है,
अपहृत के बदले भारी रकम मोल लेना,
जब ढेर सारा पैसा तेरे पास आयेगा,
तब क्या पहरेदार, क्या चोर,
आतंकवादी भी तेरे आगे सिर झुकायेगा।
बेटा, यह भी एक व्यापार है,
पर इसमें खतरे अपार हैं,
धंधा चाहे काला हो
पर दौलत होगी तो
हमेशा अपने को सफेदपोश पायेगा,
आतंकी बनकर भी रहेगा गुलाम,
हर कोई अपना रंग तुझ पर चढ़ायेगा।
टीवी पर चेहरा आने ,
या अखबार में खबर छप जाने पर
तेरे को चैन नहीं आयेगा,
मरने का डर तेरे को सतायेगा,
काम निकल जाने पर प्रायोजक ही

तेरा बैरी होकर ज़माने का नायक बन जायेगा
पहले तेरे को मरवायेगा,
या फिर इधर से उधर दौड़ाते हुए
तेरा पीछा करते अपने को दिखायेगा।
मेरी सलाह है
न तो सफेदपोश प्रयोजक बन,
न आतंकवादी होकर तन,
अपना छोटा धंधा या नौकरी करना,
चाहे तो कविता लिखना
या चित्र बनाकर उसमें रंग भरना,
दूसरे खुश हो या नहीं
तुम अपने होने का खुद करना अहसास,
दिल की खुशी का बाहर नहीं अंदर ही है वास,
ऐसा चेहरा रखना अपना
जो खुद आईने में देख सके,
दौलत, शौहरत और ताकत में
अंधे समाज को भला क्या दिखायेगा।
मुझे गर्व होगा तब भी जब
आतंकवादी की तरह प्रसिद्ध न होकर
अज्ञात श्रमजीवी की सूची में अपना नाम लिखायेगा।
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