दादुर, मोर, किसान मन, लग्यो रहैं धन माहिं
रहिमन चातक रटनि हूँ, सर्वर को कोऊ नाहिं
कविवर रहीम कहते हैं कि मेंढक, मोर और किसान का मन बादलों को ही निहारता रहता है पर चातक स्वाती नक्षत्र की बूँद को ही रटता रहता है और तालाब के जल को नहीं पीता।
इसका आशय यह कि एक भक्त के लिए भगवान का ही महत्व होता है और वह किसी अन्य की कामना नहीं करता है। किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति से वह प्रेम कर ही नहीं सकता। वह तो बस अपनी साधना में लीन रहता है।
दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अंधु
भली बिचारी दीनता, दीनबंधु से बंधु
कविवर रहीम कहते हैं कि भगवान् के प्रति दैन्य भाव से की गयी भक्ति करने पर जो आनन्द प्राप्त होता है उसे इस भौतिक जगत से प्रेम करने वाले क्या समझ पाएगे। दीनता अपने आप में एक एसा गुण है जिससे दीनबंधु (परमात्मा) से बंधुत्व का आभास होता है।
तात्पर्य यह है कि दीनता का भाव रखकर ही ईश्वर को पाया जा सकता है, जो लोग अपने पद, पैसे और प्रतिष्टा के अहंकार में हैं उन्हें ईश्वर से क्या वास्ता क्यों कि ईश्वर ने उन्हें पहले ही मोह माया के जंजाल में डाल दिया है।
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