मनुष्य बनाने की जरुरत-चिंतन आलेख (charitra aur manushya-chintan alekh)


ऐसा नहीं लगता कि निकट भविष्य में जाति पाति, धर्म, भाषा, और क्षेत्र के आधार पर बने समूहों के आपसी विवाद कोई थम जायेंगें। सच बात तो यह है कि पहले की अपेक्षा यह विवाद बढे़ हैं और इसमें कमी की आशा करना ही व्यर्थ है। समस्या यह है कि लोग देश, समाज, और शहर बनाने की बात तो करते हैं पर व्यक्ति निर्माण की बात कोई नहीं करता। बहसों में इस बात पर चर्चा अधिक होती है कि समाज कैसा है? इस प्रश्न से सभी लोग भागते हैं कि व्यक्ति कैसे हैं?
इन विवादों की जड़ में व्यक्ति के अंदर स्थित असुरक्षा की भावना है जो न चाहते हुए भी अपने समाज का हर विषय पर अंध समर्थन करने को बाध्य करती है। कई बार तो ऐसा होता है कि व्यक्ति सच जानते हुए भी- कि उसके संचालक प्रमुख केवल दिखावे के लिये समूह का हितैषी होने का दावा करते है जिसमें उनका स्वयं का स्वार्थ होता है-अपने समूह का समर्थन करता है। आजादी से पहले या बाद में जानबूझकर समूह बने रहने दिये गये ताकि उनके प्रमुख आपस में मिलकर अपने सदस्यों पर नियंत्रण कर अपना काम चलाते रहें। देश की हालत ऐसी बना दी गयी है कि हर आदमी अपने को असुरक्षित अनुभव करने लगा है और बाध्य होकर विपत्तिकाल में अपने समूह से सहयोग की आशा में उसके प्रमुख के नियंत्रणों को मान लेता है। आधुनिक शिक्षा ने जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र की भावना को समाप्त करने की बजाय बढ़ाया है। पहले अशिक्षित व्यक्ति चुप रहते थे यह सोचकर कि बड़ लोग ही जाने। मगर अब हालत यह है कि शिक्षित व्यक्ति ही अब समूह के समर्थन में ऐसी गतिविधियां करने लगे हैं कि आश्चर्य होता है। नई तकनीकी का उपयोग करने वाले आतंकवादी इस बात का प्रमाण है।

सर्वजन हिताय की बजाय सर्व समाज हिताय करने की नीति ने आम आदमी को बेबस कर दिया है कि वह अपने समूहों से जुड़ा रहे। अगर हम दैहिक जीवन के सत्यों को देखें तो यहां कोई किसी का नहीं है पर समूह प्रमुखों की प्रचार रणनीति यह है कि हम ही वह भगवान हैं जो तुम्हारा भला कर सकते हैं।
देश में सामान्य व्यक्ति के लिये बहुत कठिनता का दौर है। बेरोजगारी के साथ ही शोषण बढ़ रहा है। शोषित और शोषक के बीच भारी आर्थिक अंतर है। गरीब और आदमी के बीच अंतर की मीमांसा करना तो एक तरह से समय खराब करना है। आजादी के बाद देश की व्यवस्था संचालन में मौलिक रूप से बदलाव की बजाय अंग्रेजों की ही पद्धति को अपनाया गया जिनका उद्देश्य ही समाज को बांटकर राज्य करना था। मुश्किल यह है कि लोग इसी व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं बजाय बदलकर व्यवस्था चलाने के। आम आदमी का चिंतन मुखर नहीं होता और जो जो मुखर हैं उनका आम आदमी से कोई लेना देना नहंी है। हर कोई अपना विचार लादना चाहता है पर सुनने को कोई तैयार नहीं।
मुख्य विषय व्यक्ति का निर्माण होना चाहिये जबकि लोग समाज का निर्माण करने की योजना बनाते हैं और उनके लिये व्यक्ति निर्माण उनके लिये गौण हो जाता है। कुछ विद्वान उपभोग की बढ़ती प्रवृत्तियों में कोई दोष नहंी देखते और उनके लिये योग तथा सत्साहित्य एक उपेक्षित विषय है। कभी कभी निराशा होती है पर इसके बावजूद कुछ आशा के केंद्र बिन्दू बन जाते हैं जो उत्साह का संचार करते हैं। इस समय धर्म के नाम पर विवाद अधिक चल रहा है जो कि एकदम प्रायोजित सा लगता है। ऐसे में अगर हम भारतीय धर्म की रक्षा की बात करेें तो बाबा रामदेव जी ने अभी बिटेन में योग केंद्र स्थापित किया है। इसके अलावा भी भारतीय योग संस्थान भी विश्व भर में अपनी शाखायें चला रहा है। ऐसे में एक बात लगती है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान अक्षुण्ण रहेगा और धर्म का विस्तार अपने गुणों के कारण होगा। सच बात तो यह है कि योग साधना और ध्यान ऐसी प्रद्धतियां हैं जो व्यक्ति का निर्माण करती हैं। यह हमारे धर्म का मूल स्त्रोत भी है। वह गैरजरूरी उपभोग की वस्तुओं के प्रति प्रवृत्त होने से रोकती हैं। इस देश की समस्या अब यह नहीं है कि यहां गरीब अधिक हैं बल्कि पैसा अधिक आ गया है जो कि कुछ ही हाथों में बंद हैं। यही हाथ अपनी रक्षा के लिये गरीबों में ऐसे लोगों को धन मुहैया कराकर समाज में वैमनस्य फैला रहे हैं ताकि गरीबों का ध्यान बंटा रहे। हम इधर स्वदेशी की बात करते हैं उधर विदेशी वस्तुओं का उपभोग बढ़ रहा है। व्यक्ति अब वस्तुओं का दास हो रहा है और यहींे से शुरुआत होती आदमी की चिंतन क्षमता के हृास की। धीरे धीरे वह मानसिक रूप से कमजोर हो जाता है। फिर उसके सामने दूसरो समूहोें का भय भी प्रस्तुत किया जाता है ताकि वह आजादी से सोच न सके।
देखा जाये तो सारे समूह अप्रासंगिक हो चुके हैं। मासूम लोग उनके खंडहरों में अपनी सुरक्षा इसलिये ढूंढ रहे हैं क्योंकि राज्य की सुरक्षा का अभाव उनके सामने प्रस्तुत किया जाता है। जबकि आज के समय व्यक्ति स्वयं सक्षम हो तो राज्य से भी उसे वैसी ही सुरक्षा मिल सकती है पर प्रचार और शिक्षा के माध्यम से शीर्ष पुरुष ही ऐसा वातावरण बनाते हैं कि आदमी समर्थ होने की सोचे भी नहीं। ऐसे में उन्हीं लोगों को ईमानदार माना जा सकता है कि जो व्यक्ति निर्माण की बात करे।
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कवि,लेखक और संपादक, दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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