कल अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाया जायेगा। यह अपने आप में अजीब बात लगती है क्योंकि अभी तक तो पुरुष को एक शोषक माना जाता है। अगर हम सभी धर्मों की मान्यताओं को देखें तो सभी सर्वशक्तिमान को पुरुष ही मानते हैं। हालांकि हमारे देश में भगवान के अवतारों और देवताओं के साथ उनकी धर्मपत्नियों की भी मान्यता है पर उसकी सीमा साकार और सगुण भक्ति तक है जहाँ निर्गुण और निराकार भक्ति की बात आती है तो परब्रह्म की साधना में पुरुषत्व की अनुभूति होती है। जहाँ तक मान्यताओं का प्रश्न है तो जितने भी मनीषी हुए हैं उन्होने मनुष्य को एक समाज मानते हुए अपने विचार व्यक्त किये हैं हालांकि वह सब पुरुष हैं। जब भी हम अपने आध्यात्म और ग्रंथों से उद्धरण लेते हैं तो उसमें पुरुषो का ही नाम आता है। अगर कुछ लोग कहते हैं कि सारी दुनिया की सामाजिक मान्यताएं पुरुष की बनाईं हुईं हैं तो गलत नहीं है।
अब जब यह दिवस मनाया जा रहा है तो पुरुषों के लिए वह समय आ गया है जब वह खुलकर अपना दर्द कहे। आखिर पुरुष भी कम पीड़ित नहीं है। उसकी पीडा यही है कि पुराने पुरुषों ने अपनी सता बनाए रखने के लिए जो मान्यताएं बनाईं वही उसके लिए समस्या बन गयी हैं। जो जाल उसने स्त्री को बन्धन में रखने के लिए बनाए उसमें वह आज का पुरुष ही फंसा है। स्त्री घर की चौखट के बाहर भी उसके नाम के बन्धन में रहे इसके लिए उसने नियम बनाए और उसे निरंतर बनाये रखने के लिए संघर्ष करता रहा, पर घर के अन्दर उसकी सता इतनी नहीं रही जितना समझा जाता है। अगर वह गृहस्वामी बना तो स्त्री उसकी गृहस्वामिनी। घर पुरुष के नाम पर चला स्त्री के हाथ और दिमाग के सहारे। वह निर्णायक दिखता है पर उसके निर्णय के पीछे एक स्त्री भी होती है क्या यह सच हम नहीं जानते। पत्नी के बिना या उसकी असहमति से कोई निर्णय लेने का कितना सोच पाते हैं और लेते हैं तो उस पर कितना अमल कर पाते हैं-यह विचारणीय प्रश्न है। घर के सदस्य उसके अधीन माने जाते हैं पर उसके कहने पर कितना चलते हैं बताने की जरूरत नहीं पुर कुछ हो जाये तो कहा जाता है कि उसका अपने परिवार पर नियंत्रण नहीं है।
वैसे समाज को अलग बांटकर उस पर विचार हमारा आध्यात्म नहीं करता। यह पश्चिमी विचारधारा है पर हम जब उस पर चल ही रहे हैं तो ‘पुरुष दिवस’ पर यह तो सोचना ही चाहिए कि अपना साम्राज्य कायम करने के लिए जो प्रयास विद्वान पुरुषों ने किये उसका परिणाम कोई उसकी नस्ल के लिए भी कोई अच्छा नहीं रहा यह बताने का वक्त आ गया है। माना जाता है कि पुरुष सक्षम है पर कितना?स्त्री से कहा जाता है कि अपने पति को भगवान जैसा समझना पर क्या वह उतना सक्षम कभी रहता है?”
आंकडे बताते हैं कि अधिकतर मामलों में पति पहले इस धरती से विदा होता है और पत्नी बाद में। वजह कहा जाता है कि उस पर तनाव अधिक रहता है-घर का और बाहर का। क्या यह स्त्री पर अपना साम्राज्य बनाए रखने से उपजता है? क्या पुरुष अपने घर के तनाव छिपाता नहीं है क्योंकि उससे उसकी समाज में हेठी होती है? क्या पुरुष होने से कई ऐसे तनाव नहीं सामने आते जिनका सामना स्त्री को नहीं करना पड़ता। हर संघर्ष पर उसका नाम होता है और जीत मिले तू उसकी जय-जय और हार जाये तो उसको ही हाय-हाय झेलने पड़ती है। इन सब पर विचार करने का कल वक्त है। निकला अपने अन्दर फैला तनाव। ऐसा दिन है जब महिलायें भी कोई आपति नहीं करेंगी।
टिप्पणियाँ
डा.रमा द्विवेदी said…
दीपक जी,
आश्चर्य है यह जान कर कि आज पुरुष का दिन है…सब दिन तो उसी के हैं 🙂
बधाई और शुभकामनाएं इस शुभ दिन पर:)
Thanks