सिक्कों के पहाड़ पर ही
उम्मीदों की बस्ती बसी दिखती है,
पर वह तो धातु से बने हैं
जिनकी ताकत कितनी भी हो
सच पर खरे नहीं उतरते
बैठे हैं वहां तंगदिल लोग
अपने घर बसाकर
जिनकी कलम वहां रखी हर पाई
बस, अपने ही खाते में लिखती है।
———-
नाव के तारणहार खुद नहीं
उस पर चढ़े हैं,
क्योंकि दिल उनके छोटे
नीयत में ख्याल खोटे
पर उनके चरण बड़े हैं।
उड़ने के लिये उन्होंने
विमान जुटा लिये हैं
गरीब की कमाई के सिक्के
अमीर बनाने में लुटा दिये हैं
नदिया में डूब जाये नाव तो
हमदर्दी बेचने के लिये भी वह खड़े हैं
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका