Category Archives: अनुगूँज

महात्मा गांधी नोबल नहीं वरन् ग्लोबल थे-आलेख (mahatma gandhi and noble


नोबल पुरस्कार देने वालों ने वाकई हास्यास्पद स्थिति का निर्माण किया है। उन्होंने अमेरिका के कट्टर विरोधियों को बहुत कुछ आरोप लगाने का अवसर दिया है जो इस अवसर का खूब उपयोग कर रहे हैं। अमेरिका के कट्टर से कट्टर समर्थक भी इस विषय पर उनके सामने टिक नहीं सकता।
आमतौर से भारतीय समाचार माध्यम अप्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से पश्चिम के पुरस्कारों का गुणगान करते हैं पर इस विषय पर वह व्यंग्य कस रहे हैं। कहीं पढ़ने को मिला कि प्रत्येक वर्ष का नोबल उसी वर्ष की एक फरवरी तक के दर्ज नामों पर उसी दिन तक किये गये काम के लिये दिया जाता है। इसका आशय यह है कि उसके बाद किसी ने नोबल लायक कोई काम किया है तो उसे अगले वर्ष वह पुरस्कार दिया जा सकता है। इस आधार पर वर्ष 2009 का शांति पुरस्कार 1 फरवरी 2009 तक के कार्यों के लिये दिया जा रहा है जबकि अमेरिका के राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा ने 20 फरवरी 2009 का वहां के राष्ट्रपति पद का कार्यभार संभाला था। मतलब यह कि उन्होंने 11 दिन में ही नोबल पुरस्कार प्राप्त करने का काम कर लिया था।
अगर यह तर्क दिया जाये कि उन्होंने विश्व शांति के लिये उससे पहले काम किया गया तो वह इसलिये भी हास्यस्पद होगा क्योंकि स्वयं नोबल देने वाले मानते हैं कि उनके राष्ट्रपति पद पर किये गये कार्यों के लिये ही यह शांति पुरस्कार दिया गया है। बराक ओबामा यकीनन बहुत प्रतिभाशाली हैं और उनकी नीयत पर संदेह का कोई कारण नहीं है। उनको पुरस्कार देना नोबल समिति की किसी भावी रणनीति का हिस्सा भी हो सकती है। हो सकता है कि वह सोच रहे हैं कि विश्वभर में फैली हिंसा रोकने के लिये शायद यह एक उपाय काम कर सकता है।
हमें बाहरी मसलों से लेनादेना अधिक नहीं रखना चाहिये पर इधर लोग आधुनिक समाज में हिंसा का मंत्र स्थापित करने वाले महात्मा गांधी को नोबल पुरस्कार नहीं देने पर नाराज दिख रहे हैं। दरअसल श्री बराक ओबामा को नोबल देने पर महात्मा गांधी का नाम लेना ही कृतघ्नता है। इस दुनियां में एक बार ही परमाणु बम का प्रयोग किया गया है और उसका अपराध अमेरिका के नाम पर दर्ज है। जब पश्चिम अपनी विज्ञान की शक्ति पर हथियार बनाकर पूर्व को दबा रहा था तब उसकी बढ़त बनाने का श्रेय उन महानुभावों को जाता है जो उसका हिंसक प्रतिरोध कर रहे थे। दरअसल पश्चिमी देश तो चाहते थे कि कोई बंदूक उठाये तो हम उस पर तोप दागें। इतना ही नहीं वह विरोधी को मारकर नायक भी बन रहे थे और सभ्य होने का प्रमाण पत्र भी जुटा लेते थे। उस समय महात्मा गांधी ने अहिंसक आंदोलन चलाकर न उनको बल्कि चुनौती दी बल्कि उनको सभ्यता का मुखौटा पहने रखने के लिये बाध्य किया।
वैसे तो हमारे देश में अहिंसा का सिद्धांत बहुत पुराना है पर आधुनिक संदर्भ में जब पूरे विश्व में कथित रूप से सभ्य लोकतंत्र है-चाहे भले ही कहीं तानाशाही हो पर चुनाव का नाटक वहां भी होता है-तब महात्मा गांधी का अहिंसक आंदोलन करने वाला मंत्र बहुत काम का है। सच तो यह है कि महात्मा गांधी का नाम विश्वव्यापी हो गया है। जहां तक हमें जानकारी नोबल का अर्थ अद्वितीय होता है। इसका मतलब यह है कि जिस क्षेत्र में नोबल पुरस्कार दिया जाता है उसमें कोई दूसरा नहीं होना चाहिये। जबकि यह पुरस्कार हर वर्ष दिया जाता है। इसे देखकर कहें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि नोबल लेने के बाद भी कोई अद्वितीय नहीं हो जाता। अगले वर्ष कोई दूसरा आ जाता है। अद्वितीय कहने में एक पैंच है वह यह कि उस समय वह व्यक्ति अद्वितीय है पर आगे कोई होगा इसकी संभावना नहीं जताई जा सकती। गांधी जी के बारे में अगर हम कहें तो अहिंसा का संदेश देने में वह अद्वितीय नहीं थे क्योंकि उसके पहले भी अनेक महापुरुष ऐसा संदेश दे चुके हैं। दूसरा सच यह भी है कि ‘उन जैसा व्यक्ति दूसरा पैदा होगा इसकी संभावना भी नहीं लगती। सीधा मतलब यह है कि वह अद्वितीय थे नहीं और उन जैसा होगा नहीं। वह अलौकिक शक्ति के स्वामी थे। इस लोक के सारे पुरस्कार उनके सामने छोटे थे।
कुछ लोगों को इस बात का अफसोस है कि नोबल पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिये जाते। अगर ऐसा होता तो शायद महात्मा गांधी जी के नाम पर नोबल आ जाता। ऐसा सोच लोगो की संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है जो शायद सतही देशभक्ति भावना से से उपजा है। ऐसा सतही देशभक्ति भाव रखने वालों ने गांधी जी का सही मूल्यांकन नहीं किया है। वह अफसोस करते हैं कि मरणोपरांत नोबल नहीं दिया जाता और महात्मा गांधी को अपने हृदय में स्थान देने वाले इसे अपना भाग्य कहकर सराह रहे हैं कि उनका नाम कम से कम मरणोपरांत अपमानित होने से बच गया। यह पश्चिमी लोग उनको नोबल देकर स्वयं को ही सम्मािनत करते अगर उन्होंने ऐसा नियम नहीं बनाया होता।
गांधी जी को मानने वाले दक्षिण अफ्रीका के नेता नेल्सन मंडेला को यह पुरस्कार मिला पर उनको गांधी के समकक्ष नहीं माना जाता क्योंकि गांधी जी का कृत्य एक कौम या देश की आजादी तक ही सीमित नहीं है वरन् आधुनिक सभ्यता को एक दिशा देने से जुड़ा है। नोबल नार्वे की एक संस्था द्वारा दिया जाता है। जी हां, इस नार्वे के बारे में भी हम अखबार में पढ़ चुके हैं जो श्रीलंका में आतंकवादियों की बातचीत के लिये वहां की सरकार से बातचीत करता था। यही नहीं यही नार्वे ने भारत के नगा विद्रोही नेताओं को भी अपने यहां पनाह देता देता था। नार्वे के बारे में अधिक नहीं मालुम पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि वह अमेरिका का पिट्ठू हो सकता है और ऐसे वहां की नोबल बांटने वाली समिति कोई निर्णय अपने देश की नीतियों के प्रतिकूल लेती होगी यह संभव नहीं है।
लब्बोलुआब यह है कि नोबल कोई ऐसा पुरस्कार नहीं रहा जिसे लेकर हम अपने देश के उन महान लोगों को हल्का समझें जिनको यह नहीं मिला। सच तो यह है कि अगर आप हमसे पूछेंगे कि इस विश्व का आधुनिक महान लेखक कौन है तो हम निसंकोच अपने हिंदी लेखक प्रेमचंद का नाम ले देंगे। जार्ज बर्नाड या शेक्सिपियर को यहां पढ़ने वाले कितने लोग हैं? इस देश के लिये किसकी नीतियां अनुकूल हैं? इस प्रश्न का जवाब इस व्यंग्य में नहीं दिया जा सकता। वह अध्यात्म से जुड़ा है। याद रहे भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान न केवल व्यक्ति बल्कि समाज और राष्ट्र के संचालन के सिद्धांत भी प्रतिपादित करता है। बस, उसे समझने की जरुरत है। इन सिद्धांतों को प्रतिपादित करने वालों को नोबल कोई क्या देगा? वह सभी पहले से ही ग्लोबल (विश्व व्यापी) हैं जिनमें हमारे महात्मा गांधी एक हैं। गांधीजी के नाम पर युग चलता है कोई एक वर्ष नहीं।

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खिचड़ी खबरनामा-हिन्दी हास्य व्यंग्य (khichdi khabarnama-hindi hasya vyangya


उस क्रिकेट माडल ने टीवी वाले पत्रकारों के साथ बदतमीजी की। यह खबर भी टीवी चैनल वालों ने दी हैं। क्रिकेट माडल यानि वह खिलाड़ी जो खेलने के साथ ही विज्ञापन में भी करते हैं। अब टीवी चैनल वाले उस पर शोर मचा रहे हैं कि उसने ऐसा क्यों किया?’
अब उनका यह प्रलाप भी उस तरह प्रायोजित है जैसा कि उनके समाचार या वास्तव में ही वह दुःखी हैं, कहना कठिन हैं। एक जिज्ञासु होने के नाते समाचारों में हमारी दिलचस्पी है पर टीवी समाचार चैनल वाले समाचार दिखाते ही कहां हैं?
इस मामले में उन पर उंगली भी कोई नहीं उठाता। कहते हैं कि हमारा चैनल समाचारों के लिये बना है। टी.आर.पी रैटिंग में अपने नंबरों के उनके दावे भी होते हैं। इस पर आपत्ति भी नहीं की जानी चाहिये पर मुद्दा यह है कि उनको यह सम्मान समाचार के लिये नहीं बल्कि मनोंरजन के लिये मिलता है ऐसे में जो चैनल केवल समाचार देते हैं उनका हक मारा जाता है। सच तो यह है कि अनेक समाचार चैनल तो केवल मनोरंजन ही परोस रहे हैं पर अपनी रेटिंग के लिये वह समाचार चैनल की पदवी ओढ़े रहते है। अगर ईमानदारी से ऐसे मनोरंजन समाचार चैनल का सही आंकलन किया जाये तो उनको पूर्णतः समाचार और मनोरंजन चैनलों के मुकाबले कोई स्थान ही नहीं मिल सकता। अलबत्ता यह खिचड़ी चैनल है और उनके लिये कोई अलग से रैटिंग की व्यवस्था होना चाहिए।
जिस क्रिकेट माडल ने उनको फटकारा वह खिचड़ी चैनलों के चहेतोें में एक है। अपने इन मनोरंजक समाचार चैनलों के पास फिल्मी अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और क्रिकेट खिलाड़ियों के जन्म दिनों का पूरा चिट्ठा है। जिसका वह रोज उपयोग करते हैं। उस दिन जन्म दिन वाला फिल्मी और क्रिकेट माडल तो संभवतः इतना बिजी रहता होगा कि वह शायद ही उनके प्रसारण देख पाता हो। इससे भी मन नहीं भरता तो प्रायोजित इश्क भी करवा देते हैं-समाचार देखकर तो यही लगता है कि कभी किसी अभिनेत्री को क्रिकेट खिलाड़ी से तो कभी अभिनेता से इश्क करवाकर उसका समाचार चटखारे लेकर सुनाते हैं।
यह मनोरंजक समाचार चैनल जो खिचड़ी प्रस्तुत करते हैं वह प्रायोजित लगती है। अब भले ही उस क्रिकेट माडल ने टीवी पत्रकार को फटकारा हो पर उसका प्रतिकार करने की क्षमता किसी में नहीं है। वजह टीवी चैनल और क्रिकेट माडल के एक और दो नंबर के प्रायोजक एक ही हैं। अगर चैनल वाले गुस्से में उसे दिखाना बंद कर दें या उसकी खिचड़ी लीलाओं-क्रिकेट से अलग की क्रियाओं- का बहिष्कार करें तो प्रायोजक नाराज होगा कि तुम हमारे माडल को नहीं दिखा रहे काहे का विज्ञापन? उसका प्रचार करो ताकि उसके द्वारा अभिनीत विज्ञापन फिल्मों के हमारे उत्पाद बाजार में बिक सकें।
खिलाड़ी स्वयं भी नाराज हो सकता है कि जब मेरी खिचड़ी गतिविधियों-इश्क और जन्मदिन कार्यक्रम- का प्रसारण नहीं कर रहे तो काहे का साक्षात्कार? कहीं उसके संगी साथी ही अपने साथी के बहिष्कार का प्रतिकार उसी रूप में करने लगे तो बस हो गया खिचड़ी चैनलों का काम? साठ मिनट में से पचास मिनट तक का समय इन अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और क्रिकेट खिलाड़ियों की खिचड़ी गतिविधियों के कारण ही इन चैनलों का समय पास होता है। अगर आप इन चैनल वालों से कहें कि इस तरह के समाचार क्यों दे रहे हैं तो यही कहेंगे कि ‘दर्शक ऐसा हीं चाहते हैं’। अब इनसे कौन कहे कि ‘तो ठीक है तो अपने आपको समाचार की बजाय मनोरंजन चैनल के रूप में पंजीकृत क्यों नहीं कराते।’
हो सकता है कि यह कहें कि इससे उनको दर्शक कम मिलेंगे क्योंकि अधिकतर समाचार जिज्ञासु फिर धोखे में नहीं फंसेंगे न! मगर इनके कहने का कोई मतलब नहीं है क्योकि सभी जानते हैं कि यह चैनल दर्शकों की कम अपने प्रायोजकों को की अधिक सोचते हैं। यह उनका मुकाबला यूं भी नहीं कर सकते क्योंकि जो इनके सामने जाकर अपमानित होते हैं वह पत्रकार सामान्य होते हैं। उनमें इतना माद्दा नहीं होता कि वह इनका प्रतिकार करें। उनके प्रबंधक तो उनके अपमान की चिंता करने से रहे क्योंकि उनको अपने प्रायोजक स्वामियों का पता है जो कि इन फिल्म और खेलों के माडलों के भी स्वामी है।
वैसे आजकल तो फिल्म वाले क्रिकेट पर भी हावी होते जा रहे हैं। पहले फिल्म अभिनेत्रियां अपने प्रचार के लिये कोई क्रिकेट खिलाड़ी से इश्क का नाटक रचती थीं पर वह तो अब टीम ही खरीदने लगी हैं जिसमें एक नहीं चैदह खिलाड़ी होते हैं और उनकी मालकिन होने से प्रचार वैसे ही मिल जाता है। क्रिकेट, फिल्म और समाचार की यह खिचड़ी रूपरेखा केवल आम आदमी से पैसा वसूलने के लिये बनी हैं।
क्रिकेट खिलाड़ी और फिल्म अभिनेता अभिनेत्रियां करोड़ों रुपये कमा रहे हैं और उसका अहंकार उनमें आना स्वाभाविक है। उनके सामने दो लाख या तीन लाख माहवार कमाने वाले पत्रकार की भी कोई हैसियत नहीं है ओर फिर उनको यह भी पता है कि अगर इन छोटे पत्रकारों को फटकार दिया तो क्या बिगड़ने वाला है? उनके प्रबंधक भी तो उसी प्रायोजित धनसागर में पानी भरते हैं जहां से हम पीते हैं।
इधर हम सुनते आ रहे हैं कि विदेशों में एक चैनल के संवाददाता ने अपनी सनसनी खेज खबरों के लिये अनेक हत्यायें करा दी। हमारे देश में ऐसा हादसा होना संभव नहीं है पर समाचारों की खिचड़ी पकाने के लिये चालबाजियां संभव हैं क्योंकि उनमें कोई अपराधिक कृत्य नहीं होता। इसलिये लगता है जब कोई खेल या फिल्म की खबर नहीं जम रही हो तो यह संभव है कि किसी प्रायोजक या उसके प्रबंधक से कहलाकर फिल्मी और क्रिकेट माडल से ऐसा व्यवहार कराया जाये जिससे सनसनी फैले। हमारे देश के संचार माध्यमों के कार्यकर्ता पश्चिम की राह पर ही चलते हैं और यह खिचड़ी पकाई गयी कि फिक्स की गयी पता नहीं।
अब यह तो विश्वास की बात हो गयी। वैसे अधिकतर टीवी पत्रकार आम मध्यमवर्गीय होते हैं उनके लिये यह संभव नहीं है कि स्वयं ऐसी योजनायें बनाकर उस पर अमल करें अलबता उनके पीछे जो घाघ लोग हैं उनके लिये ऐसी योजनायें बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है। यही कारण है कि खिचड़ी समाचार ही पूर्ण समाचार का दर्जा पाता है।
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मन के रोग का इलाज तो मन ही में है-आलेख



आयु में वह मुझसे चार वर्ष बड़ा है पर फिर भी उसकी मेरे से मित्रता बरसों पुरानी है। वह आर्केस्टा चलाता है। मैं कई बार विद्यालयों, महाविद्यालयों और सार्वजनिक स्थानों पर उसका कार्यक्रम सुन चुका हूं। उसने कभी मुझे स्वयं इस तरह के कार्यक्रमों में आमंत्रण नहीं दिया क्योंकि उसकी और मेरी मित्रता ऐसी भी नहीं रही। वह जब कहीं मिलता है तो उससे बड़ी आत्मीयता से बातचीत हेाती हैं। इस तरह मेरे चार मित्र हैं जो रास्ते पर मिलते हैं और आत्मीय रूप से बातचीत कर अलग हो जाते हैं। यह आर्केस्ट्रा चलाने वाला मेरा मित्र कैसे बना यह तो मै भी नहीं जानता। हां, इतना याद है कि कुछ वर्ष पहले मैं अपनी एक रचना देने अखबार में गया तो वह वहीं काम से खड़ा था तब उसकी और मेरी बातचीत शुरू हुई। बाद में तो वह उस अखबार के दफ्तर में भी आता रहा जहां मैं काम करता था।

एक हिंदी फिल्म का गाना है। शायद पड़ौसन का! इक चतुर नार, बड़ी होशियार………………..उस गाने को वह जिस तरह मंत्रमुग्ध ढंग से गाता है वह मन को छू लेता है। वह जब भी कहीं जाता है लोग इस गाने की फरमाइश अवश्य करते है।

उस दिन रास्ते चलते हुए उससे मुलाकात हुई। मुझसे कहने लगा-‘यार आजकल तो ऐसा लगता है कि अधिकतर लोगों को साइकिटिस (मनोचिकित्सक)की आवश्यकता हैं। आजकल लोग क्या बात करते हैं समझ में नहीं आता।’
मनोचिकित्सक शब्द से मैं सतर्क हो गया। मैने उससे पूछा-‘क्या हुंआ।’
वह बताने लगा कि-‘ ‘‘मैं अभी एक आदमी के घर उसके लड़के की शिकायत लेकर गया था। वह मेरे भाई से बेकार में लड़ता रहता है तो वह कहने लगा कि बचपन में उसके लड़के को सिर पर चोट लगी थी तो उसके दिमाग में खराबी पैदा हो गयी थी। अब बताओं भला ऐसा कहीं होता है। अच्छी तरह खाता पीता है, बात करता है। भला ऐसा कहीं ऐसा होता है’’?’
मैंने कहा-‘‘पर उसने जब स्वयं कहा है तो होगा? वह अपने लड़के की इस कमजोरी को स्वयं ही मान रहा है क्या यही कम है।’
उसने कहा-‘‘हां यह बात तो सही है। उस आदमी ने बरसों से स्कूटर तक नहीं चलाया। शायद यही वजह रही होगी, पर मैं उसे अकेले की बात नहीं कर रहा। ऐसा लगता है कि मांबाइल, कंप्यूटर और तथा अन्य आधुनिक साधनों के उपयोग से अधिकतर लोग कही मानसिक रोगों का शिकार तो नहीं हो रहे।’

मैंने हंसते हुए कहा-‘आप तो जानते हो कि किसी अन्य व्यक्ति को मनोरोगी बताकर मैं अपने को मनोरोगी घोषित नहीं करना चाहतां।’
वह जोर से हंसा-‘अच्छा! याद आया! वही जो तुमने मानसिक चिकित्सालय के बोर्ड पर लिखी बातों का जिक्र किया था। हां, मैं भी सोचता हूं कि इस तरह दूसरों को मनोरोगी मानना छोड़ दूं।’

मेरा एक अन्य लेखक मित्र है और वह एक दिन मनोचिकित्सालय गया था। वहां उसने एक बोर्ड पढा, जिस पर दस प्रश्न लिखे थे। साथ ही यहा भी लिखा था कि अगर इन प्रश्नों का उत्तर ‘हां’ है तो आपको मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता है। मुझे वह सभी प्रश्न याद नहीं है पर जितने याद हैं उतने लिख देता हूं। उस लेखक मित्र की बेटी ने उसे ब्लाग तो बना दिया है पर उसने अभी उस पर मेरे कहने के बावजूद लिखना शुरू नहीं किया। जब वह लिखेगा तो उससे कहूंगा कि वह दस के दस प्रश्न वैसे ही लिख दे। उनमें से जो प्रश्न मुझे याद हैं वह नीचे लिख देता हूं।

1.क्या आपको लगता है कि आप सबसे अच्छा व्यवहार करते हैं पर बाकी सबका व्यवहार खराब है।
2.क्या आपको लगता है कि आप हमेशा सही सोचते हैं बाकी लोग गलत सोचते है।
3.क्या आपको लगता है कि आप दूसरों की सफलता देखकर खुश होते हैं और बाकी लोग आपकी सफलता या उपलब्धि से जलते है।
4. आप दूसरों का भला करते हैं पर सभी लोग आपका बुरा करने पर आमादा होते है।
5. क्या आपको लगता है कि आपकी नीयत अच्छी है अन्य सभी लोगों की खराब है।
6.आप सबसे अच्छा काम करते हैं पर उसकी कोई सराहना नहीं करता जबकि दूसरों के खराब काम को भी आप सराहते है।

मैने जब अपने मित्र की बात सुनी तबसे अपने आपको यह यकीन दिलाने का प्रयास करता हूं कि मैं मनोरोगी नहीं हूं। कई बार जब तनाव के पल आते है तब मैं सोचता हूं कि कहीं मैं मनोरोगी तो नहीं हूं तक यह प्रश्न अपने मन में दोहरात हूं साथ ही यह उत्तर भी कि नहीं। ताकि मुझे यह न लगे कि मै मनोरोग का शिकार हो रहा हूं।
अगर मैं कहीं ने लौटता हूं और मुझसे कोई पूछता है कि‘आपके साथ वहां कैसा व्यवहार हुआ?’
बुरा भी हुआ हो तो मैं कहता हूं कि‘अच्छा हुआ’
कोई पूछे-‘अमुक व्यक्ति कैसा है?’
मैं कहता हूं-‘ठीक है?’
अंतर्जाल पर कोई बात लिखते हुए कई बार यह स्पष्ट लिख देता हूं कि मैं कोई सिद्ध या ज्ञानी नहीं हूं जो मेरे विचार में परिवर्तन की संभावना न हो। इसके साथ ही यह भी बता देता हूं कि अपने लिखे का अच्छे या बुरे न होने का भार मै अपने मस्तिष्क पर नहीं डालता।
दूसरो का लिखा अगर समझ में न आये या अच्छा न लगे तब भी वहां नहीं लिखता कि यह ठीक नहीं है। सोचता हूं कि मुझे मुझे ठीक नहीं लगा तो क्या दूसरों को अच्छा लग सकता है। अगर किसी जगह प्रतिवाद स्वरूप टिप्पणी लिखनी तो जरूर लिखता हूं कि भई, आपके विचार पर मेरा यह विचार है परं और उससे पहले भी सोच लेता हूं कि वह बात इन प्रश्नों के दायरे ने बाहर है कि नहीं। प्रशंसा करना मनोरोग के दायरे में नहीं आता है पर आलोचना कहीं मनोरोग के प्रश्नों के दायरे में तो नहीं यह अवश्य देख लेता हूं।’

वैसे दूसरे क्या सोचते हैं यह अलग बात है। हां, अपने अंदर जरूर आजकल देखना चाहिए कि कहीं हम मनोरोग का शिकार तो नहीं हो रहे। हम जिस तरह विद्युतीय प्रवाह से चुंबकीय प्रभाव उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का उपयोग कर रहे हैं उसको देखकर मुझे लगता है कि हमारे अंदर मनोरोगों का होना कोई बड़ी बात नहीं है। मैं डरा नहीं रहा हूं। हो सकता है कि शुरू में आप डर जायें पर एक बात याद रखें कि मनोरोगों की दवा भी मन में ही है और जब आप जान जायेंगे कि आप में उसका कोई अंश है तो बिना बताये अपना इलाज भी शुरू कर देंगे। जैसे मैंने अपने मित्र की बात सुनकर तय किया कि अब अपने मुख से अपनी प्रशंसा नहीं करूंगा और कोई करे तो उस पर नाचूंगा नहीं। किसी को अपने से कमतर नहीं बताऊंगा । अपनी वस्तु या पाठ को दूसरे के पाठ से श्रेष्ठ बताने का प्रयास से स्वयं परे रहूंगा। मन का इलाज मन से करने का प्रयास किया है अब सफल हुआ कि नहीं यह मुझे भी पता नहीं।

अंधेरे मे तीर चलाना ही उनका काम है-चार क्षणिकाएं


हादसों की खबर से अब
शहर सिहरता नहीं
अपने दर्द इतने भर लिये इंसानं ने
कि किसी अन्य की लाश  से हमदर्दी
जताने के लिये निकलता नहीं
कुछ लोग गिरा देते हैं लाशें
शायद कोई उनको देखकर चैंक जाये
जानते नहीं कि
कोई दूसरे को देखेगा तो तब
अब अपने से आगे देखने की
रौशनी और चाहत होगी
किसी की आंखों  में
अपने सामने कत्ल होते देखकर भी
आदमी अब सिहरता  नहीं
………………………..

शांति की बात सियारों से नहीं होती
पीठ पीछे वार करने वालों से
कभी वफादारी की उम्मीद नहीं होती
जो यकीन करते हैं उन पर
मुसीबत में किसी की भी
उनसे हमदर्दी नहीं होती
…………………

जख्म बांटना ही उनका काम है
इसलिये ही तो उनका नाम है
खंजर लेकर घूमने वालों से दोस्ती की
ख्वाहिश करते हैं कायर
क्योंकि घुटने टेकना ही रोज उनका काम है
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आग लगाना उनका काम है
मिलते उनको दाम है
कौन देता है कीमत
कौन खरीदता है लाशें
रौशनी जितनी तेज है इस शहर में
अंधेरे का राज है उतना ही गहरा
सच तो सब जानते हैं
पर अंधेरे मे तीर चलाना ही उनका काम है
………………………….

मै अखबार आज भी क्यों पढ़ता हूं-हास्य व्यंग्य


          मैने अखबार पढ़ना बचपन से ही शुरू किया क्योंकि मोहल्ले का वाचनालय हमारे किराये के घर के पास में ही था। धीरे-धीरे इसकी ऐसी आदत हो गयी कि जब हमने मकान बदले तो भी मैं सुबह वाचनालय अखबार पढ़ने जरूर जाता और धीरे-धीरे शहर बढ़ने के साथ  थोड़ी दूर एक कालोनी में आया और वहां कोई वाचनालय नहीं होने के कारण अखबार मंगवाना शुरू किया।

इधर इलैक्ट्रोनिक मीडिया के तेजी से बढ़ने के साथ ही डिस्क कनेक्शन भी लग गया और एक लायब्रेरी भी पास में खुल गयी जहां मैं अपने घर आने वाले अखबार के अलावा अन्य अखबार वहां कभी कभी पढ़ लेता हूं। कई बार सोचता हूं कि अखबार बंद कर दूं पर श्रीमतीजी उसे बड़ी रुचि के साथ पढ़ती हैं और वही हमें बतातीं हैं कि आज अमुक जगह आपको शवयात्रा या उठावनी में जाना है।

सुबह जब मैं अपने घर के बाहर पेड़ के नीचे योगसाधना करता हूं  तब अखबार वाला फैंक कर चला जाता है और उस समय वह कई बार मेरे ऊपर आकर गिरता है। खासतौर से जब उष्टासन या सर्वांगासन के समय वह आकर गिरता है तब अगर श्रीमतीजी वहां  होती है तो जोर-जोर से  हंसती हैं।

कई बार देर होने की वजह से अखबार नहीं पढ़ पाता तो श्रीमती जी मोबाइल पर सूचना देतीं हैं ‘आपने आप अखबार नहीं पढ़ा आज उठावनी पर जाना है‘ या ‘आज आप जल्दी निकल गये उधर शवयात्रा पर जाना है’। शहर से बाहर होने के बावजूद आप अपने लोगों से कट नहीं सकते। किसी कि शादी में आप जायें या नहीं या कोई आपको बुलाये या नहीं पर गमी में आपको जाना ही चाहिये और इसी कारण इसकी सूचना कहीं न कहीं से होना जरूरी है। कई बार निकट व्यक्ति होने के कारण सूचना फोन पर आ जाती है, पर अगर थोड़ा दूर का हो तो उस फिर उसके लिये अखबार एक मददगार साबित होता है।

कई बार ऐसे अवसरों पर दूसरे शहर भी जाना पड़ता है। उस समय उस शहर में बस स्टेंड या रेल्वे स्टेशन पर ही अखबार खरीद लेता हूं जिससे पता चल जाता है कि उठावनी कहां है। कई बार तो  ऐसा भी हुआ है कि जिनके घर हम जा रहे हैं उनका पता हमें इसीलिये नहीं होता क्योंकि पहले कभी उनके घर गये नहीं हैं या उसकी आवश्यकता नहीं अनुभव की। तब ऐसे ही अखबार से पता लिया है। एक बार तो हम छहः लोग एक साथ एक दूसरे शहर उठावनी में शामिल होने जा रहे थे पर किसी के पास पता नहीं था। तब मैंने ही अखबार का आईडिया सुझाया और मेरा अनुमान सही निकला।  हम समय पर वहां पहुंच गये और वहां किसी को नहीं बताया कि अखबार से पता निकाल कर लायें हैं वरना कोई सुनता तो क्या कहता कि निकटस्थ लोग होकर इनको घर का पता तक नहीं मालुम था। वह समय यह सफाई देने का नहीं होता कि जिसके यहां आये हैं वह हमारे पास कई बार आये पर हम उनके यहां पहली बार आये हैं।

एक बार तो हम एक शोक कार्यक्रम में शामिल होने गये तो जिस व्यक्ति के यहां जा रहे थे उसके घर पर न होने की पक्की संभावना थी क्योंकि उनके पिता का देहांत हुआ था और वह उनसे अलग रहते थे। हम पांच लोग थे और इस बात को लेकर चिंतित थे कि कैसे वहां पहुंचेगे। मैने बस से उतरते ही अखबार खरीद लिया और फिर हमारी समस्या हल हो गयी।

हालांकि अखबार में कई दिलचस्प खबरे आतीं हैं और वह हमारे जीवन को अभिन्न अंग है पर समय के साथ कुछ ऐसा हो गया है कि उसमें दिलचस्पी तभी होती है जब समय होता है पर फिर भी ऐसे अवसरों पर अखबारों की सहायता मिलती है जो उनके प्रकाशन का उद्देश्य बिल्कुल नहीं होता।  हालांकि आजकल अखबार इतने सस्ते हैं कि उसका व्यय तो कही गिना भी नहीं जाता पर फिर भी कभी आदमी सोचता है कि क्या फायदा? कहा जाता है कि किसी की शादी में भले मत जाओ पर गमी में जरूर जाना चाहिए। शहरों के बढ़ने के साथ आधुनिक साधन भी आये हैं पर आदमी की सोच और विचार का दायदा सिकुड़ रहा है। कई बार लोग ऐसे अवसरों सूचना नहीं देते या आवश्यकता नहीं अनुभव नहीं करते पर वहां अपना पहुंचना जरूरी होता है तब अखबारों की सहायता मिल जाती है। इसलिये आज भी अखबार पढ़ता हूं तो केवल इसलिये ताकि अन्य सूचनाओं के साथ ऐसी सूचनाएं भी मिलतीं रहें जिससे समाज से सतत संपर्क में रहा जा सके। अन्य सूचनाएं भी मिल जाती है जो महत्वपूर्ण होती हैं और अपने लिखने के साथ जानकारी बढ़ाने के काम भी आतीं हैं।