वृंदावन के कृष्ण और अयोध्या के राम भारतीय अध्यात्म दर्शन और धर्म के ऐसे स्तंभ है जिनको उन बड़े बड़े संतों ने भी माना है जो अपनी भक्ति और तपस्या से जनमानस में भगवत् स्वरूप माने जाते हैं। महाकवि तुलसीदास, संत प्रवर कबीरदास, कविवर रहीम, तपस्विनी मीरा तथा अन्य अनेक महापुरुषों ने अपने जीवन चरित्र से भारतीय जनमानस में भगवत्रूप की स्थिति प्राप्त की और इन सभी ने भगवान श्रीकृष्ण और राम के चरित्रों को अपने मन में स्थान दिया। स्पष्ष्टतः इन दोनों के बिना भारतीय अध्यात्म ज्ञान तथा जनमानस की भक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती।
भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण का समूचा जीवन ही लीलामय झांकी प्रस्तुत करता है और जैसे कि हम जानते हैं कि यह समूचा जीवन अनेक रंगों से व्याप्त है। यही कारण है कि हर इंसान के जीवन चरित्र में विविध रूप स्वयमेव नज़र आते हैं ऐसे में शरीर धारण करने वाले अवतारी पुरुष भी सभी रंगों में दृष्टिगोचर होते है। चूंकि भगवान श्री राम तथा श्रीकृष्ण भगवान के मानव स्वरूप अवतार माने जाते हैं इसलिये उनका जीवन भी इसी तरह बीता। सृष्टि के नियमों के अनुसार उन्होंने अपना बाल्यकाल, युवावस्था तथा अधेड़ावस्था में बिताया इसलिये उनके विभिन्न स्वरूप निर्मित हुए। दोनों महान योगी थे। उनके संदेश आज भी स्वाभाविक इसलिये लगते हैं कि प्रकृति और उसके जीवन के स्वरूप में बदलाव आता है पर मौलिक स्वभाव कभी नहीं बदलता। यही कारण है कि आज भी उनका चरित्र स्वाभाविक लगता है पर विविधता के कारण सभी अपने मन के अनुसार स्वरूप स्मरण करने के लिये चुनते हैं ।
अगर सहजता के साथ दोनों या किसी एक के भी स्वरूप में अपने ध्यान के साथ भक्ति की जाये तो शक्ति प्राप्त होती है मगर मुश्किल यह है कि सामान्य जन सकाम भक्ति में लीन होना पसंद करते हैं या फिर उनके चरित्र की चर्चा को ही सत्संग समझ लेते हैं और यहीं से शुरु होता है संतों और धर्मगुरुओं का उपदेश देने का सिलसिला जो अंततः पेशा बन जाता है। उसके बाद भी ऐसे लोग बहुत से हैं जो धर्म की आड़ में अपना लक्ष्य पाना चाहते हैं ताकि उनकी लोकप्रियता का नकदी में रूप में परिवर्तन किया जा सके। यही कारण है कि जब भारत के बाहर भारतीय अध्यात्म अनुसंधान का विषय बन रहा है वहीं यहां उनके जन्मस्थान तक ही लोगों का मन सीमित रखने का प्रयास हो रहा है। वर्तमान में भारतीय जनमानस अखबार, टीवी, इंटरनेट तथा रेडियो तक सीमित हो गया है और धर्म के आधार पर प्रचार पाने वाले यही सक्रियता अधिक दिखाते हैं। इससे सामान्य जनमानस प्रभावित भी होता है। कितना प्रभावित होता है यह भी अब विश्लेषण का विषय है।
इस समय अयोध्या की रामजन्म भूमि फिर चर्चा में है क्योंकि उसके विवाद का निर्णय संभवत आने वाला है। इसका बकायदा प्रचार हो रहा है। प्रचारकों को प्रसिद्धि मिल रही है तो व्यवसायिक प्रचार माध्यमों का समय पास हो रहा है जो अंततः विज्ञापन के सहारे ही व्यतीत होता है।
एक प्रश्न अक्सर लोग कहते हैं कि धर्म के आधार पर हिन्दू एक क्यों नहीं होते? कुछ लोग झुंझलाते हैं कि अन्य धर्म के लोग अपने इष्ट के नाम पर एक हो जाते हैं पर हिन्दू समाज हमेशा ही बिखरा रहता है। कुछ विद्वान तो हिन्दू समाज के बंटवारे का कारण अधिक देवताओं की उपासना करना बताते हैं तो कुछ समाज को स्वार्थों में लिप्त होकर रहने का दोष देते हैं। ऐसा लगता है कि ऐसे लोग अन्य समाजों की अंदरूनी स्थिति को नहीं जानते और उनके मुकाबले अपने समाज को कमतर होने का उनको अफसोस होता है। ऐसे विद्वानों को गीता अवश्य पढ़नी चाहिए जिसमें ज्ञान के साथ विज्ञान की सामग्री भी अंतर्निहित है। श्रीमद्भागवत गीता में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि भक्त चार प्रकार के होते हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी।
आर्ती भक्त वह होते हैं जो विपत्ति आने पर भगवान की दरबार में पहुंचते हैं। अर्थार्थी वह होते हैं जो अपनी मनोकामना पूर्ण होती रहे इस उद्देश्य से जाते हैं। जिज्ञासु भक्त वह हैं जो यह देखने के लिये जाते हैं कि वहां जाने से उन पर क्या प्रभाव होता है। सबसे ऊंचे ज्ञानी है जो निष्काम भाव से मंदिर यह सोचकर जाते हैं कि वहां जाने से ध्यान का लाभ होगा जिनसे उनमें मानसिक शुद्धि आयेगी। समाज को किसी एक इष्ट के नाम एक रखने के प्रयास करने और सफल न होने पर झुंझलाने वाले इस तरह का ज्ञान नहीं रखते।
अब करते हैं भारतीय समाज की बात! यहां श्रीमद्भागवत गीता के संदेश हर आदमी जानता है। उसे यह भी मालुम है कि धर्म के नाम पर पाखंड यहां खूब होता है। राम जन्म भूमि के समय समाज में जोरदार एकता आयी थी पर कालांतर में उसका प्रभाव कम हो गया। इसका कारण यह रहा कि उस समय लोगों के पास यह एक ऐसा विषय था जो ज्वलंत था और धर्म से संबंधित अन्य कोई विषय उनके उनके पास मन लगाने के लिये नहीं था। फिर अब ऐसा क्या हो गया कि समाज अब उदासीन हो गया? यहां लोग धर्म के नाम पर कोई न कोई चर्चा चाहते हैें फिर राम जो सभी के हृदय के नायक हैं उनकी जन्मभूमि के नाम पर क्यों उत्तेजित नहीं हो रहे। इसका कारण यह है कि अब बाबा रामदेव ने योग का जो परचम पूरे विश्व में फहराया है उसने भारतीय जनमानस में भी गहरी पैठ बना ली है। कम से कम जिज्ञासु और ज्ञानी भक्तों के के दिमाग में यह बात आ गयी है कि भगवान राम और श्री कृष्ण हमारे अध्यात्मिक दर्शन का आधार है पर उसके साथ ही उनकी लीलाऐं और संदेश भी बहुत महत्वपूर्ण है। पूर्वकाल में रामजन्मभूमि आंदोलन के समय प्रचार माध्यम इतने सशक्त और व्यापक नहीं थे जितने अब दिखाई देते हैं। उस समय दिल्ली दूरदर्शन के अलावा अन्य कोई साधन नहंी था और अब तो टीवी चैनलों की संख्या तीन सौ से ऊपर ही होगी ऐसा लगता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोगों की भावनाओं का दोहन अब एक तरीके से नहीं किया जा सकता और न ही किसी पुराने विषय को फिर वैसे ही संवेदनशील बनाया जा सकता है।
इधर भारतीय योग दर्शन तथा श्रीगीता के संदेश की वैश्विक स्तर पर चर्चा और अनुसंधान का विषय बन बन गया है है। इससे यह बात तो स्थापित हो ही गयी है कि हमार अध्यात्म भले ही एक इष्ट पर निर्भर नहीं है पर बहुत सारे उसके स्वरूप का निराकार चरित्र का प्रतिबिंब हैं। निष्काम और सकाम भक्ति का स्वरूप अब स्पष्ट होता जा रहा है। मूर्तिपूजा करना और निरंकार का ध्यान करना अलग विधियां हैं पर दोनों का लक्ष्य एक ही है कि सर्वशक्तिमान का स्मरण कर अपने मन और विचारों को शुरु और पवित्र बनाना। अतः दोनों प्रकार के भक्तों में आपसी विरोध नहीं होता। यह अलग बात है कि सकाम भक्त निष्काम भक्तों को नास्तिक या अल्प आस्थावान समझते हैं पर ज्ञानी लोग इस तथ्य को जानते हुए चुप्पी साध लेते हैं ।
आखरी बात यह कि भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम इस धरती पर पैदा हुए तो समाज कल्याण का काम किया। ऐसा करते हुए उन्होंने अपने और पराये क्षेत्र का विचार नहीं किया। सारे संसार को अपना घर और समस्त प्रजाजनों को अपने से रक्षित माना। दोनों ने अपने महत्वपूर्ण काम अपने जन्म स्थान से परे होकर किये। श्रीकृष्ण तो वृंदावन से दूर होकर द्वारका में बसे और फिर आतिताइयों का नाश किया। एक बार वृंदावन से निकले तो फिर लौटे ही नहंीं। जिन गोपियों के साथ रासलीला करते थे वह उनकी प्रतीक्षा ही करती रहीं। जिस कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण जी ने गीता संदेश देकर अपना सवौच्च लक्ष्य पूरा किया वह भी उनके जन्मस्थान से बहुत दूर था। भगवान श्रीराम ने एक भी राक्षस का संहार अयोध्या में नहीं किया। सीधी बात यह है कि उन्होंने जन्मभूमि से अधिक पूरी धरती को अपनी कर्मभूमि मानकर कार्य किया। वैसे भी कहा जाता है कि आदमी को प्रतिष्ठा घर से बाहर काम करने पर ही मिलती है। यही कारण है कि इन दोनों के भक्त पूरे विश्व में हैं और कई तो ऐसे हैं कि जिनकी रुचि दोनों में होने के बावजूद उनकी जन्मभूमियों नहीं है। ऐसे में उन भक्तों को उदासीन यह कायर कतई नहीं कहा जा सकता। अगर कोई ऐसा कहता तो यकीनन वह भक्तों की भावनाओं का दोहन न होने के कारण ऐसा कह रहा है। रामजन्मभूमि का निर्णय अब अदालत में होना है। ऐसे में भी अनेक ऐसे लोग हैं जिनकी उनमें रुचि जिज्ञासा के कारण है न कि आस्था के कारण। मुश्किल यह भी है कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिये वही अपनी सुविधा के अनुसार ऐसे विवादों को न केवल पैदा करते हैं बल्कि निरपेक्ष दिखते हुए भी एक पक्ष की तरफ झुकते नज़र आते हैं। ऐसे में आम जनमानस की कोई बड़ी भूमिका नहीं दिखती और उसकी खामोशी को तटस्थता समझा जाये या उदासीनता यह विश्लेषकों के चिंतन का विषय हो सकता है।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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टिप्पणियाँ
deepak ji aaj ka hindu hi hindu hone ka matlab nhi janta. ayodhya m jo ho rha h vo isi ka praman h.
aaj hindu bante hue h. koi kisi ki to koi kisi ki pooja karta h. yadi hum sb us sarvshaktiman parampita ka ghyan kare to hi kuch sambhav h………………